सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के ताजा अध्ययन में खुलासा हुआ है कि जंक फूड और पैकेटबंद भोजन खाकर हम जाने-अनजाने खुद को बीमारियों के भंवरजाल में धकेल रहे हैं। अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि जंक फूड में नमक, वसा, ट्रांस फैट की अत्यधिक मात्रा है जो मोटापा, उच्च रक्तचाप, मधुमेह और हृदय की बीमारियों के लिए जिम्मेदार है। ताकतवर प्रोसेस्ड फूड इंडस्ट्री और सरकार की मिलीभगत से जंक फूड 6 साल से चल रहे तमाम प्रयासों के बावजूद कानूनी दायरे में नहीं आ पाया है। जंक फूड बनाने वाली कंपनियां उपभोक्ताओं को गलत जानकारी देकर भ्रमित कर रही हैं और खाद्य नियामक मूकदर्शक बनकर बैठा हुआ है। अध्ययन : मृणाल मलिक, अरविंद सिंह सेंगर और राकेश कुमार सोंधिया विश्लेषण : अमित खुराना और सोनल ढींगरा
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की पर्यावरण निगरानी प्रयोगशाला में की गई जांच के परिणाम दो प्रकार की विसंगतियों को उजागर करते हैं। पहला, खाद्य उत्पादक कंपनियां उन उत्पादों को खुलेआम बेच रही हैं जिनमें पोषक तत्वों की मात्रा सेहत के लिए ठीक नहीं है। दूसरा, फूड इंडस्ट्री और नियामक एजेंसियों का गठजोड़ इस बेशर्म गोरखधंधे का समर्थन कर रहा है। ऐसे में फूड पैकेट्स पर लेबल लगाने और उन पर पोषक तत्वों की सही जानकारी देने के लिए भारत में एक मजबूत कानून की तत्काल जरूरत है।
गौरतलब है कि छह वर्ष पहले ही फूड पैकेट्स की उचित लेबलिंग की जरूरत महसूस कर ली गई थी। इसका मकसद ग्राहकों द्वारा खरीदे गए खाद्य पदार्थों के बारे में सभी जानकारियां देना था। मौजूदा फूड सेफ्टी स्टैंडर्ड्स (पैकेजिंग व लेबलिंग) रेगुलेशंस, 2011 बेहद कमजोर और अप्रभावी है (देखें, लेबलिंग के प्रस्ताव,)। यहां तक कि नमक जैसे बुनियादी खाद्य पदार्थ के बारे में भी अनिवार्यतः जानकारियां नहीं दी जातीं। दरअसल, देखा जाए तो स्पष्ट तौर पर शक्तिशाली जंक फूड कारोबार और लालफीताशाही के दबाव के चलते कानूनी तंत्र को लागू करने में प्रगति नहीं हो रही है।
भारत की खाद्य नियामक संस्था फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एफएसएसएआई) ने दिल्ली हाईकोर्ट के एक आदेश के बाद वर्ष 2013 में विशेषज्ञों की एक कमेटी गठित की थी। इस कमेटी का उद्देश्य स्कूलों में मौजूद जंक फूड का नियमन करना था। इस कमेटी में डॉक्टर, पोषण विज्ञानी (न्यूट्रिशनिस्ट), जनस्वास्थ्य विशेषज्ञ, सिविल सोसाइटी और कारोबारी जगत के लोग शामिल थे। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट भी इसका हिस्सा था। इससे पहले उदय फाउंडेशन नाम की गैर-लाभकारी संस्था ने स्कूलों के आसपास जंक फूड की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने के लिए जनहित याचिका दायर की थी। वर्ष 2014 में विशेषज्ञों की कमेटी ने कैलोरी, शुगर, वसा (फैट), सैचुरेटेड वसा और नमक के बारे में फूड पैकेट्स के सामने (एफओपी यानी फ्रंट ऑफ पैक) लेबलिंग करने (देखें, स्कूलों के ड्राफ्ट से कलर कोडिंग हटी,) का सुझाव दिया था। ये ग्राहकों को जानने में मदद करता कि वे जिस खाद्य पदार्थ का सेवन कर रहे हैं, उसमें कौन-सा तत्व कितनी मात्रा में मौजूद है।
स्कूलों के ड्राफ्ट से कलर कोडिंग हटीफूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड (सेफ फूड एंड हेल्दी डाइट्स) रेगुलेशन, 2019 के मसौदे का लक्ष्य स्कूलों में उच्च वसा, शुगर और नमक को नियंत्रित करना था। इन नियमों को कई साल तक रोककर रखा गया। नवंबर 2019 में यह मसौदा सामने आया लेकिन 2013 में एफएसएसएआई द्वारा गठित समिति की सिफारिशों को बेहद कमजोर कर दिया गया। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट भी इस समिति का हिस्सा था।समिति ने भोजन के लिए कलर कोडिंग की सिफारिश की थी। ये कोडिंग लाल, पीले और हरे रंग की थी। यह प्रस्तावित स्कूल कैंटीन नीति का आधार थी और यह फरवरी 2018 के मसौदे तक अस्तित्व में थी। ऐसा लगता है कि इंडस्ट्री इससे बचना चाहती थी। अत: यह महत्वपूर्ण कोडिंग 2019 के मसौदे से हटा ली गई। |
लेकिन, ये रिपोर्ट “उपयुक्त” नहीं थी, इसलिए वसा, नमक व शुगर की मात्रा और इससे स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों के मूल्यांकन के लिए अगले वर्ष यानी 2015 में एफएसएसएआई ने विशेषज्ञों की एक और कमेटी बनाई। 11 सदस्यीय इस कमेटी का अध्यक्ष प्रभाकरण को बनाया गया था। वह उस वक्त पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के उपाध्यक्ष थे। दो साल बाद इस कमेटी ने भी पूर्व में गठित कमेटी की अनुशंसाओं का समर्थन किया था। इस कमेटी ने पैकेटबंद और फास्ट फूड्स के सही आकार और जरूरी पोषक तत्वों की ठोस जानकारी देने (देखें, एक खुराक में कितनी मात्रा,) का सुझाव दिया था।
एक खुराक में कितनी मात्राभारत में सर्विंग साइज का कोई मानक नहीं है। मजबूत नियमों के अभाव में कुछ कंपनियां अपने पैकेटबंद भोजन में इसकी घोषणा करती हैं, जबकि कुछ ऐसा नहीं करतीं। कुछ ऐसी कंपनियां भी हैं जो यह घोषणा अपनी वेबसाइट पर करती हैं। फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड (लेबलिंग एंड डिस्प्ले) रेगुलेशन, 2019 सर्विंग साइज और सर्व की संख्या का उल्लेख प्रस्तावित करते हैं। ये रिकमेंडेड डायटरी अलाउंस में प्रति सर्व के योगदान की व्यवस्था भी करते हैं। लेकिन सर्व साइज का मतलब क्या है?सर्विंग साइज आमतौर पर भोजन की वह मात्रा होती है जो एक बार में खाई जाती है। अलग-अलग भोजन में यह भिन्न होती है। उदाहरण के लिए चिप्स के लिए यह 30 ग्राम, नमकीन के लिए 35 ग्राम और फटाफट नूडल्स के लिए 60 ग्राम है। समस्या यह है कि कई बार पैकेट का आकार सर्विंग साइज से मेल नहीं खाता। उदाहरण के लिए 52 या 60 ग्राम के चिप्स का पैकेट अपने सर्विंग साइज को 30 ग्राम बता सकता है, जबकि उपभोग इससे अधिक होगा। फास्ट फूड के मामले में पूरा बर्गर सर्विंग साइज होता है। ऐसे में सर्विंग साइज पर स्पष्टता होनी चाहिए। एक मुट्ठी, एक चम्मच या एक पूरा कप सर्विंग साइज को समझना आसान है। लेकिन ऐसा नहीं होता। इस संबंध में किए गए सभी प्रयासों का एक ही नतीजा निकलता है। वह यह कि उपभोक्ता को जंक फूड की लत लगा दो और यह सुनिश्चित कर दो कि वह उचित निर्णय लेने के लिए जागरूक ही न हो पाए। |
अब आपको लगेगा कि इस कमेटी के सुझावों के बाद किसी तरह के टालमटोल की कोई संभावना ही नहीं थी। लेकिन ऐसा नहीं है। कमेटी के सुझाव के बाद एफएसएसएआई को फूड सेफ्टी स्टैंडर्ड (लेबलिंग एंड डिसप्ले) रेगुलेशन, 2018 लाने में एक साल लग गया। रेगुलेशन के ड्राफ्ट में नमक को अनिवार्य रूप से सोडियम क्लोराइड लिखने को कहा गया था, लेकिन फूड लेबल्स में अब भी नमक का जिक्र नहीं होता है। ड्राफ्ट में एफओपी का भी प्रावधान था, जो वैश्विक स्तर पर खाद्य पदार्थों में मौजूद तत्वों के बारे में जानकारी लेने का अहम तत्व है। प्रावधान के अनुसार, लेबल के ऊपरी हिस्से में कैलोरी, कुल वसा (फैट), कुल शुगर, ट्रांस फैट और नमक की मात्रा की जानकारी देनी थी और निचले हिस्से में लिखना था कि इन तत्वों का कितना प्रतिशत एक व्यक्ति के अच्छे स्वास्थ्य के लिए जरूरी है। एफएसएसएआई ने रिकमेंडेड डायटरी अलाउंस (आरडीए) में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 2,000 कैलोरी तय किया। ड्राफ्ट में ये भी प्रस्ताव दिया गया था कि जिन पोषक तत्वों की मात्रा प्रस्तावित परिमाण से ज्यादा हो, उन सभी पोषक तत्वों के नाम में लाल निशान लगाया जाए।
यह एक बड़ा आंदोलन था, क्योंकि इस अधिसूचना के लागू होने से वे नियम बदल जाते, जिसके चलते फूड कंपनियां हमारी रसोईघरों व हमारे पेट पर राज करती हैं। इस ड्राफ्ट के जमीन पर उतरने से हमारे पास न केवल ये विकल्प होता कि हम फूड में मौजूद नमक, शुगर या वसा के बारे में जान पाते बल्कि हमें ये भी पता चलता कि हम रोज कितना आहार लें कि कैलोरी दिनभर में बर्न हो जाए। जाहिर सी बात है कि ये सब फूड इंडस्ट्री की नकेल कसने के लिए काफी था।
17 अगस्त 2018 को सुरक्षित व स्वस्थ भोजन के लिए फूड लेबलिंग रेगुलेशन पर हुए एक राष्ट्रीय विमर्श में एफएसएसएआई के सीईओ पवन अग्रवाल ने कहा था, “इंडस्ट्री नहीं चाहती कि फूड में लगने वाले लेबल में खतरे का प्रतिनिधित्व करने वाला लाल निशान लगाया जाए।” अत: वर्ष 2018 में तैयार किया गया ड्राफ्ट आगे का सफर तय नहीं कर पाया और ड्राफ्ट बनकर ही रह गया। ऐसे में एफएसएसएआई ने एक नया तरीका ईजाद करने के लिए तीसरी कमेटी गठित करने की घोषणा की। इस बार नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन के पूर्व डायरेक्टर बी. सेसिकरण को कमेटी का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। लेकिन, आश्चर्यजनक रूप से इस कमेटी की अनुशंसाओं को कभी सार्वजनिक नहीं किया गया।
आखिरकार, नियमन के लिए एफएसएसएआई ने जुलाई, 2019 में दूसरी बार ड्राफ्ट तैयार किया। हालांकि, ये ड्राफ्ट पिछले ड्राफ्ट के मुकाबले काफी कमजोर था (देखें, “खाद्य सुरक्षा मानक की प्रगति”)। अब आपको लग रहा होगा कि मामला अपने मुकाम पर पहुंच गया, लेकिन नहीं! नया ड्राफ्ट जो पहले की तुलना में काफी कमजोर है और आम लोगों के स्वास्थ्य के साथ गंभीर रूप से समझौता करता है, वो भी संभवतः प्रभावशाली फूड इंडस्ट्री को स्वीकार्य नहीं है। इस ड्राफ्ट को लेकर अभी तक अधिसूचना जारी नहीं हुई है। आम लोगों के सुझाव के लिए एक ड्राफ्ट के जारी होने के बाद अधिसूचना जारी करने में दो महीने से ज्यादा वक्त नहीं लगना चाहिए। लेकिन, पांच महीने गुजर जाने के बाद भी अधिसूचना जारी नहीं की गई है। चर्चा है कि नियम में और ढील देने और कानून लाने में लेटलतीफी करने के लिए अब एक और नई कमेटी लाने की तैयारी चल रही है। इस तरह के टालमटोल से ये तो साफ है कि फूड बिजनेस का हमारे स्वास्थ्य से कोई वास्ता नहीं है, बल्कि यह कारोबार केवल और केवल कमाई करने के लिए किया जा रहा है।
जारी...