कोविड-19 महामारी: वैक्सीन से कमाई कर रही कंपनियां क्यों नहीं बना रही हैं दवा

महामारी को दो साल होने को हैं और इसके इलाज की दवाएं नगण्य हैं। सरकार, दवा कंपनियों और वैज्ञानिक समुदाय के हाथ लगभग खाली हैं और दवा बनाने के लिए उनमें खास उत्साह भी नहीं है
कोविड-19 महामारी: वैक्सीन से कमाई कर रही कंपनियां क्यों नहीं बना रही हैं दवा
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दुनिया दो साल से कोविड-19 महामारी से जूझ रही है। एक के बाद एक संक्रमण की लहर का सामना करने के बाद एक बात तो तय है कि यह वायरस हमारे आसपास से कभी समाप्त नहीं होने जा रहा है। संभवतः महामारी तो किसी बिंदु पर समाप्त होगी लेकिन वायरस निम्न स्तरों पर फैलता रहेगा, जिसके कारण इसका प्रभाव कहीं न कहीं दिखाई पड़ता रहेगा।

15 सितंबर को अमेरिका स्थित रिसर्च सेंटर इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (आईएचएमई) ने अनुमान लगाया कि 2022 के अंत के बाद भी वायरस का संचरण पर्याप्त रूप जारी रहेगा, जिसमें 10 लाख संक्रमण और प्रतिदिन 28,000 मौतों की आशंका है। दुनिया इसे झेलने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं है।

सदियों में एक बार होने वाले इस प्रकार के प्रकोप के चलते वायरस के विभिन्न स्वरूप (वेरिएंट) और टीका के क्षेत्र में विज्ञान ने त्वरित प्रगति दिखाई, लेकिन महामारी से घबराई दुनिया ने अपने पूरी ताकत केवल टीका बनाने में झोंक दी, जो महज संक्रमण को रोकने में कारगर है। लेकिन वायरस से संक्रमित लोगों के उपचार के लिए हमारी मेडिकल साइंस की झोली लगभग खाली है।

20 अगस्त को जारी वैश्विक गैर-लाभकारी ड्रग फॉर नेगलेक्टेड डिजीज इनिशिएटिव (डीएनडीआई) की रिपोर्ट ने भी कोविड-19 की दवाओं के अनुसंधान और विकास में रुचि की कमी की ओर इशारा किया है। महामारी के दौरान, दवा की खोज, उनके क्लीनिकल परीक्षण तथा ऑक्सीजन थेरेपी सहित अन्य दवाओं के उत्पादन और वितरण के लिए निवेश की उपलब्धता दोयम दर्जे की रही। डीएनडीआई की रिपोर्ट के मुताबिक, विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा डिजाइन किए गए कोविड के विभिन्न आयामों के शोध में एक आयाम-दवाओं- में अब भी 3.2 अमेरिकी डॉलर की वित्तीय कमी है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि वायरस के खिलाफ टीका एक प्रभावी उपाय है लेकिन टीकाकरण की वर्तमान दर पर वैश्विक आबादी का बड़ा हिस्सा दो साल बाद भी पूरी तरह से प्रतिरक्षित नहीं होने वाला। विशेष रूप से निम्न और मध्यम आय वर्ग वाले देश। इसके अलावा पूर्ण टीकाकरण के बावजूद होने वाला संक्रमण भी वास्तविकता बना रहेगा।

अमेरिका के ह्यूस्टन विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ मेडिसिन में क्लिनिकल साइंसेज विभाग में वरिष्ठ सहायक प्रोफेसर भावना लाल कहती हैं कि ऐसे में जब वायरस लगातार रूप परिवर्तित कर नए वेरियंट बना रहा है, तब हम टीकाकरण से भी यह सुनिश्चित नहीं कर सकते कि सब ठीक ही होगा।

उन्होंने और उनके सहयोगियों ने 1 जून 2021 को लैसेंट पत्रिका में इस विषय पर लिखी एक टिप्पणी में कहा है कि संक्रमण की गंभीरता और मृत्यु दर को रोकने व अत्यधिक दबाव के चलते चरमराई स्वास्थ्य प्रणालियों को सांस लेने के लिए प्रभावशाली कोविड-19 चिकित्सीय प्रणाली विकसित करने की तत्काल जरूरत है। यहां तक कि वैश्विक स्तर पर लागू की गई कुछ चिकित्सीय रणनीतियां चुनौतियों से भरी है। डाउन टू अर्थ ने वर्तमान में भारत में लागू किए जा रहे ऐसे कुछ उपचारों का विश्लेषण किया है:

मोनोक्लोनल एंटीबॉडी: एक महंगा दांव

भावना लाल कहती हैं कि कोविड से लड़ने में एक उपचार, जिसने चिकित्सकों का ध्यान खींचा है, उसमें “मोनोक्लोनल एंटीबॉडी” (एमएबी) नामक प्रोटीन शामिल है। इसके तहत मनुष्य में कोविड के संक्रमण के बाद जो एंटीबॉडी बनती है, उसे लैब में कृत्रिम तरीके से निर्मित किया जाता है। और, कोविड के मरीजों को शुरुआती दिनों में इंजेक्शन के रूप में दिया जाता है। अमेरिका के पास चार स्वीकृत एमएबी-आधारित दवाएं हैं, जबकि अन्य आधा दर्जन एमएबी दवाएं परीक्षण की प्रक्रिया से गुजर रही हैं। यह उपचार सभी के लिए लगभग निःशुल्क है। अमेरिकी की कुछ सरकारी वेबसाइट्स निजी दवा की दुकान से भी इनकी खरीदारी में मदद करती हैं।

कुछ एमएबी दवाएं इम्युनोमोड्यूलेटर की तरह होती हैं जो प्रतिरक्षा प्रणाली पर काम करती हैं और शरीर में साइटोकाइन स्टॉर्म को रोकती हैं। यदि इस स्टॉर्म को न रोका जाए तो मरीजों को न सिर्फ अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है बल्कि उसकी मृत्यु भी हो सकती है। इम्युनोमोड्यूलेटर का असर गंभीर रूप से बीमार मरीजों पर देखा गया है। इनके अध्ययन की समीक्षा में पाया गया कि ये दवाएं मृत्यु की आशंका को 13 फीसदी तक कम कर देती हैं। डब्ल्यूएचओ ने 6 जुलाई, 2021 को दो ऐसी दवाओं- टोसीलिजुमएब और सरिलुमाब को मंजूरी दी।

गैर-लाभकारी संस्थाएं इस ओर ध्यान दिलाती हैं कि यह दवाएं निम्न और मध्यम आय वाले देशों में महंगी हैं। अंतरराष्ट्रीय गैर-लाभकारी समूह मेडिसिन्स सैन्स फ्रंटियर द्वारा एक बयान में कहा गया है कि टोसीलिजुमएब की 600 मिग्रा. की कीमत ऑस्ट्रेलिया में 410 यूएस डॉलर और भारत में 646 यूएस डॉलर से लेकर 3,625 यूएस तक डॉलर है, जबकि इसकी उत्पादन लागत 400 मिलीग्राम खुराक के लिए 40 डॉलर तक कम हो सकती है।

एमएबी-आधारित दवाओं की उच्च लागत को इस तथ्य से समझाया जा सकता है कि ये बायोलॉजिक्स श्रेणी में आती हैं। मतलब इनका उत्पादन शरीर में पाए जाने वाले रसायनांे से होता है जबकि अन्य दवाओं के उत्पादन की शुरुआत शून्य से लैब में ही होती है। इसलिए बायोलॉजिक्स को विकसित करना तो आसान है लेकिन प्रक्रिया महंगी है।

भारत में बेंगलुरु स्थित फार्मास्युटिकल कंपनी बायोकॉन एमएबी दवा इटोलिजुमैब को बाजार में लाती है, जिसकी कीमत लगभग 60,000 रुपए है। हालांकि, यह भारत के आधिकारिक उपचार प्रोटोकॉल में शामिल नहीं है। केंद्र ने भले ही इस दवा को मंजूरी दे दी, लेकिन इसका परीक्षण केवल 30 रोगियों पर किया गया है। उद्योग जगत की दिग्गज कंपनी सिप्ला और बायोटेक्नोलॉजी कंपनी रोश इंडिया एक एमएबी कॉकटेल (दो दवाओं का संयोजन) रोनाप्रेव का भारत में आयात, विपणन और वितरण करती है, जो और भी महंगा है।

इसकी कीमत 70 हजार से लेकर 1.25 लाख रुपए के बीच है। रोश और रेजेनरॉन फार्मास्युटिकल्स द्वारा अमेरिका में इसी दवा को रेजेनकोव नाम से निर्मित किया जाता है। 24 सितंबर, 2021 को डब्ल्यूएचओ ने रोनाप्रेव के इस्तेमाल की मंजूरी दी। इसने रेजेनरॉन से दवा को किफायती बनाने और इसके अन्य “बायोसिमिलर” बनाने की अपील भी की।

ब़ॉयोसिमिलर कंपनियों द्वारा उत्पादित बॉयोलॉजिक्स की नकल हैं जिन्हें मूल रूप से कोई और कंपनी बनाती है। मुंबई के फार्मास्युटिकल कंसल्टेंट और अर्न्स्ट एंड यंग व केपीएमजी के पूर्व सीनियर पार्टनर उत्कर्ष पलनिटकर कहते हैं कि ये एक सस्ता और अच्छा विकल्प है। भारतीय कंपनियां मधुमेह, एनीमिया, आंखों में संक्रमण और कुछ कैंसर के इलाज के लिए बॉयोसिमिलर का उत्पादन करती हैं। वैश्विक स्तर या भारत में अब तक कोई कोविड-19 बायोसिमिलर नहीं बना है।

एंटीवायरल: एक किफायती विकल्प कुछ लोगों का तर्क है कि दुनिया एमएबी उपचारों के प्रति बेहद आशावान है। इस तथ्य के बावजूद कि दवा की अनुमानित आपूर्ति वैश्विक जरूरतों का केवल 2 से 4 प्रतिशत ही पूरा करेगी। लेकिन इस चमत्कारी दवा की सफलता पर विचार करते हुए डॉक्टर और स्वास्थ्य विशेषज्ञ एंटी-वायरल दवाओं के विकास पर बहुत जोर दे रहे हैं जिन्हें अगर जल्दी दिया जाए, तो श्वसन तंत्र के अंदर प्रसार को रोका जा सकता है। टेमिफ्लू (ओसेल्टावीमीर) जैसी दवाएं इन्फ्लूएंजा वायरस के खिलाफ प्रभावी एंटीवायरल साबित हुई हैं।

अभी तक रेमडिसविर ऐसी एंटीवायरल दवा है जिसे शुरू में इबोला वायरस के उपचार के लिए विकसित किया गया था। इसका व्यापक रूप से कोविड के उपचार में उपयोग किया जा रहा है। डब्लूएचओ ने पिछले साल इस दवा का 30 देशों के 400 अस्पतालों में परीक्षण किया लेकिन इसे प्रभावी नहीं पाया, वहीं दूसरी ओर कई वैश्विक परीक्षणों में इसे प्रभावी पाया गया है। संक्रमण के शुरुआती चरणों में रेमडेसिविर एकमात्र एंटीवायरल है जो आधिकारिक तौर पर अमेरिका के कोविड -19 उपचार प्रोटोकॉल का हिस्सा है।

भारत भी इस दवा की अनुशंसा करता है लेकिन कई शर्तों के साथ। इसे केवल उच्च जोखिम वाले रोगियों को ही दिया जाना चाहिए। देश में कोरोना की दूसरी लहर के दौरान इस दवा की कालाबाजारी भी खूब हुई। यह महंगी भी है।

आइवरमैक्टिन और हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन अन्य एंटीवायरल हैं जिन्हें डब्लूएचओ ने बाद के परीक्षणों में खारिज कर दिया। दोनों दवाएं अब सभी प्रमुख वैश्विक उपचार प्रोटोकॉल से बाहर हैं। हालांकि ये दवाएं 23 सितंबर 2021 तक भारत के प्रोटोकॉल का हिस्सा बनी रहीं, जो समझ से परे है। आइवरमैक्टिन उत्तर प्रदेश और चार अन्य राज्य की सूचियों (महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, उत्तराखंड) में कोिवड की रोकथाम के लिए बनी रही। यह स्थिति तब है जब इन दवाओं के रोग निवारक होने का कोई प्रमाण नहीं है।

भारत के रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन द्वारा विकसित एक एंटीवायरल दवा 2-डीऑक्सी-डी-ग्लूकोज (2डीजी) की स्वीकृति भी संदिग्ध है, क्योंकि यह आधिकारिक प्रोटोकॉल में नहीं है। केरल के एर्नाकुलम के एक वरिष्ठ चिकित्सक वरुण चेरुपरामबथ कहते हैं, “इस तरह के भ्रामक संदेश किसी कहर से कम नहीं हैं, खासकर उन चिकित्सकों के लिए जो परीक्षणों की बारीकियों पर नजर नहीं रखते।” केंद्रीय आयुष मंत्रालय ने भी बड़े पैमाने पर बिना परीक्षण इन दवाओं की सिफारिश की। आसानी से उपलब्ध इन दवाइयों का उपयोग करने वाले मरीजों को इनके साइडइफैक्ट्स का अनुभव भी होगा।

कॉर्टिकोस्टेरॉइड्स दवाओं की पहली श्रेणी थी, जिन्हें डब्ल्यूएचओ ने सितंबर 2020 की शुरुआत में कोविड-19 उपचार के लिए अनुमोदित किया गया था। यह वायरस के खिलाफ काम नहीं करती हैं, लेकिन जब एक मरीज हाइपोक्सिक (अति सक्रिय प्रतिरक्षा प्रणाली के कारण ऊतकों को ऑक्सीजन की आपूर्ति कम हो जाती है) होता है यह तब काम करती हैं।

हालांकि भारत में कोरोना की दूसरी लहर में इन स्टेरॉइड का जमकर गैरजरूरी उपयोग किया गया, कई बार तो डॉक्टर के कहने पर भी। बाद में इस दुरुपयोग के म्यूकरमाइकोसिस (ब्लैक फंगस) जैसे कई परिणाम सामने आए।

नवाचार की आवश्यकता

कोविड उपचार की सूची से एक बात स्पष्ट है कि सभी श्रेणियों की अधिकांश दवाएं कुछ एमएबी को छोड़कर, अन्य बीमारियों में प्रयोग की जाती हैं। यह दवाएं अन्य बीमारियों के खिलाफ उपचार के लिए पहले ही प्रमाणित और सुरक्षित हैं। बड़े पैमाने पर मानव परीक्षणों के साथ केवल कोविड-19 के खिलाफ इन दवाओं की प्रभावकारिता की जांच करने की आवश्यकता है।

लेकिन दूसरी ओर, इसका मतलब यह भी है कि दवा कंपनियों की नए चिकित्सीय उपचार विकसित करने में बहुत कम दिलचस्पी है, इस ओर प्रोत्साहन की भी कमी है। अमेरिका और ब्रिटेन में डब्ल्यूएचओ या सरकारी संस्थानों द्वारा सहायता प्राप्त कुछ मुट्ठी भर शोध अपवाद हैं।

यह देशों के बीच दवा की असमानता के जोखिम को बढ़ाता है, जैसा कि अभी टीका वितरण के साथ है। लेकिन इसके लिए पब्लिक हेल्थ लॉयर लीना मेंघाने कहती हैं कि इसके दो तरह के समाधान हैं। पहला कोविड-19 के लिए दवाओं पर पेटेंट माफ करना, जैसा कि विश्व व्यापार संगठन में बहस हो रही है। दूसरा, हमें उन सभी देशों में काम करना चाहिए जो दवा के उत्पादन में क्षमतावान हैं। दक्षिण कोरिया, चीन, ब्राजील, अर्जेंटीना, बांग्लादेश ऐसे क्षमतावान देश हैं जिन्हें सहयोग मिले तो इस दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।

एक और समस्या यह है कि निर्माणाधीन अधिकांश दवाइयां उनके लिए हैं जो गंभीर रूप से बीमार हैं या कोमॉर्बिड हैं। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, ऐसा तब है जब 80 प्रतिशत से अधिक रोगी मामूली रूप से बीमार पड़ते हैं। यहां तक कि जिन लोगों को टीका लगा है, उनमें भी केवल हल्के मामले होते हैं। डीएनडीआई रिपोर्ट के अनुसार, “शुरुआत में रोगियों में हल्के से मध्यम मामलों के लिए दवाइयां विकसित करने पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया था, जबकि इस तरह के उपचार गहन देखभाल और अस्पतालों में भर्ती होने वाले मामलों को कम करने में कारगर साबित होंगे।”

पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के प्रमुख केएस रेड्डी का कहना है कि हल्के बीमार पड़ने वाले मरीजों के लिए दवाओं का क्लिनिकल परीक्षण तैयार करना कठिन है। गंभीर रूप से बीमार रोगियों में यह देखा जा सकता है कि मृत्यु दर किस अनुपात में कम हुई या अस्पताल में भर्ती होने वाले मरीजों में कितनी कमी आई। ये दोनों ही मापदंड कम गंभीर मामलों में नहीं लागू नहीं होते, इसलिए इनके क्लिनिकल परीक्षण डिजाइन करना मुश्किल है।

दूसरा, रेड्डी कहते हैं, यह निर्धारित करना कठिन है कि परीक्षणों के बाद कौन से परिणाम देखे जाएंगे। कुछ विशेषज्ञों को चिंता है कि सार्स सीओवी-2 के बदलने, टीकों और मौजूदा दवाओं के अप्रभावी होने की संभावना है। शोधपत्रों में एंटीवायरल रेजिस्टेंस को जोखिम के रूप में भी चिह्नित किया गया है।

मुंबई स्थित फार्मास्युटिकल कंसल्टेंट जयदीप गोगटे का कहना है कि एचआईवी वायरस यहां प्रासंगिक है। एचआईवी के खिलाफ दवाओं के विकास के बहुत पहले, विशेषज्ञों ने महसूस किया कि कोई भी चिकित्सीय पद्धति काम नहीं करेगी। 1995 में वैज्ञानिकों ने ट्रिपल थेरेपी की खोज की जिसने वायरस में कई एंजाइमों को उस चरण तक पहुंचने के लिए लक्षित किया जहां वायरल लोड नियंत्रण में है। गोगटे सार्स सीओवी-2 को बेहतर तरीके से जानने की आवश्यकता पर जोर देते हुए कहते हैं कि फ्लू वायरस सबसे तेजी से उत्परिवर्तित विषाणुओं में से एक है। लेकिन अब इसके खिलाफ कई एंटीवायरल हैं, क्योंकि लोगों ने वायरस को समझ लिया है।

(यह स्टोरी इससे पहले डाउन टू अर्थ, हिंदी पत्रिका के नवंबर 2021 के अंक में प्रकाशित हो चुकी है)

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