रोगजनकों का डाटा शेयर करने की रणनीति से महामारियों में नहीं हुआ फायदा

इंडोनेशिया ने पक्षियों से जुड़े इंफ्लुएंजा को पैदा करने वाले वायरस एच5एन1 के जेनेटिक सीक्वेंस को डब्ल्यूएचओ से साझा करने से इंकार कर दिया था
रोगजनकों का डाटा शेयर करने की रणनीति से महामारियों में नहीं हुआ फायदा
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लगभग एक साल पहले चीन के वैज्ञानिकों ने नोवेल कोरोनावायरस, कोविड-19 को जन्म देने वाला पहला जेनेटिक सीक्वेंस डाटा (जीएसडी) दुनिया से शेयर किया था। इस डाटा को अमेरिका, यूरोप और जापान के पार्टनरशिप वाले डाटाबेस, जेनबैंक पर जारी किया गया था।
इसके दो दिन बाद यानी 12 जनवरी को चीन ने आधिकारिक तौर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) से जीएसडी शेयर किया। इससे डब्ल्यूएचओ की इंफ्लूएंजा प्रयोगशालाओं के बड़े नेटवर्क यानी ग्लोबल इंफ्लूएंजा सर्विलांस एंड रिस्पांस सिस्टम (जीआईएसआरएस) की इस महत्वपूर्ण डाटा तक पहुंच हो पाई।
कोरोना की पहली लहर के रिपोर्ट होने के दो हफ्ते से भी कम समय में कोरोनावायरस-2 या सार्स-कोवी -2 के लिए जिम्मेदार जीनोम ( जीन के समूह) और उससे संबंधित डाटा को शेयर करने के लिए चीन की काफी तारीफ भी हुई थी।
यह कोरोना से लड़ने में बहुत महत्वपूर्ण बात थी। उच्च क्वालिटी वाले डाटा के सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध होने से दुनिया भर के वैज्ञानिक तेजी से टेस्ट किट जांचने और एंटीवायरल दवाओं और वैक्सीन तैयार करने के लिए प्रयोगशाला से जुड़े अन्य काम करने में सक्षम हो सके।
वायरस के लिए प्रायोगिक वैक्सीन तैयार करने वाली अमेरिकी नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ एलर्जी एंड इंफेक्सियस डिजीजेस (एनआईएआईडी ) और इसकी सहयोगी बायोटेक कंपनी माडर्ना का प्रयास इसका प्रमुख उदाहरण है।
इसके छह महीने बाद कोविड-19 वैक्सीन के तीसरे चरण के परीक्षण जारी थे। खतरनाक कोरोनावायरस की जांच के लिए इसी से आगे न्यूक्लियक एसिड एम्प्लीफिकेशन टेस्ट और आरटी- पीसीआर जैसे टेस्ट इजाद किए गए ।
यह स्थिति 2007 से बिल्कुल उलट है, जब इंडोनेशिया ने पक्षियों से जुड़े इंफ्लुएंजा को पैदा करने वाले वायरस एच5एन1 के जेनेटिक सीक्वेंस को डब्ल्यूएचओ से साझा करने से इंकार कर दिया था। इसके पीछे उसने अपने देश की संप्रभुता की दलील दी थी। इस दलील के पीछे इंडोनेशिया ने वैश्विक समझौते यानी जैविक विविधता सम्मेलन (सीबीडी) को आधार बनाया था।
जैविक विविधता सम्मेलन यानी सीबीडी किसी देश को यह संप्रभु अधिकार देता है कि वह अपने लाभ के अनुकूल ही अपने जैविक स्रोतों से जुड़ी जानकारी साझा करे। इंडोनेशिया का तर्क था कि डब्ल्यूएचओ वायरस से जुड़ी जानकारी फार्मा कंपनियों को दे रहा था, ये कंपनियां ऐसी वैक्सीन तैयार करती हैं, जिनका इस्तेमाल करना इंडोनेशिया और उसके जैसे मध्य आय वाले देशों के लिए मुश्किल था।
जकार्ता के इस दावे से दुनिया को झटका लगा था, क्योंकि यह वैज्ञानिक सिद्धांतों में सहयोग करने के नियम का उल्लंघन था। हालांकि यह कोई पहला मामला भी नहीं था। अन्य देशों ने भी डब्ल्यूएचओ के ग्लोबल इंफ्लूएंजा सर्विलांस नेटवर्क और उसके पूर्ववर्ती जीआईएसआरएस पर आपत्ति जताई थी और कहा था कि वह जिन देशों से मुफ्त में मिलने वाले जेनेटिक मटैरियल को फार्मा कंपनियों को उपलब्ध कराती है, उन्हीं देशों को ये कंपनिया बड़े मुनाफे के साथ वैक्सीन बेचती हैं।
तो क्या उसके बाद ये मामला सुलझ गया है? सच पूछिए तो नहीं, हालांकि सार्स-कोवी-2 के सीक्वेंस को आनलाइन डाटाबेस पर पब्लिक के लिए और प्राइवेट तौर पर शेयर किया गया, लेकिन हर बार माहामारी के दौरान यह मुद्दा सतह पर आ जाता है, खासकर पश्चिमी अफ्रीका में इबोला वायरस का हमला इस मामले में सबसे खौफनाक था।
पश्चिमी देशों और फार्मा कंपनियां पर लंबे समय से आरोप लगते रहे हैं कि वे विकासशील देशों की अनुमति लिए बगैर उनके रोगजनकों के नमूनों और डाटा का इस्तेमाल कर रही हैं ।
डब्ल्यूएचओ इस विवाद को सुलझाने के लिए अब एक नया प्रस्ताव लेकर आया है। हालांकि इसमें 13 साल की देरी हो चुकी है और इसके संकेत हैं कि एक तूफान जन्म ले रहा है। इसमें सबसे अहम सवाल यह है कि इसे सुलझाने में जैविक विविधता सम्मेलन (सीबीडी) का किस तरह से इस्तेमाल किया जाता है।
 

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