कोविड-19: क्या बीसीजी का टीका इस महामारी का तोड़ है

जहां टीबी से बचाव के लिए बच्चों का नियमित रूप से टीकाकरण नहीं किया गया, वहां कोविड-19 के मामले अधिक हैं
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दुनिया भर के शोधकर्ता नॉवेल कोरोनोवायरस बीमारी (कोविड-19) को ठीक करने के लिए बेसिलस कालमेट-गुएरिन (बीसीजी) वैक्सीन का परीक्षण कर रहे हैं। यह वैक्सीन बैक्टीरियम माइकोबैक्टीरियम बोविस की एक जीवित व कम शक्तिशाली किस्म से, जो तपेदिक (टीबी) के पैथोजन मायकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्योसिस से संबंधित है, तैयार किया गया है।

वर्ष 1921 में फ्रांस में तैयार बीसीजी, टीबी को नियंत्रित करने में सिर्फ 60 फीसद कारगर वैक्सीन है। हालांकि, महामारी विज्ञान के आंकड़ों से पता चला है कि यह नॉवेल कोरोनावायरस (सार्स-कोरोनावायरस-2) के खिलाफ असरदार हो सकता है।

आंकड़ों में पाया गया कि टीबी के खिलाफ बच्चों का नियमित रूप से टीकाकरण नहीं करने वाले देशों में कोविड-19 के मामले ज्यादा सामने आए हैं। हालांकि अभी विशेषज्ञों द्वारा इन आंकड़ों की समीक्षा की जाना बाकी है।

इन देशों में अमेरिका, नीदरलैंड्स और इटली शामिल हैं। ईरान जैसे देशों ने देरी से 1984 के अंत में टीकारण शुरू कर दिया था, वहां मृत्यु दर ऊंची थी। इससे यह संकेत मिलता है कि बीसीजी ने वैक्सीन लगवाने वाली बुजुर्ग आबादी की रक्षा की।

इस बात के सीधे प्रमाण नहीं हैं कि यह बैक्टीरियल (जीवाणु) रोग के खिलाफ लगाई जाने वाली वैक्सीन एक वायरल संक्रमण को रोकने का काम करेगी।

बावजूद इसके, इस बात की संभावना है कि बीसीजी वैक्सीन सामान्य इम्युनिटी (प्रतिरक्षा) प्रतिक्रिया को सक्रिय करती है। इससे संक्रमण पर तेजी से प्रतिक्रिया होती है जो बीमारी की गंभीरता को कम कर सकता है और मरीज तेजी से ठीक हो सकता है।

हाल ही में पाया गया है कि वैक्सीन इम्युनिटी की हमारी समझ को गलत साबित करती है। मोटे तौर पर, जब किसी व्यक्ति पर माइक्रोब (सूक्ष्म जीव) द्वारा हमला किया जाता है, तो जन्मजात इम्युनिटी प्रणाली सक्रिय हो जाती है।

मोनोसाइट्स- श्वेत रक्त कोशिकाओं की एक किस्म- संक्रमित टिश्यू में दाखिल होते हैं, मैक्रोफेज में परिवर्तित हो जाते हैं और प्रतिरक्षा की अग्रिम पंक्ति तैयार करते हैं।

दूसरी ओर, वैक्सीन इंसानी शरीर में अर्जित इम्युनिटी प्रणाली को विकसित करने की दिशा में ले जाते हैं। यह धीरे-धीरे काम करता है और विशेष रूप से कुछ खास हमलावरों पर ध्यान केंद्रित रखता है।

लेकिन नीदरलैंड में रेडबॉउड यूनिवर्सिटी के एक शोधकर्ता मिहाई नेतिया ने दिखाया है कि जन्मजात इम्युनिटी प्रणाली में एक यादादाश्त भी होती है। इसे ‘प्रशिक्षित इम्युनिटी’ के रूप में जाना जाता है।

किसी संक्रमण के बाद इम्यून कोशिका में आनुवांशिक तत्व कई महीनों तक हाई अलर्ट की स्थिति में रहते हैं, और यह नए संक्रमण से बचाते हैं।

सेल होस्ट एंड माइक्रोब जर्नल में जनवरी 2018 में छपे एक अध्ययन के अनुसार, नेतिया ने बताया कि बीसीजी टीकाकरण ने यलो फीवर वायरस के कमजोर रूप के संक्रमण से बचाव किया।

यह विचार रोजाना संक्रमित लोगों के संपर्क में आने वाले डॉक्टरों व स्वास्थ्य कर्मियों के लिए टीकारण का इस्तेमाल किए जाने में मददगार हो सकता है।

यूएस में यूनिवर्सिटी ऑफ मैसाचुसेट्स मेडिकल स्कूल के माइक्रोबायोलॉजी एंड फिजियोलॉजिकल सिस्टम्स विभाग में प्रोफेसर सैम बेहर कहते हैं कि, “यह एक दिलचस्प परिकल्पना है, हालांकि इस बात को याद रखना जरूरी है कि यह एक परिकल्पना ही है।”

उनके अनुसार, इस विचार में कुछ बातें साफ नहीं हैं, हालांकि क्या घटित हो रहा है इसकी एक बुनियादी समझ बनती है। उदाहरण के लिए, अब यह मालूम है कि बीसीजी द्वारा प्रेरित क्रिया कितने समय तक चलती है। इसके कई महीनों या चंद सालों से ज्यादा चलने की संभावना नहीं है।

दूसरे शब्दों में, शिशुओं को वैक्सीन लगाए जाने पर जरूरी नहीं कि बालिग होने पर भी प्रतिरक्षा मिलेगी। बीसीजी पुनःटीकाकरण को लेकर हमेशा सुखद स्थिति नहीं रहती है और वैक्सीन को लेकर बड़ी उम्र के लोगों का रवैया आमतौर पर अच्छा नहीं होता।

इस बारे में भी बहुत कम जानकारी है कि क्या जन्मजात इम्युनिटी सार्स-कोरोनावायरस-2 के खिलाफ प्रभावी है। बेहर कहते हैं कि, लंबी इंक्यूबेशन अवधि से पता चलता है कि जन्मजात इम्युनिटी प्रणाली इसका पता नहीं लगा पाती है।

बीसीजी वैक्सीन रहस्यमय तरीके से काम करती है और सूजन और ऑटोइम्यून बीमारियों के मरीजों में भी असरदार पाई गई है। हाल के अध्ययनों में पाया गया है कि यह डायबिटीज टाइप-1 वाले लोगों में ब्लड शुगर को नियंत्रित करने में असदार है और अगले पांच वर्षों तक बेहतर शुगर स्तर कायम रखती है।

अंदाजन इसके काम करने का तरीका यह हो सकता है कि वैक्सीन किसी तत्व को बढ़ाती है जो स्वस्थ टिश्यू पर इम्यून सेल के हमलों को बेअसर करने में मदद करती है, जो कि टाइप-1 डायबिटीज जैसी ऑटोइम्यून बीमारियों वाले लोगों में होता है।

यह मूत्राशय कैंसर चिकित्सा और जन्म के समय कम वजन वाले बच्चों के जिंदा बचे रहने में भी असरदार पाई गई है। कोविड-19 महामारी से लड़ने में, शोधकर्ता कई तरह की मौजूदा दवाओं को लेकर भी प्रयोग कर रहे हैं।

वर्ष 2012 में मिडिल ईस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (मार्स) महामारी के बाद, शोधकर्ताओं ने वायरस के खिलाफ कई केमिकल्स की गतिविधि का अध्ययन किया। वर्ष 1934 में विकसित किया गया क्लोरोक्विन मलेरिया का इलाज करने वाला एक ऐसा केमिकल है, जिसने अच्छी गतिविधि दिखाई।

हालांकि, अभी बहुत साफ नहीं है कि यह दवा बीसीजी वैक्सीन की तरह वायरस पर कैसे असर करती है। एक सिद्धांत है कि क्लोरोक्वीन कोशिका की सतह पर अम्लता को बदल देती है, और वायरस को संक्रमण फैलाने से रोकती है।

एक और सिद्धांत यह है कि क्लोरोक्वीन इम्यून प्रतिक्रिया को सक्रिय करने में मदद करती है। शोधकर्ताओं ने हाल ही में एक एंटीबैक्टीरियल दवा (एज़िथ्रोमाइसिन) के साथ मिलाकर इसका परीक्षण किया और पाया गया कि यह दोनों मिलकर, अकेले क्लोरोक्वीन की तुलना में बेहतर काम करते हैं।

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