कोविड-19 महामारी की वजह से बच्चों पर काफी बुरा असर पड़ा है। बेशक उनमें संक्रमण की दर कम रही, लेकिन वायरस की वजह से बच्चों को खासी दिक्कत झेलनी पड़ी। डाउन टू अर्थ, पत्रिका ने जनवरी 2022 के अंक में बच्चों पर कोविड-19 के असर पर एक खास रपट प्रकाशित की, जिसे तीन कड़ियों में वेबसाइट में प्रकाशित किया जा रहा है। पहली कड़ी पढ़ने के लिए क्लिक करें। आज पढ़ें दूसरी कड़ी -
ऐसी हालत में वैश्विक शोधों के जरिए ही कुछ समझ बनाई जा सकती है। 10 अगस्त, 2021 को रिसर्च स्क्वायर पर पोस्ट किए गए एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया कि कोविड-19 पॉजिटिव 14 प्रतिशत युवाओं में इलाज होने के तीन महीने बाद भी कई लक्षण दिखाई देते हैं। यह अध्ययन 11 से 17 साल के बच्चों पर किया गया।
डब्ल्यूएचओ के अनुसार उम्र का बढ़ना, मोटापा और पहले से मौजूद स्थितियां जैसे कि टाइप 2 मधुमेह, अस्थमा, हृदय और फेफड़े संबंधी रोग, तंत्रिका संबंधी बीमारियां, न्यूरोडेवलपमेंटल और न्यूरोमस्कुलर स्थितियां जोखिम कारक के रूप में उभरी हैं।
जर्नल ऑफ ट्रॉपिकल पीडियाट्रिक्स में 29 जनवरी 2021 को प्रकाशित एक रिपोर्ट में दिल्ली के एम्स, वीएमएमसी और सफदरजंग अस्पताल के शोधकर्ताओं ने 0-12 वर्ष की आयु के बीच 41 कोविड पॉजिटिव बच्चों का अध्ययन किया। इन्हें 1 अप्रैल 2020 से 31 जुलाई 2020 के बीच अस्पताल में भर्ती कराया गया था।
अध्ययन में पता चला कि उनमें बुखार, तंत्रिका संबंधी समस्याएं, श्वसन तंत्र के निचले हिस्से में संक्रमण, दाने और तीव्र आंत्रशोथ थे। उनमें से अधिकांश ने इन्फ्लेमेटरी मार्कर और यकृत एंजाइमों में गड़बड़ी की शिकायत की। इसी अध्ययन में कहा गया कि एमआईएस-सी के 90 प्रतिशत मामलों में ऑक्सीजन और 65 प्रतिशत मामलों में मैकेनिकल वेंटिलेशन चाहिए।
एसआरसीसी चिल्ड्रेन हॉस्पिटल, मुंबई के एक वरिष्ठ सलाहकार शिशु रोग विशेषज्ञ सुप्रतिम सेन प्रतिकूल स्वास्थ्य के दीर्घकालिक प्रभावों को लेकर बताते हैं कि अधिकांश बच्चों में आमतौर पर 6-12 महीनों तक कोई दीर्घकालिक लक्षण नहीं आता है, लेकिन एमआईएस-सी से ग्रस्त बच्चों के एक छोटे प्रतिशत में कोरोनरी धमनियों का लगातार फैलाव होता है।
कोरोनरी धमनियां वह रक्त वाहिकाएं हैं जो हृदय की मांसपेशियों को रक्त और ऑक्सीजन की आपूर्ति करती हैं। कोरोनरी में इस बदलाव से दीर्घकालिक धमनी रोग, अपर्याप्त रक्त प्रवाह जैसी परवर्ती बीमारियां हो सकती हैं।
ये जटिलताएं इतनी सामान्य हो गईं कि स्वास्थ्य मंत्रालय को 18 जून, 2021 को इलाज के लिए दिशानिर्देश जारी करना पड़ा। बचाव के लिए तैयार रहना काफी अहम है क्योंकि डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों से पता चलता है कि कोरोनावायरस से शिशुओं की मौत उच्च आय वाले देशों की तुलना में निम्न से मध्यम आय वाले देशों में अधिक है, क्योंकि इन देशों में स्वास्थ्य सुविधाएं कम हैं।
डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों में 25 वर्ष से कम आयु के लोगों में मृत्यु दर सिर्फ 0.5 प्रतिशत है, जबकि जून में जारी किये स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, देश में कोविड के कारण होने वाली मौतों में 20 साल से कम उम्र के लोगों की संख्या लगभग 2 प्रतिशत है। विशेषज्ञों की तरफ से कोविड महामारी का बच्चों के स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक प्रभाव को लेकर भी प्रयास करने की गुहार लगाई जा रही है।
अमेरिका की रिसर्च एजेंसी नेशनल इंस्टीट्यूट्स ऑफ हेल्थ ने 15 नवम्बर 2021 को कोविड पीड़ित 1000 बच्चों व युवा नौजवानों की अगले तीन साल तक निगरानी की घोषणा की है। उम्मीद है कि इस अध्ययन से कोविड पीड़ित बच्चों की संपूर्ण जीवन गुणवत्ता के बारे में नया नजरिया मिलेगा।
बहरहाल, विषाणुओं के असर और विभिन्न् प्रतिरक्षा प्रणाली के प्रभाव को लेकर भी वैज्ञानिक समझ तैयार कर रहे हैं। शोधकर्ताओं ने इस सवाल का उत्तर खोजना शुरु किया है कि बच्चों की प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया व्यस्कों के मुकाबले बेहतर क्यों है?
शोधकर्ताओं ने 7 अक्टूबर, 2020 को साइंस ट्रांसलेशनल मेडिसिन जर्नल में बताया कि किसी विषाणु से लड़ने के लिए वयस्कों में जहां अनुकूली प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया (अडॉप्टिव इम्यून) काम करती है वहीं, बच्चे विषाणुओं से लड़ने के लिए जन्मजात प्रतिरक्षा प्रणाली (इननेट इम्यून) का उपयोग करते हैं।
हालांकि, वयस्कों की प्रतिरक्षा की तुलना में बच्चों की जन्मजात प्रतिरक्षा विषाणुओं को तेज गति से नष्ट करती है। रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि युवा रोगियों ने वृद्ध लोगों के समान एंटीबॉडी का उत्पादन किया और उनके पास अनुकूली प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया की तुलना में विशेष एंटीबॉडी और संबंधित कोशिकाओं का स्तर भी कम था।
ध्यान देने वाली बात यह है कि बच्चों की प्रतिरक्षा प्रणाली भी 2 साल से अधिक समय से इस वायरस के संपर्क में है। ऐसी आशंकाएं हैं कि वायरस इस तरह से विकसित हो सकते हैं जो बच्चों की जन्मजात सुरक्षा को विफल कर दें।
उदाहरण के लिए, अल्फा संस्करण ने पहले से ही ऐसी तरकीबें विकसित कर ली हैं जो इसे शरीर की सहज प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को दबाने की अनुमति देती हैं। 7 जून, 2021 को बायोआर्काइव्स में एक प्रीप्रिंट से पता चलता है कि अल्फा-संक्रमित कोशिकाएं एक ऐसा प्रोटीन बनाती हैं जो मानव कोशिकाओं की विषाणु से लड़ने की क्षमता को कम कर देता है।
वहीं, सामाजिक दूरी, बंदी व स्कूल बंदी ने बच्चों के स्वास्थ्य पर मिला-जुला असर डाला है। अप्रैल, 2020 में दी लेंसेट जर्नल में प्रकाशित एक त्वरित रिव्यू में अनुमान लगाया गया कि अकेले स्कूल बंदी से कोविड से मृत्यु दर में 2 से 4 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है।
इसके उलट गुड़गांव के पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन के हेल्थ प्रमोशन डिविजन की डायरेक्टर मोनिका अरोरा कहती हैं, “इसका ये भी मतलब है कि बच्चे स्कूल में होने वाले खेलकूद, क्लब, भौतिक गतिविधियों व कक्षा की गतिविधियों में हिस्सा नहीं ले पायेंगे और स्कूल में मिलने वाला भोजन नहीं ले पायेंगे।इससे बच्चों में बैठने, स्क्रीन टाइम और तनाव बढ़ा है। वे अनियमित और कम पौष्टिक भोजन ले रहे हैं और भौतिक गतिविधियां कम हो गई हैं जिससे उनमें मोटापे का खतरा बढ़ गया है। भारत जैसे देश, जहां बच्चे स्कूल में मिलने वाले मिड डे मील पर निर्भर हैं, वहां स्कूल बंदी का मतलब है कुपोषण में इजाफा।” उन्होंने कहा कि भौतिक गतिविधियां नहीं होने का बच्चों पर दूरगामी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और इसका श्रृंखलाबद्ध असर वयस्क होने तक हो सकता है।
देहरादून की आयुर्वेदिक चिकित्सक शिखा प्रकाश डाउन टू अर्थ से कहती हैं, “कोरोना में न केवल बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य बल्कि शारीरिक विकास के साथ भी समझौता किया गया। उदाहरण के लिए मैंने बच्चों में वाक् शक्ति में विकास में देरी देखी। इसकी वजह ये हो सकती है कि बाहरी दुनिया से उनका कोई संवाद नहीं हुआ हो। इसके अलावा आइसोलेशन के कारण खराब सामाजिक और व्यावहारिक बदलाव की भी सूचना है।”