आवरण कथा: गरीब देशों की मुसीबत बना विकसित देशों का 'राष्ट्रवाद'

कोविड-19 वैक्सीन को लेकर विकसित देशों का रवैया बेहद आपत्तिजनक है। डाउन टू अर्थ की आवरण कथा की अगली कड़ी...
कोविड-19 वैक्सीन पर विकसित देश अपना कब्जा बरकरार रखना चाहते हैं। Photo: flickr
कोविड-19 वैक्सीन पर विकसित देश अपना कब्जा बरकरार रखना चाहते हैं। Photo: flickr
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टीका न मिलने का दर्द

टीके के भेदभाव से जूझते अफ्रीका को कोवैक्स सुविधा और थोड़ी सी राहत पहुंचाने के लिए अफ्रीका संघ लगातार संघर्ष कर रहा है

कोविड-19 से ग्रस्त अफ्रीका में टीके के जहाजी खेप का जिस तरह स्वागत किया गया था, वैसा न तो राज्य के प्रमुखों या लोकप्रिय हस्तियों का कभी नसीब हुआ। कोरोनावायरस के खिलाफ टीकों की पहली किस्त इस वर्ष फरवरी-मार्च-अप्रैल महीने में कुछ चुनिंदा देशों में पहुंची थी।

इन टीकों की कीमती शीशियों को हासिल करने के लिए सरकार के प्रमुख और वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री पहुंचे। यह कोविड-19 के राष्ट्रवाद से पीड़ित देशों के एक अन्य जरूरी महत्व को दर्शाता है।

दरअसल कोविड-19 का राष्ट्रवाद विकसित देशों की एक प्रवृत्ति है, जो कहीं और जरूरतमंद आबादी को वंचित करते हुए सिर्फ अपने देश के नागरिकों के उपचार, उपकरण और टीकों की आपूर्ति को बनाए रखने पर जोर दे रही है।

पहली बार 1 फरवरी 2021 को अमीरात विमान एस्ट्राजेनेका के टीके को लेकर जोहान्सबर्ग के ओआर टैम्बो हवाई अड्डे पर दोपहर 3 बजे तक बारिश के बीच विमान उतरा था। इस पूरे महत्वपूर्ण घटनाक्रम को दक्षिण अफ्रीका ब्रॉडकास्टिंग कॉर्प फिल्मा रहा था।

यह महाद्वीप में आने वाले टीकों की पहली खेप थी और राष्ट्रपति सिरिल रामफोसा और शीर्ष अधिकारी दस लाख खुराक प्राप्त करने के लिए वहां मौजूद थे, जिसे दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने एस्ट्राजेनेका के प्रमुख लाइसेंस प्राप्त निर्माता सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआईआई) से खरीदा था। भारत, एसआईआई एस्ट्राजेनेका टीका का प्रमुख लाइसेंस प्राप्त निर्माता है।

कोरोनावायरस के अत्यधिक मामलों और मृत्यु की घटनाओं के बोझ से दबे अफ्रीका में खासतौर से दक्षिण अफ्रीका के लिए एसआईआई के टीके की पहली खेप काफी अहम थी। इसके चलते फ्रंटलाइन हेल्थकेयर वर्कर्स के साथ हाशिए पर खड़े लोगों का टीकाकरण शुरू होना था। इस टीके की खेप के लिए अफ्रीका द्वारा बहुत अधिक कीमत का भुगतान किया था, अमीर देशों से भी अधिक क्योंकि आपूर्ति सीमित थी। हालांकि राष्ट्रपति रामफोसा के लिए टीके की राहत अल्पकालिक थी क्योंकि देश में तबाही मचाने वाले वायरस के प्रमुख वेरिएंट बी.1.351 के खिलाफ टीका अप्रभावी पाया गया और सरकार ने इसे न लगाने का फैसला लिया। 

टीके की खेप को एक विवादास्पद कदम के तहत अफ्रीकी संघ को बेच दिया गया, जिसे कुछ सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने बुरा माना। दक्षिण अफ्रीकी मेडिकल जर्नल में प्रकाशित एक लेख में कहा गया, “दक्षिण अफ्रीका ने अगले प्रसार से पहले अपने सबसे कमजोर नागरिकों में से कम से कम 50 लाख को बचाने का अवसर गंवा दिया।” तब से रोलआउट बेहद धीमा रहा है।

टीके की आपूर्ति को लेकर पहले से ही खींचतान चल रही है। न्याय और समानता के लिए वैश्विक प्रचारकों के गठबंधन पीपुल्स टीका एलायंस का कहना है कि कुल मिलाकर स्थिति काफी विकट है। कोविड-19 महामारी की घोषणा के लगभग दो साल बाद भी विकासशील देश कोविड के नए मामलों में आए ताजा उछाल से निपटने के लिए न केवल ऑक्सीजन और चिकित्सा आपूर्ति की गंभीर कमी का सामना कर रहे हैं, बल्कि इस घातक बीमारी के खिलाफ टीका की एक भी खुराक देने में असमर्थ हैं।

टीकाकरण के अभियान को लेकर जोर-शोर से आवाज उठाने वाले ऑक्सफैम का कहना है, “इसके विपरीत अमीर देशों ने पिछले महीने में एक व्यक्ति प्रति सेकंड की दर से अपने नागरिकों का टीकाकरण किया है।” विकसित देशों द्वारा टीके हड़पने के रवैये को लेकर डब्ल्यूएचओ के प्रमुख टेड्रोस अधनोम ग्रेबेसियस को चेतावनी देनी पड़ी, “दुनिया एक भयावह नैतिक विफलता के कगार पर है और इस विफलता की कीमत दुनिया के सबसे गरीब देशों में जीवन और आजीविका के साथ चुकाई जाएगी।”

अफ्रीका लंबे समय से स्वास्थ्य में भेदभाव का सामना कर रहा है। 25 साल पहले भी एचआईवी/एड्स महामारी के दौरान यह भेदभाव सामने आया था, जब महत्वपूर्ण दवाएं अफ्रीका को नसीब नहीं हुई थीं। अफ्रीका में लाखों लोगों के मरने के बाद भी इस महामारी का कोई टीका विकसित नहीं हुआ है। विकसित की गईं दवाएं शुरुआत में केवल अमीरों के पास गईं। करीब एक दशक बाद एक भारतीय जेनरिक कंपनी ने लालची बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के एकाधिकार तोड़ा, जिसके बाद अफ्रीका और अन्य जगहों पर लोग जीवन रक्षक दवाओं को हासिल कर सके।

2009 के स्वाइन फ्लू महामारी का इतिहास भी हाल ही का है। हालांकि यह कम गंभीर प्रकृति का है। तब भी, अमीर देशों ने अग्रिम आदेशों के माध्यम से टीकों पर कब्जा कर लिया था, जबकि गरीब देशों को प्रतीक्षा करने के लिए मजबूर किया गया था। जब तक उन्हें आपूर्ति मिली, तब तक महामारी खत्म हो चुकी थी। हालांकि कुछ लोग तर्क देंगे कि टीका इक्विटी को अब दरकिनार नहीं किया जा सकता।

तकनीकी हस्तांतरण नया मंत्र

दक्षिण अफ्रीका में एमआरएनए टीकों के लिए एक तकनीकी हस्तांतरण केंद्र स्थापित किया जा रहा है जो पूरे महाद्वीप में अपनी किस्म का पहला केंद्र होगा। लेकिन क्या दवा कंपनियां इसके लिए राजी होंगी?

प्रेस विज्ञप्तियां कभी-कभार हमें हवा के रुख का अंदाजा दे देती हैं। 24 जून को डब्ल्यूएचओ ने डब्ल्यूटीओ और विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (डब्ल्यूआईपीओ) के साथ नौ दिन पहले हुई त्रिपक्षीय बैठक पर एक प्रेस नोट जारी किया। यह कथित तौर पर “कोविड-19 महामारी से निपटने और सहयोग का नक्शा” बनाने के लिए एक बैठक थी लेकिन परिणाम को देखते हुए यह दवाओं, टीका इक्विटी और इसी तरह की अन्य चीजों तक पहुंच को बढ़ावा देने के लिए वर्षों से आयोजित कई बैठकों से अलग नहीं दिखाई दिया।

“सार्वजनिक स्वास्थ्य, बौद्धिक संपदा और व्यापार के क्षेत्र में वैश्विक चुनौतियों” को संबोधित करने के लिए दो विशिष्ट पहल की घोषणा की गई।

सबसे पहले, ये तीनों एजेंसियां क्षमता-निर्माण कार्यशालाओं में सहयोग करेंगी ताकि महामारी पर अद्यतन जानकारी के प्रवाह को बढ़ाया जा सके और कोविड-19 स्वास्थ्य प्रौद्योगिकियों तक समान पहुंच प्राप्त करने के तरीकों को चिन्हित किया जा सके। इनमें से पहली कार्यशाला सदस्य देशों में नीति निर्माताओं को यह समझने में सक्षम बनाएगी कि चिकित्सा प्रौद्योगिकियों के संबंध में बौद्धिक संपदा (आईपी) जानकारी और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण कैसे काम करते हैं। इन कार्यशालाओं की मनोवृत्ति असमान वैश्विक स्वास्थ्य प्रणाली को दर्शाती है जिसमें विकासशील देशों की सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंताओं को बड़े व्यापारिक राष्ट्रों और ब्लॉकों के वाणिज्यिक हितों के नीचे रखा जाता है। विश्व व्यापार संगठन और डब्ल्यूआईपीओ के लक्ष्यों की समानता पर कोई उंगली नहीं उठा सकता। उन्होंने 1995 में एक सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर करके अपनी पूरकता को मजबूत किया था।

हालांकि डब्ल्यूएचओ बहुत बाद में शामिल हुआ था, लेकिन अब एक दशक से अधिक समय से ये तीनों संगठन समय-समय पर सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की स्पष्ट असमानताओं को दूर करने के लिए कार्यशालाओं और सम्मेलनों का आयोजन कर रहे हैं। 2015 में उन्होंने सार्वजनिक स्वास्थ्य, आईपी, ट्रिप्स और दवाओं तक पहुंच पर एक त्रिपक्षीय संगोष्ठी आयोजित की। इसका उद्देश्य अतीत से सीख लेकर भविष्य को रोशन करना था।

यह स्पष्ट रूप से नहीं हुआ है, जैसा कि संगठनों की दूसरी घोषित पहल से पता चलता है। वे त्रिपक्षीय तकनीकी सहायता प्रदान करने के लिए एक संयुक्त मंच स्थापित करने की योजना बना रहे हैं, “एक वन-स्टॉप शॉप जो पहुंच, आईपी और व्यापार मामलों पर विशेषज्ञता की पूरी श्रृंखला उपलब्ध कराएगी”। इस संयुक्त बयान का मुख्य हिस्सा यह स्पष्ट करता है कि किसी बड़ी सफलता की उम्मीद नहीं की जा सकती है, क्योंकि यह सहायता गरीब देशों को यह बताने के लिए है कि टीकों, दवाओं और प्रौद्योगिकियों तक पहुंचने के लिए “उपलब्ध विकल्पों का पूर्ण उपयोग” कैसे किया जाए। संक्षेप में इससे कोई फायदा नहीं होना है, ठीक वैसे ही जैसे ट्रिप्स के निलंबन के माध्यम से आईपीआर की छूट।

तकनीकी हस्तांतरण हब क्या है? दरअसल यह एक प्रशिक्षण केंद्र है, जहां रोग विषयक (क्लीनिकल) विकास प्रथाओं के साथ औद्योगिक पैमाने पर उत्पादन के लिए प्रौद्योगिकी प्रदान की जाती है। निम्न और मध्यम आय वाले देशों के इच्छुक निर्माताओं को प्रौद्योगिकी का उपयोग करने के लिए प्रशिक्षण, उत्पादन जानकारी और आवश्यक लाइसेंस प्रदान किए जाएंगे। यह उन क्षेत्रों में टीका उत्पादन में विविधता लाने का पहला ठोस अंतरराष्ट्रीय प्रयास है, जिन्हें इसकी सख्त जरूरत है। इस विचार को फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों का समर्थन प्राप्त है, जो कहते हैं कि फ्रांस अफ्रीका को कोविड-19 टीकों और उपचारों की अपनी स्थानीय विनिर्माण क्षमता को बढ़ाने में मदद करने के लिए प्रतिबद्ध है। मैक्रों ने ऐसी और कई पहल का वादा किया है।

डब्ल्यूएचओ और उसके कोवैक्स समूह में जीएवीआई, टीका एलायंस, एपिडमिक प्रीपेयर्डनेस इनोवेशन (सीईपीआई) एवं यूनिसेफ शामिल हैं। इस टेक ट्रांसफर हब का उद्देश्य प्रत्येक देश को कोविड-19 टीकों की उचित और न्यायसंगत संख्या प्रदान करना है। अगर फाइजर-बायोएनटेक और एमआरएनए टीका के प्रमुख उत्पादक मॉडर्ना जैसी कंपनियां शामिल हो जाएं तो टेक ट्रांसफर हब निश्चय ही अपने लक्ष्य को पूरा कर सकता है। डब्ल्यूएचओ इन फार्मा दिग्गजों के साथ अपनी तकनीक साझा करने के लिए बातचीत कर रहा है और उम्मीद है कि एक साल के समय में टीके का उत्पादन शुरू हो जाएगा। हालांकि इस मामले में संशय की स्थिति है। दक्षिण अफ्रीका इसे एक ऐतिहासिक पहल के रूप में देखता है जो अफ्रीका को आत्मनिर्भरता की राह पर ले जाने के साथ-साथ उसकी छवि भी बदलेगा। डब्ल्यूटीओ में ट्रिप्स से छूट के लिए भारत-दक्षिण अफ्रीका प्रस्ताव कुछ खास असर नहीं दिखा पा रहा है, क्योंकि विकसित देशों के बीच पूर्ण पैमाने पर छूट की अनुमति देने के बजाय समझौते द्वारा अनुमत लचीलेपन पर काम करने के लिए एक मौन समझ प्रतीत होती है। टेक ट्रांसफर हब उनके द्वारा दी जा रही छूट का हिस्सा प्रतीत होता है।

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