विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने दुनिया की एक चौथाई आबादी को प्रभावित करने वाले अकेलेपन को जन स्वास्थ्य के लिए खतरा माना है। यह एक ऐसी स्वास्थ्य समस्या है जो दीर्घकाल में बहुत की बीमारियों की वजह बन सकती है। लेकिन कोई सर्वमान्य माप न होने के कारण इसकी गंभीरता का तुलनात्मक अध्ययन मुश्किल है। भारत जैसे देशों में बुजुर्ग आबादी के अलावा अकेलेपन से जूझ रहे लोगों के राष्ट्रीय आंकड़े मौजूद नहीं है। अध्ययन इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि अकेलापन केवल बुजुर्गों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह दुनियाभर की युवा आबादी को तेजी अपनी जद में ले रहा है। कोविड-19 महामारी ने इसे तेजी से बढ़ाया है। इस समस्या की विकरालता और उसके विभिन्न स्वास्थ्य पहलुओं पर रोशनी डालती रोहिणी कृष्णमूर्ति की रिपोर्ट
अकेलेपन के साथ अरिजीत मंडल का संघर्ष तब शुरू हुआ, जब वह महज 10 साल के थे। वह अक्सर सोचा करते थे कि जब उनके आसपास रहने वाले लोग खुशमिजाज थे, तब भी वह उदासी क्यों महसूस करते थे। वह अपनी तकलीफ को बयान करते हुए बताते हैं, “मुझे पता नहीं था कि मैं अपनी भावनाएं कैसे व्यक्त करूं।” 13 साल की उम्र में मंडल ने अपनी मां का मिसकैरिज (गर्भपात) देखा और अगले बरस मां भी गुजर गईं।
वह बताते हैं, “मां के देहांत के महज तीन महीने के बाद ही मेरे परिवार के लोग पिता की दूसरी शादी कराने में व्यस्त हो गए। यह देखकर परिवार और शादी जैसी संस्था से मेरा भरोसा टूट गया।” वह 2017 से जादवपुर यूनिवर्सिटी के फिल्म स्टडीज विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। अब भी वह अकेलापन महसूस कर रहे हैं। वह आगे बताते हैं, “मैं दलित हूं। मेरे ज्यादातर दोस्त और सहकर्मी ऊंची जाति और उच्च-मध्यवर्ग के हैं। मुझे महसूस होता है कि मैं अकेला हूं।”
भारतीय समाज में इस विषय पर शायद ही बात होती है, मगर “दी ग्लोबल स्टेट ऑफ सोशल कनेक्शंस” शीर्षक से छपे अध्ययन से पता चलता है कि मंडल जिस अकेलेपन को अपने जीवन में महसूस कर रहे हैं, उससे दुनिया की एक चौथाई आबादी जूझ रही है। यह अध्ययन पिछले साल अमेरिका की एक तकनीकी कंपनी मेटा और एनालिटिक्स व सलाहाकार कंपनी गैलप ने किया था।
अध्ययन में पता चला है कि भारत के 30 प्रतिशत प्रतिभागियों ने अकेलापन महसूस करने की बात कही। मनोविज्ञान में अकेलेपन को एक व्यक्ति-निष्ठ अहसास के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसमें लोगों में सामाजिक संबंध की कमी होती है। हालांकि, यह अकेला होने के समान नहीं होता। पुणे के फ्लेम विश्वविद्यालय में मनोरोग की प्रोफेसर अपर्णा शंकर कहती हैं, “अकेलापन व्यक्ति-निष्ठ है, क्योंकि अलग-अलग लोगों का अनुभव अलग-अलग तरह का हो सकता है।”
सामाजिक अलगाव इस अहसास के लिए उत्प्रेरक का काम कर सकता है, जिसे सामाजिक संपर्क की कमी कहा जाता है। मगर, लोग दोस्तों से घिरे हों, तब भी यह अहसास घर कर सकता है।
मसलन, 20 साल की उम्र में शीला (बदला हुआ नाम) जब एक प्रकाशन कंपनी में नौकरी करने के लिए दिल्ली शिफ्ट हुईं तो उन्होंने अकेलापन महसूस करना शुरू किया। यह साल 2013 का वाकया है। शीला बेहद छोटे से कस्बे से आती हैं, लेकिन जब वह बड़े शहर में दाखिल हुईं, तो वहां एक अलग तरह की संस्कृति उन्होंने महसूस की।
इस बारे में वह विस्तार से बताती हैं, “मैंने उसमें (बड़े शहर की संस्कृति) खुद को ढालने की कोशिश की। मैं पार्टियों में जाने लगी। मगर मैं खालीपन महसूस करती थी क्योंकि मेरा भावनात्मक जुड़ाव नहीं था। पीछे मुड़कर देखती हूं तो पाती हूं कि अकेलेपन का दौर लंबा था।” अपर्णा शंकर इस संबंध में बताती हैं कि ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अकेलापन तब आता है, जब एक व्यक्ति संबंध की गुणवत्ता से असंतुष्ट होता है। शीला फिलहाल निराशा और चिंता से निजात पाने के लिए थेरेपी ले रही हैं।
अकेलापन इतना ज्यादा है कि पिछले साल नवम्बर में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने इसे प्राथमिक जन स्वास्थ्य समस्या के तौर पर चिन्हित किया और इसके समाधान के लिए सामाजिक जुड़ाव से संबंधित एक आयोग की घोषणा की। इस डब्ल्यूएचओ के आयोग में कुल 11 सदस्य हैं, जिन्हें सामाजिक जुड़ाव के वैश्विक एजेंडे को परिभाषित करने, जागरुकता फैलाने और साक्ष्य-आधारित समाधानों के लिए सहयोग करने का जिम्मा सौंपा गया है (देखें, अकेलेपन के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव हैं,)।
डब्ल्यूएचओ का यह कदम स्वागत योग्य है, लेकिन डाउन टू अर्थ के साथ बातचीत में विशेषज्ञों ने आगाह किया कि प्रभावी सुझाव देने के लिए पहले आयोग को सूचनाओं की असमान उपलब्धता की समस्या का समाधान करने की जरूरत है। नए लोगों के लिए अकेलेपन को मापने के तरीके में विसंगतियां हैं। करेंट साइकोलॉजी में जुलाई 2021 में प्रकाशित एक अध्ययन कहता है, “अकेलापन एक व्यक्ति-निष्ठ भावनात्मक अनुभव है, इसलिए खुद से उठाए गए कदम (जैसे सवाल) इसके मूल्यांकन के लिए सबसे उपयुक्त हैं।”
डाउन टू अर्थ ने भारत में दो सर्वे का विश्लेषण किया। एक सर्वे डब्ल्यूएचओ का है, जो साल 2007-2008 में किया गया था और दूसरा सर्वे साल 2017-2018 में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने किया है। विश्लेषण में पता चला कि सर्वे में हिस्सा लेने वालों से सवाल किया गया था– “क्या आपने पिछले दिन ज्यादा वक्त तक खुद को अकेला महसूस किया?” और “पिछले एक हफ्ते में कितनी बार आपने खुद को अकेला महसूस किया?” इस तरह के सवाल अकेलेपन को मापने में पर्याप्त मदद नहीं करते। ऑस्ट्रेलिया के सिडनी विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर मेलोडी डिंग का कहना है, “अगर कोई व्यक्ति ऐसे समाज में रहता है, जहां अकेलेपन को शर्मिंदगी का विषय माना जाता है, तो संभव है कि वह न बोल पाए। लेकिन, अगर लोगों से पूछा जाए कि क्या वे सामाजिक जुड़ावों से खुश हैं, तो वे खुलकर बात कर सकते हैं।”
डिंग ने अधिक से अधिक शोध करने पर भी जोर दिया ताकि यह समझा जा सके कि अलग-अलग संस्कृतियों और भाषाओं में अकेलेपन को कैसे देखा जाता है। उदाहरण के लिए, दिल्ली की एक गैर-सरकारी संस्था अनंता सेंटर, सूचना केंद्रित एजेंसी अस्पेन डिजिटल व मेटा द्वारा 2022 में तैयार की गई रिपोर्ट “लोनलीनेस एंड इंडिया” कहती है कि भारत की कई भाषाओं में अकेलेपन का कोई अनुवाद है ही नहीं। रिपोर्ट कहती है कि इस वजह से अकेलेपन की भावना स्पष्ट नहीं हो पाती, जिस कारण उपयुक्त हस्तक्षेप विकसित करने में रुकावट आ सकती है।
अगर भाषा और संस्कृति को ध्यान में न रखा जाए तो संभव है कि लोग एक ही तरह के सवालों का जवाब अलग-अलग दें। डिंग कहते हैं, “यह कुछ ऐसा है जिस पर सही तरीके से अकेलेपन को मापने के लिए विज्ञानियों को बहुत काम करने की जरूरत है।” साल 2023 में पब्लिक हेल्थ रिसर्च एंड प्रैक्टिस नाम के एक जर्नल में छपे एक अध्ययन में डिंग व उनके सहकर्मियों ने डब्ल्यूएचओ से आबादी-स्तरीय सर्वे विकसित करने की अपील की, जिसमें अकेलेपन की मौजूदगी को समझने के लिए वैश्विक स्तर पर अकेलेपन और सामाजिक पृथकीकरण के तुलनात्मक उपायों का इस्तेमाल किया जाता है।
यूसीएलए (यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया लॉस एंजिलिस) लोनलीनेस स्केल, जो दुनियाभर में अकेलेपन को मापने के लिए बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाने वाला एक टूल है, में भी समस्याएं हैं। मसलन, यह अल्पकालिक अकेलेपन और दीर्घकालिक अकेलेपन में अंतर नहीं कर सकता। इसमें लोगों की सांस्कृतिक सच्चाइयों को भी फैक्टर के तौर पर नहीं लिया जाता, जिसके चलते बहुत सारे देशों के लिए यह अनुपयुक्त होता है (देखें, कितने अकेले हैं आप,)।
अकेलापन प्रायः लोगों को कई तरह की बीमारियों की तरफ धकेल देता है। यह हृदय संबंधी बीमारियों का खतरा 30 प्रतिशत तक और टाइप-2 डायबिटीज का खतरा 98 प्रतिशत तक बढ़ा देता है। अकेलेपन को झेल रहा व्यक्ति 14 गुना अधिक अवसाद में हो सकता है और उनमें आत्महत्या के विचार अधिक आ सकते हैं। अकेलापन व्यावहारिक बदलावों को भी बल देता है, जैसे स्मोकिंग व शराब का सेवन।
शंकर कहती हैं कि सामान्य धारणा यह है कि अकेलापन सिर्फ बुजुर्ग आबादी पर असर डालता है लेकिन सच ये है कि हर उम्र के लोग इससे पीड़ित हैं। इसके साथ ही अकेलापन के साथ सामाजिक शर्मिंदगी भी जुड़ी है। इसके परिणामस्वरूप इससे पीड़ित लोग प्राय: डर के अनुभव से गुजरते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर वे दूसरे लोगों से यह साझा करेंगे, तो उन्हें और भी अलग-थलग कर दिया जाएगा।
असमान आंकड़े
ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में साल 2022 में प्रकाशित एक अध्ययन में दुनिया के 113 देशों या प्रदेशों का सर्वे किया गया, जिसमें पता चला कि अधिकतर निम्न व मध्य आय वाले देश अकेलापन से जुड़े आंकड़े नहीं जुटाते हैं। अध्ययन के मुताबिक, अधिकांश आंकड़े यूरोप के हैं। अध्ययन कहता है, “उच्च-आय व निम्न व मध्य-आय वाले देशों के बीच आंकड़ों में असमानता ने हिस्सेदारी के जरूरी मुद्दे को उभारा है।”
इंटरनेशनल जर्नल ऑफ फूड एंड न्यूट्रिशनल साइंसेज में साल 2022 में प्रकाशित एक पेपर कहता है, “भारत जैसे निम्न व मध्य आय देश अलग तरह की सामाजिक व आर्थिक चुनौतियों का सामना करते हैं और ये चुनौतियां अमीर देशों के मुकाबले निम्न व मध्य आय मुल्कों में अकेलेपन को उत्प्रेरित कर सकते हैं।” सामाजिक व आर्थिक चुनौतियों में भीषण गरीबी, असमान कमाई, निम्न शिक्षा, उच्च निर्भरता अनुपात, यातायात की कमी, अनियोजित शहरीकरण, तेज औद्योगीकरण और सामाजिक पूंजी में ह्रास आदि शामिल हैं। अकेलेपन के आंकड़े और शोध में कमी भारत में भी देखी जा सकती है। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में साल 2022 में छपे पेपर से पता चलता है कि देश में केवल बुजुर्गों में अकेलापन का राष्ट्रीय आंकड़ा ही उपलब्ध है, जो पूरी आबादी का महज 10 प्रतिशत है। किशोर, युवा और मध्य-आयु के वयस्कों में अकेलेपन को लेकर बहुत कम जानकारी है। भारत केंद्रित अध्ययनों में से एक 2020 में एजिंग इंटरनेशनल में प्रकाशित हुआ था, जो बताता है कि 18 प्रतिशत बुजुर्गों ने अकेलापन महसूस करने की बात कही। इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज और श्री चित्रा टिरूनल इंस्टीट्यूट फॉर मेडिकल साइंसेस एंड टेक्नोलॉजी ने अपने अध्ययन के लिए सात राज्यों – असम, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, महाराष्ट्र और राजस्थान के 50 वर्ष की उम्र के 6,532 वयस्कों का साक्षात्कार किया। इन लोगों से पूछा गया कि क्या बीते दिन के अधिक वक्त में उन्होंने खुद को अकेला महसूस किया।
एक अन्य शोधपत्र दी इंटरनेशनल जर्नल ऑफ जेरिएट्रिक साइकेट्री में साल 2021 में प्रकाशित हुआ। इसमें अधेड़ और 72,262 उम्रदराज लोगों को शामिल किया गया था। इस पेपर में भारत में साल 2017-2018 में समुदायों में रहने वाले लोगों के सर्वे के आंकड़े का इस्तेमाल किया गया था। अध्ययन में शामिल लोगों से पूछा गया था कि पिछले हफ्ते उन्होंने कितनी बार खुद को अकेला महसूस किया। उनके विश्लेषण में पता चला कि 20.5 प्रतिशत प्रतिभागियों ने मध्यम अकेलापन (हफ्ते में 1-2 दिन) और 13.3 प्रतिशत प्रतिभागियों ने गंभीर अकेलापन (हफ्ते में 3-7 दिन) महसूस किया। कुछ अध्ययनों ने अकेलापन लाने वाले तत्वों का भी परीक्षण किया। शंकर और उनके सहकर्मियों ने बुजुर्ग-वयस्कों में अकेलापन के स्तर में कार्य संबंधित कारकों और खाद्य सुरक्षा की भूमिका का मूल्यांकन किया। इसके लिए उन्होंने साल 2017-2018 के आंकड़े लिए और उनमें से 60 साल से कम उम्र के लोगों को मूल्यांकन से बाहर रखा। इस प्रक्रिया में उन्हें 31,477 बुजुर्ग प्रतिभागी मिले, जिनमें से 9,309 बुजुर्ग नौकरीपेशा थे।
उनका सिद्धांत यह था कि कामकाज की प्रतिकूल स्थितियां मसलन हानिकारक पदार्थों से संपर्क या गंध अकेलेपन के उच्च स्तर से जुड़े हुए थे। भोजन के चुनाव और उसकी उपलब्धता की कमी, काम करने वाले लोगों में भीषण अकेलापन के अहसास से जुड़े थे। उनकी रिपोर्ट के अनुसार, 11 प्रतिशत प्रतिभागियों ने बताया कि वे अधिकांश वक्त या हर वक्त अकेले रहे और 20 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उन्होंने कुछ वक्त तक ऐसे अहसास का अनुभव किया। अध्ययन में यह भी पता चला कि वे लोग जो ऐसी नौकरी करते हैं, जिसमें मानसिक प्रयास की अधिक जरूरत पड़ती है, उनके मुकाबले अरुचिकर कार्य-दशा में काम करने वाले लोगों में अकेलेपन की संभावना ज्यादा होती है। अध्ययन में यह भी सामने आया कि उच्च स्तर पर खाद्य असुरक्षा झेलने वाले प्रतिभागियों में अकेलापन महसूस करने की संभावना दोगुनी होती है। यह शोधपत्र जर्नल आॅफ एप्लाइड गेरोनटोलॉजी में पिछले साल प्रकाशित हुआ था।
इस शोधपत्र में यह भी बताया गया है कि बढ़ते अकेलेपन और शहरीकरण में संबंध है। बिहार के पटना स्थित पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर विद्या यादव कहती हैं, “बढ़ते शहरीकरण का मतलब है ज्यादा निजता और एकांतता। और यह कई तरह की शारीरिक और मनौवैज्ञानिक समस्याओं का कारण है।” मुंबई के इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज में शोधार्थी रहते यादव ने जनवरी से जून 2016 के बीच मुंबई के तीन मुफस्सिल इलाकों दादर, बांद्रा और चेंबुर के 450 घरों का सर्वेक्षण किया था। सर्वेक्षण में उन्होंने पाया कि 7 प्रतिशत लोग अक्सर और 21 प्रतिशत लोग कभी-कभी अकेलापन महसूस करते थे। यादव के शोधपत्र में सरकारी हाउसिंग स्कीम को लेकर भी समस्याएं उजागर हुईं।
1995 में महाराष्ट्र सरकार ने स्लम में रहने वाले लोगों को मुफ्त में घर देने के लिए पुनर्वास योजना शुरू की थी। उन्होंने कहा, “हमने स्लम में बने पुनर्वास बिल्डिंगों में रहने वाले लोगों में ज्यादा अकेलापन पाया। उन्हें क्षैतिज स्लम एरिया से खड़ी बिल्डिंगों में शिफ्ट कर दिया गया था। बिल्डिंगों में बेतरतीब तरीके से घर आवंटित किए गये थे, जिसने उनके सामूहिक पहचान व सामाजिक सहयोग को नुकसान पहुंचाया होगा।”
यूके सरकार की ओर से पिछले साल “टैक्लिंग लोनलीनेस” शीर्षक से प्रकाशित एक नीति दस्तावेज के अनुसार, इस बात के सबूत भी सामने आ रहे हैं कि मौजूदा जीविका पर खर्च का दबाव संभवतः अकेलेपन को और गहन कर सकता है। “दी ग्लोबल स्टेट ऑफ सोशल कनेक्शंस” शीर्षक से छपा एक अध्ययन कहता है कि कोविड-19 महामारी ने इस समस्या को और भी संगीन बना दिया है क्योंकि इसने बहुत सारे लोगों के सामाजिक संपर्क के एक ठेठ पैटर्न को पूरी तरह बदल दिया है। दूसरे अध्ययनों में भी इसी तरह की बातें सामने आई हैं कि कोरोना महामारी के दौरान लागू किए गए लॉकडाउन और सामाजिक दूरी ने अकेलेपन की दर को और भी बढ़ा दिया है।
अकेलेपन का हल ढूंढ रहे देश
कोलकाता के अपोलो मल्टीस्पेशलिटी अस्पताल में सलाहकार न्यूरोसाइकेट्रिस्ट देबांजन बनर्जी कहते हैं कि अकेलेपन को लेकर दुनिया में सीमित समझ का असर यह हुआ है कि इससे निजात पाने के लिए नीति तंत्र या दीर्घकालिक हस्तक्षेप बेहद सीमित हैं। डब्ल्यूएचओ ने जो आयोग बनाया है, उनके कई संभावित परिणामों में एक परिणाम अकेलेपन से निजात पाने के लिए टिकाऊ हस्तक्षेपों की शिनाख्त करना भी है। साल 2023 में प्रकाशित डिंग के शोधपत्र से पता चलता है कि पिछले पांच सालों में अकेलेपन का समाधान ढूढ़ने के लिए हस्तक्षेपों के अध्ययनों में तेजी आई है। शोधपत्र कहता है, “हमें लागू होने वाले हस्तक्षेप अध्ययनों के सभी तत्वों की जरूरत है ताकि हम सिफारिश कर सकें कि कौन सा हस्तक्षेप किसके लिए और किन संदर्भों में काम करेगा।” फिलहाल, सिर्फ दो देशों यूके और जापान में अकेलेपन से लड़ने के लिए अलग मंत्रालय है।
साल 2018 में यूके पहला देश था, जिसने इसके लिए केंद्रीय मंत्रालय स्थापित किया। यूके के पदचिन्हों पर चलते हुए साल 2021 में जापान ने भी अलग से इसके लिए मंत्रालय बनाया। यूके के मंत्रालय के तीन स्पष्ट उद्देश्य हैं– अकेलेपन के इर्द-गिर्द फैली भ्रांतियों को कम करना, ऐसी पहल करना जिससे टिकाऊ बदलाव आए और अकेलेपन को लेकर साक्ष्यों में सुधार। पिछले पांच वर्षों में यूके ने कई योजनाएं शुरू की हैं, जैसे सरकारी अस्पतालों के रिसेप्शनिस्टों को अकेलेपन से जूझ रहे मरीजों की पहचान और उनके साथ बातचीत करने के सही तरीके बताने के लिए प्रशिक्षण दिया जा रहा है और इसके साथ ही लीड्स शहर में हैप्पी कैब का भी संचालन हो रहा है।
हैप्पी कैब के तहत जो लोग भी कहीं जाना और वहां से वापस घर लौटना चाहते हैं, उन्हें घर तक कैब सेवा दी जाती है और रास्ते में कैब ड्राइवर इन लोगों से बातचीत करते हैं। इस सेवा में शामिल सभी ड्राइवरों को खुशहाली का प्रशिक्षण दिया गया है ताकि वे सकारात्मक व खुशहाल माहौल बना सकें। साझा यात्राओं को भी बढ़ावा दिया जाता है, ताकि यात्रियों का अपने इलाके के नए लोगों के साथ मेलजोल बढ़े और वे सामाजिक बन सकें। रॉयल कॉलेज ऑफ जनरल प्रैक्टिशनर्स के मुताबिक, यूके में हर चार में से तीन जनरल फिजिशियन ने कहा कि उनके पास रोजाना एक से पांच लोग आते हैं क्योंकि वे अकेले हैं।
अकेलेपन की रोकथाम के लिए पिछले साल मई में जापान ने एक कानून पास किया। साल 2022 में साइकेट्री रिसर्च नाम से छपे एक अध्ययन के अनुसार, जापान की 41.1 प्रतिशत आबादी अकेली है। कानून में अकेलेपन के खिलाफ उठाए जाने वाले कदमों का प्रचार करने और नीति बनाने की बात कही गई है, जो अकेलेपन को खत्म करने के लिए दिशानिर्देश के रूप में काम करेंगे। जापान ने स्थानीय सरकारों के लिए परिषदें बनाना भी अनिवार्य किया है, जिनमें वे समूह शामिल होंगे, जो सामाजिक तौर पर अकेलेपन का सामना कर रहे लोगों को मदद पहुंचाते हैं। डेनमार्क व अमेरिका की सरकारों ने अकेलापन, सामाजिक एकांत और सामाजिक संपर्क के समाधान के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम शुरू किया है। अमेरिकी सरकार की तरफ से पिछले साल मई में जारी एक रिपोर्ट कहती है कि महामारी से पहले भी देश के वयस्कों की लगभग आधी आबादी औसत स्तर के अकेलेपन से जूझ रही थी।
राष्ट्रीय नीति में जिक्र
अन्य देशों की तरह भारत में भी अकेलेपन को लेकर नीतियां नहीं हैं। साल 2015-2016 में केंद्रीय स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से जारी नेशनल मेंटल हेल्थ सर्वे में अकेलेपन का जिक्र तक नहीं है। भारत में फिलहाल बुजुर्ग वयस्कों को लेकर दो राष्ट्रीय नीतियां हैं। साल 1999 में बुजुर्गों को लेकर आई राष्ट्रीय नीति के पूरे दस्तावेज में अकेलेपन का जिक्र सिर्फ एक बार हुआ है। लेकिन, साल 2023 के अपने अध्ययन में शंकर बताती हैं कि दस्तावेज में अकेलेपन का जिक्र स्वयंसेवकों के संदर्भ में आया है, जिन्हें घरों में कैद बुजुर्गों को मदद करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
इसी तरह, साल 2011 में आई वरिष्ठ नागरिकों के लिए राष्ट्रीय नीति में भी अकेलेपन का जिक्र एक बार आया है और इसमें लिखा गया है कि बुजुर्ग पुरुषों के मुकाबले बुजुर्ग महिलाओं में अकेलापन अधिक होता है। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ फूड एंड न्यूट्रिशनल साइंसेज में साल 2022 में प्रकाशित हुए एक पेपर में कहा गया है कि भारत में दीर्घकालीन अध्ययन की जरूरत है, जिसमें जोखिम तत्वों व स्वास्थ्य प्रभावों के लिए प्रतिभागियों पर निगरानी रखी जाती है। यह निगरानी दशकों तक भी चल सकती है। इस तरह के शोध का इस्तेमाल प्रभावी हस्तक्षेप विकसित करने या लागू करने में किया जा सकता है।
डब्ल्यूएचओ की ओर से गठित आयोग संभवतः 2025 के मध्य तक अपनी पहली रिपोर्ट प्रकाशित करेगा। उम्मीद है कि डब्ल्यूएचओ अकेलेपन को लेकर जाहिर की गई चिंताओं को दूर करने की कोशिश करेगा। बनर्जी कहते हैं, “डब्ल्यूएचओ की यह रिपोर्ट चिकित्सकों, संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, नीति निर्माताओं समेत सभी साझेदारों के लिए काफी अहम हो सकती है।”