बिहार के गांवों में कोरोना का कहर: क्या बंद स्वास्थ्य केंद्रों को खोलने से सुधरेंगे हालात?

जब हर जगह खोले जा रहे थे, बिहार में बंद कर दिये गए थे 1451 सरकारी अस्पताल
बिहार के एचएससी मोरसंडा- मधेपुरा जिले के मोरसंडा का यह उप स्वास्थ्य केंद्र लंबे समय से बंद पड़ा है। तसवीर मार्च, 2021 की है। फोटो: पुष्य मित्र
बिहार के एचएससी मोरसंडा- मधेपुरा जिले के मोरसंडा का यह उप स्वास्थ्य केंद्र लंबे समय से बंद पड़ा है। तसवीर मार्च, 2021 की है। फोटो: पुष्य मित्र
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कुछ माह पहले बिहार में 1451 ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्र बंद कर दिये गये थे, अब उन्हें खोला जा रहा है। मंगलवार, 18 मई को खुद राज्य के अपर मुख्य सचिव प्रत्यय अमृत ने यह घोषणा की है। उन्होंने कहा कि जब राज्य में कोरोना के मामले बढ़ने लगे तो इन 1451 अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को बंद कर इनके चिकित्सकों और अन्य स्वास्थ्य कर्मियों को डेडिकेटेड कोविड हेल्थ सेंटरों में ड्यूटी के लिए तैनात कर दिया गया था। अब उन्हें वापस भेजकर इन केंद्रों को फिर से खुलवाया जा रहा है। मगर उनका यह बयान स्वास्थ्य सेवाओं के जानकार एवं विशेषज्ञों को पच नहीं रहा। इस फैसले पर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं।

अपर मुख्य सचिव ने मीडिया को संबोधित करते हुए जानकारी दी थी कि इन 1451 अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को 17 अप्रैल, 2021 को बंद कर दिया गया था। इस वजह से इन केंद्रों में ओपीडी समेत अन्य सेवाएं बंद थीं। ऐसी जानकारी है कि इन केंद्रों में 3000 आयुष चिकित्सक पदस्थापित थे और यहां का प्रभार एमबीबीएस डॉक्टरों के पास था।

अपर मुख्य सचिव और स्वास्थ्य विभाग के प्रमुख प्रत्यय अमृत की इस घोषणा पर पहला सवाल तो यह उठ रहा है कि कोरोना काल में जब जगह-जगह अस्थायी किस्म के अस्पताल और कोविड सेंटर खोले जा रहे थे, सरकार ने इन्हें बंद करने का फैसला क्यों लिया। लोक स्वास्थ्य के मुद्दे पर लगातार सक्रिय रहने वाले मुजफ्फरपुर के चिकित्सक डॉ. निशिंद्र किंजल्क कहते हैं कि अगर सरकार के पास चिकित्सकों का अभाव था तो वे इन अस्पतालों को कुछ चिकित्सकों की प्रतिनियुक्ति कोविड सेंटरों में कर लेते। इन अस्पतालों को न्यूनतम स्वास्थ्य कर्मियों के सहारे चलने देते। आखिरकार ग्रामीण इलाकों में भी तो कोरोना फैल रहा है। यहां भी तो मरीजों को इलाज की जरूरत थी। इसके अलावा गैर कोविड मरीजों, खास तौर पर गर्भवती महिलाओं के लिए तो इन अस्पतालों की सख्त जरूरत थी। ऐसे में इसे बंद करने का फैसला तो समझ से परे है।

ग्रामीण आबादी की जान के साथ खिलवाड़

ह्यूमन राइट लॉ नेटवर्क के पटना के प्रमुख दीपक सिंह भी निशिंद्र किंजल्क की बातों से इत्तेफाक रखते हैं और सरकार के इस फैसले को जीवन के अधिकार का उल्लंघन बताते हैं। वे कहते हैं कि एक तरह से इस फैसले से गांव की बड़ी आबादी के जीवन को संकट में डाल दिया गया। राज्य में पहले से स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति बुरी है, कोरोना की वजह से संकट भी बढ़ा है। ऐसे में अस्पताल खोलने और डॉक्टरों की बहाली करने के बदले अस्पतालों को बंद कर गांवों से डॉक्टरों को बाहर भेज देना सही फैसला नहीं कहा जा सकता।

सवाल यह भी है कि बिहार में चिकित्सकों की इतनी कमी क्यों है कि आपदा की स्थिति में आकस्मिक व्यवस्था करने के लिए बड़ी संख्या में अस्पतालों पर ताला लगाने की नौबत आ जाती है। दरअसल पिछले तीन वर्षों से यह तथ्य बार-बार सामने आ रहा है कि राज्य में चिकित्सकों और स्वास्थ्य कर्मियों का घोर संकट है। 2019 में चमकी बुखार के भीषण प्रकोप के बीच बिहार सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया था कि राज्य में चिकित्सकों के आधे और नर्सों के तीन चौथाई पद खाली हैं।

2020 में कोरोना की पहली लहर के बीच स्वास्थ्य विभाग ने मई महीने में पटना उच्च न्यायालय को जानकारी दी थी कि राज्य के सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकों के कुल 11645 पद स्वीकृत हैं, जिनमें इस वक्त सिर्फ 2877 चिकित्सक कार्यरत हैं। इस साल भी अप्रैल महीने में सरकार ने पटना उच्च न्यायालय को बताया कि इन सरकारी अस्पतालों चिकित्सकों के 7355 पद खाली हैं। इन आंकड़ों से जाहिर है कि पिछले तीन वर्षों में स्वास्थ्य विभाग ने खाली पड़े इन पदों को भरने की कोई गंभीर कोशिश नहीं की।

इस वर्ष कोरोना संकट में जब राज्य के स्वास्थ्य विभाग की लचर स्थिति फिर से जाहिर होने लगी तो सरकार ने 1000 चिकित्सक की अस्थायी भर्ती के लिए वॉक इन इंटरव्यू का आयोजन किया गया। इन्हें भी एक महीने से तीन महीने की अवधि तक के लिए ही रखे जाने की घोषणा की गयी। जाहिर है इन प्रयासों से भी स्वास्थ्य कर्मियों का संकट खत्म नहीं होना है।

सरकार की इस घोषणा पर एक सवाल यह भी है कि ये अस्पताल जिस वक्त बंद किये गये, तब उसकी सूचना नहीं दी गयी। अब इसकी सूचना दी जा रही है। बिहार के ग्रामीण महिलाओं के साथ काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता शाहीना परवीन कहती हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों के ज्यादातर अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पहले से बंद जैसे ही हैं। वहां न के बराबर इलाज होता है। ऐसे में इन्हें कब बंद किया गया और अब कैसे खोला जा रहा है, यह जानकारी समझ से परे हैं। कम से कम मीडिया में तो अप्रैल में ऐसी कोई खबर नहीं आयी कि इन्हें बंद किया जा रहा है।

दरअसल राज्य के शहरों में कोरोना अब उतार पर है। कोविड डेडिकेटेड अस्पतालों में भीड़ घटने लगी है। कोविड केयर सेंटर तो पहले से ही खाली होने लगे हैं। ऐसे में आयुष चिकित्सकों और अन्य कर्मियों को फिर से वापस अपने मूल अस्पताल में भेजा जा रहा है। जिलों के सिविल सर्जनों को जल्द से जल्द इन अस्पतालों को चालू करने के निर्देश दिये गये हैं। एक मकसद गांव में फैल रहे कोरोना को रोकना और टीकाकरण की गति तेज करना भी है। खबर है कि पहले दिन ऐसे एक चौथाई अस्पतालों को खोलने में राज्य सरकार सफल रही है।

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