दुनिया भर में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स, स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर समस्या बनती जा रही है। इसके विषय में हाल ही में किए एक नए शोध से पता चला है कि यह केवल बढ़ते एंटीबायोटिक दवाओं के अनावश्यक उपयोग के कारण ही नहीं हो रहा है, इसके लिए बढ़ता प्रदूषण भी जिम्मेवार है। यह शोध यूनिवर्सिटी ऑफ जॉर्जिया के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है, जोकि जर्नल माइक्रोबियल बायोटेक्नोलॉजी में प्रकाशित हुआ है।
वैज्ञानिकों ने प्रदूषण और एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स के सम्बन्ध को समझने के लिए जीनोमिक एनालेसिस की मदद ली है। जिससे पता चला है कि भारी धातु के प्रदूषण और एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स के बीच एक मजबूत सम्बन्ध है। वैज्ञानिकों के अनुसार जिस मिटटी में भारी धातुओं की अधिकता थी उसमें बड़ी मात्रा में वो बैक्टीरिया मौजूद थे जिनके जीन में एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स के गुण मौजूद थे।
शोधकर्ताओं के अनुसार इस मिटटी में एसिडोबैक्टीरियोसाय, ब्रैडिरिज़ोबियम और स्ट्रेप्टोमी जैसे बैक्टीरिया मौजूद थे। इन बैक्टीरिया में एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी जीन होते हैं जिन्हें एआरजी के रूप में जाना जाता है। जिसकी वजह से इनपर वैनकोमाइसिन, बेसिट्रेसिन और पोलीमैक्सिन जैसे एंटीबायोटिक का असर नहीं होता है। इन तीनों दवाओं का उपयोग मनुष्यों में संक्रमण के इलाज के लिए किया जाता है।
इस शोध से जुड़े शोधकर्ता जेसी सी थॉमस के अनुसार इन बैक्टीरिया में जो एआरजी जीन होते हैं, वो इन्हें मल्टीड्रग रेसिस्टेन्स बनाने के साथ-साथ इन भारी धातुओं से भी बचाते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार जब ये एआरजी मिट्टी में मौजूद थे, तब उन सूक्ष्मजीवों में आर्सेनिक, तांबा, कैडमियम और जस्ता सहित कई धातुओं के लिए, धातु प्रतिरोधी जीन (एमआरजी) भी मौजूद थे।
थॉमस के अनुसार वातावरण में जैसे-जैसे एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग बढ़ रहा है यह सूक्ष्मजीव उतना ज्यादा इन दवावों के प्रति अपनी प्रतिरोधी क्षमता को विकसित कर रहे हैं। लेकिन इन बैक्टीरिया में मौजूद जीन केवल एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति ही रेसिस्टेंट नहीं होते इसके साथ ही यह कई अन्य यौगिकों के प्रति भी प्रतिरोध विकसित करते हैं जो सेल्स को नुकसान पहुंचा सकते हैं। जिसमें यह हैवी मेटल्स भी शामिल हैं।
पब्लिक हेल्थ कॉलेज में प्रोफेसर ट्रेविस ग्लेन के अनुसार चूंकि एंटीबायोटिक दवाओं के विपरीत, भारी धातुएं पर्यावरण में आसानी से ख़त्म नहीं होती इसलिए वो लम्बे समय तक नुकसान पहुंचा सकती हैं। थॉमस के अनुसार एंटीबायोटिक दवाओं का अत्यधिक उपयोग ही केवल एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स का कारण नहीं है। कृषि और जीवाश्म ईंधन, खनन जैसी गतिविधियों के कारण भी यह बढ़ रहा है।
एंटीबायोटिक रेसिस्टेन्स तब उत्पन्न होता है, जब रोग फैलाने वाले सूक्ष्मजीवों (जैसे बैक्टीरिया, कवक, वायरस, और परजीवी) में रोगाणुरोधी दवाओं के संपर्क में आने के बाद से बदलाव आ जाता हैं और वो इन दवाओं के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं। नतीजतन, यह दवाएं इन पर अप्रभावी हो जाती हैं। इसके कारण संक्रमण शरीर में बना रहता है। इन्हें कभी-कभी "सुपरबग्स" भी कहा जाता है।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि दुनिया में एंटीबायोटिक रेसिस्टेंट एक बड़ा खतरा है। अनुमान है कि यदि इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो 2050 तक इसके कारण हर साल करीब 1 करोड़ लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ सकती है। वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2030 तक इसके कारण 2.4 करोड़ लोग अत्यधिक गरीबी का सामना करने को मजबूर हो जाएंगे। साथ ही इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी भारी नुकसान उठाना पड़ेगा।
शोधकर्ताओं के अनुसार इन बैक्टीरिया के बारे में जानना जरुरी है कि समय के साथ यह कैसे विकसित हो रहे हैं। यह हमारे भोजन, पानी के जरिए हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकते हैं। इसलिए सही समय पर इनसे निपटना जरुरी है।