प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो: आईस्टॉक
प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो: आईस्टॉक

छांव में बचपन: उत्तर बंगाल के चाय बागानों से संकल्प की कहानियां

आज पूरी दुनिया मानव तस्करी के खिलाफ विश्व दिवस मना रही है
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उत्तर बंगाल के हरे-भरे, लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर चाय बागानों में जीवन एक रोज की जद्दोजहद है। पीढ़ियों से रहने वाले आदिवासी परिवार बेहद कठिन हालात में जीते हैं- कम मजदूरी, अस्थायी रोजगार और लगातार असुरक्षा इनकी पहचान बन गई है।

महिलाएं दिनभर चाय पत्तियां तोड़ती हैं, जिसके बदले उन्हें मात्र 250 रुपए मिलते हैं। उनके बच्चे अक्सर पीछे छूट जाते हैं - शोषण, तस्करी और हिंसा के जोखिमों के बीच। इन्हीं परिस्थितियों में शुरू होती है, रिया और कमला की कहानी - दो किशोरियां जिनकी जिंदगियां उस खामोश संघर्ष का आइना हैं, जिसे यहां के सैकड़ों बच्चे हर दिन झेलते हैं।

16 साल की रिया ने गरीबी और लाचारी के कारण पांचवीं कक्षा के बाद स्कूल छोड़ दिया। रिया की मां गालो दिन-रात मेहनत करती थीं, ताकि घर चल सके। एक दिन रिया के चाचा ने उसे सिक्किम ले जाने की बात की - यह कहकर कि वहां उसे खाना, पढ़ाई और आश्रय मिलेगा।

मजबूरी में गालो मान गईं, लेकिन असलियत कुछ और थी। रिया को एक घरेलू कामकाज के माहौल में रखा गया, जहां वह अकेली और असहज महसूस करती थी। कुछ साल बाद वह वापस लौटी और घरों में काम करने लगी, ताकि मां की मदद कर सके। फिर एक दिन, एक स्थानीय व्यक्ति के साथ वह भूटान सीमा के पास स्थित जयगांव चली गई - एक बार फिर एक अनिश्चित भविष्य की ओर।

लेकिन इस बार समुदाय चुप नहीं बैठा। गांव की चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई)  से जुड़ी एक समाजकर्मी ने पुलिस और परिवार को सतर्क किया। रिश्तेदारों, बाल संरक्षण समिति (सीपीसी) के सदस्यों और पुलिस के संयुक्त प्रयास से रिया को ढूंढ़ निकाला गया और सुरक्षित वापस लाया गया।

हालांकि वह मानसिक रूप से बहुत विचलित थी और बार-बार वहां लौटने की बात कहती थी। उसकी मां ने तुरंत सीपीसी से मदद ली, जिसने उसे सरकारी काउंसलिंग सेवाओं से जोड़ा। नियमित काउंसलिंग और सामाजिक कार्यकर्ताओं व स्वास्थ्य टीमों के सहयोग से रिया धीरे-धीरे संभलने लगी।

स्कूल शिक्षकों की मदद से उसे दोबारा स्कूल में  आठवीं कक्षा  में दाखिल कराया गया। इतने लंबे शैक्षणिक अंतराल के बाद स्कूल लौटना आसान नहीं था, लेकिन सामूहिक प्रयासों ने उसे फिर से पढ़ाई की राह पर ला खड़ा किया।

कमला की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। वह अपनी मां के साथ एक अन्य चाय बागान क्षेत्र में रहती थी और नियमित रूप से स्कूल जाती थी। एक दिन, एक पड़ोसी ने उसे बेहतर स्कूल और भविष्य का सपना दिखाकर बहलाया और एक अन्य लड़की के साथ उसे दूसरे बागान क्षेत्र में ले गया, जो एक रेलवे स्टेशन के पास स्थित था - एक ऐसा इलाका जिसे अक्सर तस्करी के संभावित मार्ग के रूप में जाना जाता है।

सौभाग्य से एक सतर्क चौकीदार ने इस गतिविधि पर संदेह किया और कमला के मामा को सूचना दी। मामा ने तुरंत मां को बताया और दोनों ने गांव की सीपीसी से संपर्क किया। सीपीसी सक्रिय हो गई। पुलिस में शिकायत दर्ज कराई गई और शाम होते-होते पुलिस, समुदाय की मदद से, कमला को ढूंढकर वापस ले आई। काउंसलिंग के बाद अब वह बच्चों के समूह की नियमित सदस्य है और स्कूल भी जा रही है। समय पर मिली मदद ने एक संभावित हादसे को टाल दिया।

ये कहानियां कोई अपवाद नहीं हैं। उत्तर बंगाल के चाय बागानों में रहने वाले आदिवासी समुदाय गहरी सामाजिक और आर्थिक असुरक्षा से जूझते हैं - गरीबी, लैंगिक असमानता, बाल विवाह, तस्करी और आवश्यक सेवाओं की कमी इनकी जिंदगियों को घेरे हुए हैं। यहां की लड़कियां खासतौर पर तस्करों का आसान निशाना बनती हैं। किशोर उम्र में भागकर शादी कर लेना आम है, जो अक्सर जल्द गर्भधारण और अधूरी ज़िंदगियों का कारण बनता है।

इस सच्चाई को पहचानते हुए चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) ने कई जमीनी कदम उठाए हैं। बनरहाट, नग्रकाटा और कालचीनी के अधिकांश चाय बागानों में सीपीसी का गठन हो चुका है, जो बच्चों की सुरक्षा की पहली पंक्ति हैं।

इन्हें बाल असुरक्षाओं की पहचान, सरकारी योजनाओं से जुड़ाव और पुलिस व अन्य संस्थाओं से समन्वय का प्रशिक्षण दिया गया है। चाइल्ड राइट्स एंड यू  के सामाजिक कार्यकर्ता परिवार-स्तर पर बच्चों की स्थिति का आकलन करते हैं और आवश्यक हस्तक्षेप करते हैं।

अब 135 ग्राम संसदों में मासिक बैठकें होती हैं, जहां सीपीसी सदस्य बच्चों के मूवमेंट पर नजर रखते हैं, मामलों की समीक्षा करते हैं और जागरूकता फैलाते हैं। अब तक लगभग 12,000 परिवारों को सरकार की योजनाओं से जोड़ा गया है - जैसे ‘चाय सुंदरि’ (आवास हेतु), ‘कन्याश्री’ (किशोरियों के लिए), और खाद्य सुरक्षा योजनाएं। इन प्रयासों ने परिवारों की आर्थिक स्थिति सुधारने और बच्चों के शोषण को रोकने में मदद की है।

शिक्षा को सुरक्षा का सशक्त माध्यम माना गया है। 200 से अधिक स्कूल ड्रॉपआउट बच्चों को दोबारा स्कूल में दाखिला दिलाया गया है। हाई स्कूलों में कन्याश्री क्लब्स किशोरियों को जीवन कौशल, अधिकारों और सशक्तिकरण की दिशा में प्रशिक्षित कर रहे हैं। लगभग 2000 बच्चों को ब्रिज कोर्स में शामिल किया गया है जिससे वे औपचारिक शिक्षा में फिर से शामिल हो सकें।

बच्चों के सामूहिक मंच (चिल्ड्रन कलेक्टिव्स) अब बदलाव के वाहक बन चुके हैं - ये बाल विवाह, बाल श्रम और तस्करी के खिलाफ अभियान चलाते हैं और साथियों को स्कूल में बने रहने के लिए प्रेरित करते हैं।

इन पहलों की असली ताकत है सामूहिक प्रयास। सरकारी अधिकारी, पंचायतें, स्कूल, सामाजिक कार्यकर्ता और स्वयं बच्चे मिलकर एक ऐसा सुरक्षा जाल तैयार कर रहे हैं जिसमें कोई बच्चा पीछे न छूटे। रिया और कमला की सफल वापसी और उनका पुनः स्कूल जीवन में लौटना इस बात का प्रमाण है कि जब एक सिस्टम संवेदनशीलता और तत्परता से काम करता है, तो बदलाव संभव है।

जैसे-जैसे यह अभियान आगे बढ़ता है, हमारा साझा संकल्प है - उत्तर बंगाल के चाय बागानों में कोई भी बच्चा अनदेखा, असुरक्षित या अनसुना न रहे। लगातार संवाद, सामुदायिक जुटाव और सिस्टम की भागीदारी से एक ऐसा भविष्य गढ़ने की उम्मीद है जहां हर बच्चा निर्भय होकर पढ़ सके, आगे बढ़ सके और एक सम्मानजनक जीवन जी सके।

असीम घोष बच्चों के लिए काम करने वाली संस्था क्राई से जुड़े हैं। लेख में व्यक्त उनके निजी विचार हैं  

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