चमकी बुखार: क्यों थम गया था 2012 के बाद मौतों का सिलसिला, अब कहां हुई चूक

2018 तक हर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में ग्लूकोज की व्यवस्था थी, दो माह पहले ही तैयारी कर ली जाती थी, जो इस बार चुनाव की वजह से नहीं हुई
चमकी बुखार से पीड़ित बच्चे के साथ उसके माता-पिता। फोटो: पुष्यमित्र
चमकी बुखार से पीड़ित बच्चे के साथ उसके माता-पिता। फोटो: पुष्यमित्र
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पिछले 16 दिनों से बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में बच्चों के मौत का कहर जारी है। इस साल 2 जून से चमकी बुखार से पीड़ित बच्चे शहर के एसकेएमसीएच अस्पताल में भर्ती होने लगे, 3 जून से उनकी मौतों का सिलसिला शुरू हो गया, स्थानीय मीडिया में छपी खबरों के मुताबिक आज यह आंकड़ा 120 तक पहुंच गया है, हालांकि सरकार अभी सिर्फ 82 मौतों की बात मान रही है।

वैसे तो मुजफ्फरपुर में इस मौसम में 1995 से ही हर साल एक्यूट इन्सेफ्लाइटिस सिंड्रोम का प्रकोप रहता है, मगर 2012 के बाद यह पहला मौका है जब यहां मरने वाले बच्चों की संख्या 120 तक पहुंच गयी, 2012 में यह संख्या 122 थी। 2015 के बाद तो इस रोग से मरने वाले बच्चों का आंकड़ा कभी 20 से अधिक नहीं हुआ था और यह मान लिया गया था कि भले ही इस रोग के कारणों का पता नहीं लगाया जा सका है, मगर कमोबेस इस रोग को नियंत्रित कर लिया गया है, मगर 2019 में इस रोग ने एक बार फिर से वापसी कर ली है।

एक्यूट इन्सेफ्लाइटिस सिंड्रोम (एइएस) के नाम से जाने वाले इस रोग का प्रसार बिहार के मुजफ्फरपुर और आसपास के जिलों वैशाली, सीतामढ़ी, शिवहर, पूर्वी चंपारण, समस्तीपुर आदि में रहता है। ये जिले बिहार के मौसमी फल लीची के उत्पाद के प्रमुख क्षेत्र हैं और इस रोग का प्रकोप भी लीची फसल के तुड़ाई के मौसम में ही मई मध्य से लेकर जून में मानसून की बारिश होने तक रहता है। इसलिए कई बार इस रोग का कारण लीची भी मान लिया जाता है। 2014 में शोध पत्रिका लेनसेट में प्रकाशित एक शोध में यह माना गया कि इस रोग की वजह लीची में मौजूद एक टॉक्सीन है, हालांकि बाद में कुछ शोध में इस बात का खंडन भी किया गया। 

वैसे तो मुजफ्फरपुर में इस रोग का प्रकोप 1995 से ही रहा है, मगर 2008 से 2014 के बीच हर साल इस रोग से हजारों बच्चे बीमार होते थे और सैकड़ों बच्चे अकाल कलवित हो जाते थे. इस संबंध में कई अध्ययन हुए मगर इस रोग का पता नही चल पाया। ऐसे में बिहार के स्वास्थ्य विभाग ने इस रोग के लक्षणों के आधार पर इसका विश्लेषण करते हुए एक स्टैंडर्ड ऑपरेशन प्रोसीजर तैयार किया और इस प्रोसीजर में उन तमाम बातों को शामिल किया, जिससे इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता था।

इसका नतीजा यह रहा कि 2015 से ही इस रोग से मरने वाले बच्चों की संख्या में काफी कमी दिखने लगी। उस साल सिर्फ 16 बच्चों की मौत हुई और अगले साल 2016 में यह संख्या सिर्फ चार रह गयी, जबकि 2014 में इस रोग से 98 बच्चे मरे थे। 2016 में जब डाउन टू अर्थ संवाददाता ने मुजफ्फरपुर का दौरा किया था तो वहां एसकेएमसीएच, मुजफ्फरपुर के शिशु रोग विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ ब्रजमोहन ने बताया कि एसओपी के तहत इस रोग को नियंत्रित करने के लिए गांव स्तर की आशा कार्यकर्ता से लेकर जिला प्रशासन तक को, पंचायत से लेकर एसकेएमसीएच, मीडिया से लेकर स्वयंसेवी संस्था तक को शामिल किया गया, जिसके नतीजे सामने आ रहे हैं। 

उस वक्त मुजफ्फरपुर के कई ग्रामीण इलाकों में जाकर पता चला कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों की ड्यूटी सुबह तीन बजे से लग जाती थी, वहां ग्लूकोज लेवल की जांच के लिए किट होता था और आवश्यक होने पर ग्लूकोज चढ़ाने की व्यवस्था भी। किसी रोगी को बिना ग्लूकोज चढ़ाये रेफर नहीं किया जाता था, ताकि वह एसकेएमसीएच तक का रास्ता बिना किसी खतरे के पार कर सके। रात के वक्त आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ता अपने क्षेत्र के हर घर का राउंड लगाती थी, कि कहीं कोई बच्चा भूखे पेट सो तो नहीं रहा। किसी निजी वाहन से भी अस्पताल पहुंचने पर वाहन का किराया हाथोहाथ दिया जाता। जागरूकता के प्रसार में साहित्यकारों, नाटककारों और मीडिया सबको शामिल किया गया था। 

2018 तक इस एसओपी का असर बरकरार रहा, 2017 में 11 और 2018 में सिर्फ सात बच्चे इस रोग से मरे। मगर इस साल बच्चों की मौत का सिलसिला रोके नहीं रुक पा रहा। 10 जून को जब एक ही दिन में 20 बच्चों की मौत हुई और मीडिया में यह मामला उछला तभी से प्रशासन इसे रोकने में सक्रिय है। मगर यह रोग किसी तरह चिकित्सकों के काबू में नहीं आ रहा। ऐसे में यह सवाल निश्चित तौर पर चौकाने वाला है कि आखिर इस रोग की वापसी कैसे हो गयी?

इस संबंध में एक धारणा यह बन रही है कि इस बार एसओपी का पालन ठीक से नहीं हुआ। 11 जून, 2019 को केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने बयान दिया था कि चुनावी व्यस्तताओं की वजह से लगता है जिला प्रशासन ने जागरूकता का काम ठीक से नहीं किया। बाद में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी स्वीकार किया कि जागरुकता के काम में इस साल ढिलाई रही है। जागरूकता का काम इसी एसओपी का हिस्सा है। यह मुमकिन है कि इस साल एसओपी के अनुपालन में ढिलाई की वजह से यह रोग बेकाबू हो गया है। हालांकि पिछले तीन-चार दिन से स्वास्थ्य विभाग और यूनिसेफ की टीम लगातार इस काम में जुटी है, मगर फिर भी इसका फिलहाल कोई असर नहीं दिख रहा।

दूसरी वजह इस साल उत्तर बिहार में पड़ने वाली भीषण गर्मी बतायी जा रही है। इस साल गर्मी की वजह से पूरा इलाका जल संकट की चपेट में भी है। स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों का कहना है कि इस भीषण गर्मी की वजह से कुपोषित बच्चे बड़ी आसानी से हाइपो ग्लूसेमिया और डिहाइड्रेशन की चपेट में आ रहे हैं, जिसकी वजह से सबसे अधिक मौतें हो रही हैं। 

तीसरी संभावित वजह जो पहली दोनों वजहों को और मजबूत कर रही है, वह है इस क्षेत्र में फैला कुपोषण। मुजफ्फरपुर और आसपास के इलाके में बच्चों में कुपोषण काफी अधिक है। एक स्थानीय चिकित्सक डॉ अरुण साहा कहते हैं कि कुपोषित बच्चों के लिवर में ग्लाइकोजीन फैक्टर संरक्षित नहीं होता है। इस ग्लाइकोजीन फैक्टर का काम शरीर में ग्लूकोज की मात्रा घटने पर इसकी क्षतिपूर्ति करना है। आम बच्चों में जब हाइपो ग्लाइसेमिया का अटैक आता है तो ग्लाइकोजीन फैक्टर इसकी कमी पूरी कर देता है, मगर कुपोषित बच्चों यह कमी पूरी नहीं हो पाती और उनकी मौत हो जाती है।

कुल मिलाकर एसओपी के पालन में हुई चूक, इस साल की भीषण गर्मी और कुपोषण वे कारण हैं, जिसकी वजह से इस साल इस रोग से धड़ाधड़ बच्चे मर रहे हैं। तमाम कोशिशों के बावजूद इन्हें रोकना मुश्किल हो रहा है। 

कब कितने बच्चों की मौत हुई 

साल  बच्चों की मौत
2012 123
2013 43
2014 98
2015 16
2016 4
2017 11
2018 7
2019 अब तक 120

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