चिकने कागज वाला बिल: छूने मात्र से फैलता जहर
मोबाइल वॉलेट, यूपीआई, क्रेडिट कार्ड और ऑनलाइन बैंकिंग ने भुगतान की प्रक्रिया को बेहद तेज़, पारदर्शी और सुविधाजनक बनाया है। फिर भी, दुकान से सामान खरीदने के बाद, एटीएम से पैसे निकालने पर, पेट्रोल पंप या रेस्टोरेंट में खाना खाने के बाद, हमें एक पतला पर चमकीला कागज का बिल मिलता है।
हम इसे बेफिक्री में बस खरीददारी का एक प्रमाण मान पर्स या कार के डैश बोर्ड में भूल जाते हैं। पर इस चमकीले कागजी बिल की कहानी यहीं खत्म नहीं होती, बल्कि चुपके से हम सबके शरीर पर होने वाले बुरे प्रभाव से शुरू ही होती है, जिसे हमने थोड़ी देर पहले ही हाथ में लिया था। अब स्वास्थ्य विशेषज्ञों में आम सहमति बन चुकी है कि बिना किसी स्याही के पेपर पर प्रिंट डाल देने वाले इस कागजी बिल को ‘मूक जहर’ मान लिया जाए।
चमकीला दिखने वाले इस थर्मल पेपर के ऊपर बिसफेनॉल ए (बीपीएस), बिसफेनॉल एस (बीपीएस) और डिस फेनॉल सल्फोन (डीपीएस) जैसे जहरीले पोलीमर रसायनों की एक अस्थायी परत होती है, जो ताप संवेदी होते हैं और वो भी बिना किसी स्याही के प्रिंटर की गर्मी के संपर्क में आने पर अक्षर या चित्र के रूप में बदल जाते हैं।
खुदरा दुकानदारों के लिए यह एक सस्ता और कुशल उपाय है, क्योंकि इसमें स्याही या टोनर की जरूरत नहीं होती, इस कारण पेट्रोल पंपों, एटीएमों और हर तरह के इलेक्ट्रॉनिक डेटा कैप्चर मशीनों में इसका व्यापक उपयोग होने लगा है।
ऐसे रसायनों के समूह को ‘इंडोक्राइन डिसरपटर’ कहा जाता है, क्योंकि कागजी बिल में लिपटे ये अदृश्य रसायन हमारे शरीर में त्वचा के जरिए घुसकर हमारे समूचे हार्मोन सिस्टम को प्रभावित करते हैं। दुनिया भर में ‘इंडोक्राइन डिसरपटर’ पर प्रतिबंध लग रहे हैं, लेकिन भारत में, अभी भी इसका इस्तेमाल बेरोकटोक जारी है। धीरे-धीरे यह मुद्दा सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा ख़तरा बनता जा रहा है, पर हम सब बेखबरी में ही है।
असल में यह रसीद भी नहीं
लेन-देन या किसी भी खरीददारी के बाद बिल साक्ष्य के लिहाज से एक क़ानूनी जरुरत भी होती है। सार्वजनिक स्वास्थ्य पर इसके बुरे प्रभाव को थोड़ी देर के लिए दरकिनार भी कर दे और उपभोक्ता के क़ानूनी साक्ष्य के नजरिए से देखें, तो भी यह बिलकारगर विकल्प नहीं है। ए रसीदे अस्थायी होती हैँ जिसपर उभरा प्रिंट गर्मी, नमी, तेल और धूप के प्रति इतने संवेदनशील होते हैं कि इन पर छपाई 5-10 दिन में ही फीकी पड़ जाती है।
इस प्रकार यदि आपने कोई महँगा मशीन खरीदा है जिसकी वारंटी लंबी है, तो कुछ समय बाद आपके पास खरीद का कोई पठनीय प्रमाण ही नहीं बचेगा। भारत में, उपभोक्ता अधिकारों की दृष्टि से यह एक गंभीर चिंता है।
तेलंगाना के मेडक ज़िला उपभोक्ता फोरम ने 2023 में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया, जहाँ उपभोक्ता की फीकी पड़ी रसीद के 'इको-फ्रेंडली' होने के दावे को ना सिर्फ खारिज किया बल्कि फीकी रसीद के कारण उपभोक्ता को मानसिक पीड़ा और जुड़े स्वास्थ्य जोखिमों को भी उजागर किया। यह निर्णय इस बात का प्रमाण है कि थर्मल रसीदें हमारे कानूनी अधिकारों को भी कमज़ोर करती हैं।
विषैले केमिकल की अस्थाई कोटिंग
बिसफेनॉल ए (बीपीएस), बिसफेनॉल एस (बीपीएस) और डिस फेनॉल सल्फोन (डीपीएस) जैसे जहरीले पोलीमर कागज की सतह पर अस्थायी रूप से लेपित होते हैं जो हाथ से छूने के साथ ही आसानी से हमारी त्वचा के रास्ते शरीर में दाखिल हो जाते हैं।
एक शोध के मुताबिक इन रसीदों पर बिस्फेनॉल आदि रसायन इतनी अधिक मात्रा में होते हैं कि सिर्फ रसीद को 10 सेकंड के लिए छूने से ही त्वचा के रास्ते शरीर को नुकसान पहुंचाने लायक मात्रा जा चुकी होती है।
इन रसीदों को लेकर एक अजब मानव व्यवहार भी सामने आया है, जिसके अनुसार हम औसतन हर ऐसे बिल को 11-12 सेकंड के लिए छूते ही हैं और अक्सर ए बिल हथेली के भी संपर्क में आते हैं, तो वही कुछ लोग इसे नैपकिन की तरह भी इस्तेमाल करते हैं। इस प्रकार त्वचा में इसका अवशोषण और भी आसान हो जाता है।
ये सारे तथ्य इन रसीदों का स्वास्थ्य पर पड़ रहे अदृश्य खतरे को समझने के लिए काफी हैं जो दिखाते हैं कि जोखिम कितना तीव्र और तात्कालिक है।
अनोखा जहर
थर्मल पेपर पर पसरा जहर खाने के मुकाबले छूना ज्यादा खतरनाक है। अगर इसे खा लिया जाय तो यकृत इसे 'फर्स्ट पास मेटाबॉलिज्म' के द्वारा इसे तेजी से निष्क्रिय कर देता है। वही जब ये त्वचा के रास्ते शरीर में प्रवेश करता है, तो यह यकृत के फर्स्ट पास मेटाबॉलिज्म को दरकिनार कर खून में पहुंच सीधे हार्मोन रिसेप्टर्स से जुड़ जाता है।
इन रसायनों के साथ एक और अनोखापन जुड़ा हुआ है; अल्कोहल-आधारित हैंड सैनिटाइजर से हाथ साफ करने के बाद रसीद को छूने से इन रसायनों का अवशोषण 22 गुना से लेकर 200 गुना तक बढ़ जाता है। क्योंकि सैनिटाइजर त्वचा की पारगम्यता को बढ़ा देते हैं, जिससे ये रसायन आसानी से त्वचा में समा जाते हैं।
असली पर धीमा जहर
ए रसायन शरीर के सबसे संवेदनशील प्रणाली जो विभिन्न अन्तःस्रावी ग्रंथियों से निकले हार्मोन के द्वारा पूरी शारीरिक कामकाज को संतुलित करते है, को प्रभावित करते हैं। इन रसायनों की संरचना हार्मोन से मिलती-जुलती है और इस प्रकार एस्ट्रोजन हार्मोन की नकल करते हुए शरीर के हार्मोनल संतुलन को बिगाड़ देते हैं, जिनमें प्रजनन और विकास संबंधी समस्याएं, मेटाबॉलिक और हृदय रोग, मोटापा, प्रतिरक्षा प्रणाली, शरीर के मुख्य आंतरिक अंगों तक को प्रभावित करते हैं। यहां तक स्तन कैंसर और प्रोस्टेट कैंसर का कारण भी बनते हैं।
अनोखा जहर और महिलाएँ
सामाजिक और लैंगिक परिप्रेक्ष्य भारत जैसे समाज में जहाँ महिलाएँ परिवार की वित्तीय-घरेलू प्रबंधन और खरीददारी में सक्रिय भूमिका निभाती हैं, वहाँ उनका इन खुदरे कागज़ी बिलों से बार-बार संपर्क स्वाभाविक है। किराने की दुकानों, अस्पतालों और सब्जी मंडियों में रोज़ मिलते इन छोटे बिलों से वे अनजाने में खतरनाक रसायनों के संपर्क में आती हैं।
चूंकि महिलायें पब्लिक रिलेशन में पुरुषों के मुकाबले ज्यादा तरजीह पाती है और दुकानों या कैश काउंटर पर अपेक्षाकृत बहुतयात में कार्यरत हैं, इस प्रकार वे बिसफेनॉल के जहर का सामना अपेक्षाकृत ज्यादा करती हैं, जिससे उनका प्रजनन संबधी स्वास्थ्य ज्यादा प्रभावित होता है। महिलाएं बांझपन, पॉलीसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम, गर्भपात और समय से पहले डिलीवरी के साथ-साथ स्तन कैंसर के एक विशेष आक्रामक रूप से ट्रिपल-नेगेटिव स्तन कैंसर की शिकार हो रहीं हैं।
पर्यावरण पर भी भारी
थर्मल पेपर ना सिर्फ मानव स्वास्थ का मुद्दा है बल्कि इसके उत्पादन में प्रकृति का अत्यधिक दोहन और इसके पर्यावरणीय प्रभाव को भी नकारा नहीं जा सकता। आंकड़ों के अनुसार, एक टन कागज तैयार करने में लगभग 17 पेड़ काटने पड़ते हैं, जबकि करीब 20,000 गैलन पानी और बड़ी मात्रा में ऊर्जा की खपत होती है।
इसके अलावा कागज़ उद्योग से निकलने वाले रासायनिक अपशिष्ट नदियों को प्रदूषित करते हैं। ब्लीचिंग में उपयोग होने वाले क्लोरीन यौगिक वायु में डाइऑक्सिन और फ्यूरीन जैसी गैसें छोड़ते हैं जो कैंसरकारी मानी जाती हैं। इस तरह, एक छोटे से बिल के पीछे भी पर्यावरणीय बोझ छिपा है: जल संसाधनों का ह्रास, वनों की कटाई और वायु प्रदूषण।
भारत विश्व का सबसे तेज़ी से बढ़ता कागज बाजार है, जहाँ 2024-25 तक कागज की सालाना खपत लगभग 2.4 करोड़ टन पहुँचने का अनुमान है। इनमें थर्मल पेपर का बाजार 2024 में 184.5 मिलियन डॉलर तक पहुँच गया और 2033 तक दोगुना होने की उम्मीद है।
भारतीय संदर्भ
वैश्विक स्तर पर, यूरोपीय संघ, जापान और कनाडा ने थर्मल पेपर में इन रसायनों पर या तो प्रतिबंध लगा दिए हैं या इसकी मात्रा को 200 पीपीएम तक सीमित कर दिया है। फ्रांस में तो यह पूरी तरह प्रतिबंधित हैं। लेकिन भारत में स्थिति काफी गंभीर है।
दिल्ली आधारित एक शोध में थर्मल पेपर रसीदों में इन रसायनों की मात्रा यूरोपीय संघ के 200 पीपीएम के मुकाबले 600 से लेकर चिंताजनक 6600 पीपीएम तक पाई गई जो सुरक्षित मात्र से 33 गुना तक ज़्यादा है। सबसे बड़ी चिंता की बात है कि भारत में थर्मल पेपर पर इन रसायनों के लेप की मात्रा के लिए वर्तमान में तो ना कोई नियम है और ना ही दिशानिर्देश है।
हालांकि जब बिसफेनॉल ए के खतरों के बारे में जागरूकता बढ़ी तो इसे बिसफेनॉल एस को सुरक्षित बताकर बदल दिया गया और थर्मल पेपर को ‘बिसफेनॉल ए मुक्त’ बता कर प्रचारित किया गया जिसे बाद में इस मिथ्या प्रचार को ऊपर लिखित आदेश में कोर्ट तक ने ख़ारिज कर दिया। शोध साबित करते हैं कि बिसफेनॉल एस हार्मोनल रूप से बिसफेनॉल ए जितना ही सक्रिय और खतरनाक है।
डिजिटल रसीदें टिकाऊ विकल्प
वर्तमान में थर्मल पेपर का कोई भी विकल्प अभी तक स्वास्थ्य से जुड़े खतरों से मुक्त नहीं है, यहाँ तक की विटामिन सी पेपर जिसे सुरक्षित माना गया है, में भी फार्मास्यूटिकल्स पाए गए हैं। इस लिहाज से ई-मेल या एसएमएस से भेजी गयी डिजिटल रसीदें थर्मल पेपर के कागजी रसीदों का सबसे सुरक्षित और सबसे टिकाऊ विकल्प है।
भारतीय मानक ब्यूरो ने 'थर्मल पेपर - विनिर्देश' नामक मानक जारी किया है, जो स्वैच्छिक है। भारतीय मानक ब्यूरो (BIS) और पर्यावरण मंत्रालय को इस दिशा में सुदृढ़ दिशा निर्देश तैयार करने की आवश्यकता है ताकि खुदरा लेनदेन, एटीएम और अन्य रोजमर्रा की सेवाओं में सुरक्षित कागज़ी या डिजिटल बिल प्रणाली अपनाई जा सके।
अब समय आ गया है कि अपने आसपास पनप रहे स्वास्थ्य संबधी बड़े खतरों पर आँख मूँदने के वजाए गंभीर हुआ जाए और जब तक सरकार और उद्योग इस ख़तरे को गंभीरता से नहीं लेते, हमें एक नागरिक के रूप में हर बार रसीद लेते समय, याद रखे कि हम सिर्फ़ एक कागज का टुकड़ा नहीं, बल्कि अपने स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए एक जहरीला बोझ उठा रहे हैं।


