एक “एक्सटेंडेड-वीकेंड” के बाद आज स्कूल खुला था। शहर की चकाचौंध से दूर, टूटी छप्पर, सीलन लगी दीवारों, जर्जर ब्लैक बोर्ड और फटी दरियों को समेटे बिहटा गांव के इस सरकारी स्कूल में आज बच्चों की भीड़ कुछ वैसी ही थी जैसी भीड़ एक “एक्सटेंडेड-वीकेंड” के बाद सोमवार के दिन शहर की छह लेन की सड़कों पर दिखती है। वजह दोनों के लिए अलग-अलग थी। मसलन शहरी बाबुओं को सोमवार को हर हाल में हाजिरी लगानी होती है वरना शनिवार-इतवार की छुट्टी में “सीएल” लगने का खतरा है। दूसरी ओर स्कूल के बच्चों को सोमवार के दिन स्कूल आना ही होता है क्योंकि छुट्टियों का मतलब है घर पर भूखे पेट रहना। और स्कूल खुलने का मतलब होता है “मिड-डे-मील” की गरमागरम खिचड़ी!
ओफ्फ! कितनी मजेदार खुशबू होती है उस गरमागरम खिचड़ी की! इस खुशबू की भी अपनी एक अलग ही कहानी है। यह कहानी सब बच्चों को पता है। मसलन, महजबीन से पूछो तो वह बताएगी कि पहले बड़े–बड़े बर्तनों के धोने की ढम्म-ढम्म-ढम्म की आवाज आती है। उसके बाद स्कूल के अहाते से धुआं निकलना शुरू होता है यानी चूल्हा जल चुका है। धीरे-धीरे इस धुएं में गर्म भात, दाल और नून-हल्दी-मिर्च की मिलीजुली महक घुलने लगती है।
सामने मास्टर जी कुछ पढ़ा रहे हैं पर गरम खिचड़ी की यह महक, केवल नाक में ही नहीं बल्कि बच्चों के कानों में भी ताला लगा देती है। उन्हें सिवाय इस भीनी–भीनी महक की आवाज के अलावा दूसरा कुछ भी नहीं सुनाई देता।
एक “एक्सटेंडेड-वीकेंड” के बाद आज स्कूल खुला था। पर आज कुछ भी नहीं हो रहा है। न बर्तनों के धोने की ढम्म-ढम्म-ढम्म की आवाज आ रही थी और न ही स्कूल के अहाते से धुआं निकल रहा है। पिछले तीन दिनों से भूखे बच्चों के कान और नाक एक गरमागरम खिचड़ी की महक के लिए तरस गए हैं।
पिछले महीने भर से “मिड-डे-मील” को पकाने वाले रसोइए-चाची हड़ताल पर हैं। वह हड़ताल में थे क्योंकि विश्व की एक सबसे तेज उभरती अर्थव्यवस्था में इनको हजार रुपए प्रति माह की पगार पर रखा गया था। महजबीन से पूछो तो वह बताएगी कि खिचड़ी की कहानी में एक नई कहानी जुड़ी है। पिछले महीने भर से बच्चों को खिचड़ी नहीं बल्कि इस हड़ताल की खबरें परोसी जा रही हैं। बेशक हड़ताल वाली खबर एक महीना बासी है पर “अपडेट्स” एकदम ताजा हैं और गरमागरम! खिचड़ी के इंतजार में घंटों लाइन में लगे बच्चे अपनी थालियों और गिलासों को वापस जमा करवा देते हैं। अगला पीरियड इतिहास का है। मास्टर साहब कुछ पढ़ा रहे हैं।
महजबीन को कुछ भी सुनाई नहीं देता। वह अपने बसते से एक मुड़ी-तुड़ी कॉपी निकाल लेती है और लिखना शुरू करती है- बापू को पाती प्यारे बापू, आप कैसे हो? हम सब अच्छे हैं। आपको पता है कि अंग्रेजों की तरह सदियों पहले हमारे देश को गरीबी और भूख ने अपना गुलाम बना लिया। पर हम आपके सिखाए रास्ते पर चलकर इसका डटकर सामना कर रहे हैं। सरकार ने रसोइया चाचियों के खिलाफ “असहयोग आंदोलन” छेड़ा हुआ है और हमारी रसोइया चाची लोगों ने सरकार के खिलाफ “सविनय अवज्ञा आंदोलन”।
हम बच्चों को अब मिड-डे-मील नहीं मिलता। जैसे आप अपनी बात को मनवाने के लिए अनशन करते थे उसी तरह हम भी शायद अनशन पर हैं। हम चाहते हैं कि हम बच्चों को रोज खिचड़ी मिले। गरमागरम! बापू! हमारी जीत तो होगी न?
एक बात और है बापू, किसी से कहना मत... बच्चे पूछ रहे हैं, यह अनशन खत्म कब होगा?
-महजबीन,
कक्षा-5, प्राइमरी स्कूल, ब्लॉक बिहटा।
(यह पत्र काल्पनिक है, लेखक ने मिड-डे-मील की व्यवस्था पर सवाल खड़े करने के लिए व्यंग्यात्मक कहानी के तौर पर लिखा है। यह पहले डाउन टू अर्थ, हिंदी मैगजीन में बैठे-ठाले कॉलम में प्रकाशित किया गया था।)