अखबारों में “साल 2030 तक भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनेगा” जैसी सुर्खियां वैसे तो बहुत खुशी देती हैं, लेकिन देश का दयनीय स्वास्थ्य संकेतक इस खुशी को काफूर कर देता है। कुछ स्वास्थ्य सूचक तो वास्तव में इतने खराब हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था के चमकदार होने के अनुमान में विरोधाभास दिखने लगता है।
पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष के श्रीनाथ रेड्डी की ताजा किताब “मेक हेल्थ इन इंडिया: रीचिंग ए बिलियन प्लस” स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत के सामने मौजूद चुनौतियों की याद दिलाती है। रेड्डी साल 2010 में योजना आयोग की तरफ से स्वास्थ्य को लेकर गठित किए गए विशेषज्ञों के समूह के चेयरमैन भी रह चुके हैं। नीतियों के अध्ययन की श्रृंखला में यह उनकी पहली किताब है, जो साल 1990 से लेकर अब तक देश के स्वास्थ्य क्षेत्र की पड़ताल करती है।
किताब की शुरुआत कुछ आंकड़ों से होती है। इसमें कई तरह के स्वास्थ्य सूचक आंकड़े हैं, जिनकी रिपोर्टिंग हुई है। खासतौर पर वे आंकड़े, जो बताते हैं कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में कुछ सुधार हुआ है, लेकिन इसमें अलग-अलग राज्यों के स्वास्थ्य सूचक आंकड़ों में बदलावों की अनदेखी हो जाती है। मिसाल के तौर पर भारत में साल 1990 में जन्म के बाद जीवन अवधि 59.7 वर्ष थी, जो साल 2016 में बढ़कर 70.3 वर्ष हो गई। लेकिन, उत्तर प्रदेश की महिलाओं की आयु केरल की महिलाओं की आयु की तुलना में 11 वर्ष कम ही है। इसी तरह पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर में साल 1990 की तुलना में 2015 में काफी गिरावट आई, लेकिन साल 2016 में उत्तर प्रदेश और असम में इस उम्र के बच्चों की मृत्यु दर और केरल की मृत्यु दर में चार गुना का अंतर था। केरल में मृत्यु दर न्यूनतम स्तर पर थी, जबकि उत्तर प्रदेश और असम में केरल की तुलना में ये दर चार गुना उच्चतम स्तर पर थी। जाहिर सी बात है कि ये आंकड़े बताते हैं कि वैसी नीतियों को बढ़ावा देने की जरूरत है, जो संबंधित राज्यों के लिए उपयुक्त हों।
भारत में प्रतिरक्षा (इम्युनाइजेशन) दर बेहद दयनीय 62-64 प्रतिशत है जबकि दक्षिणी व सब-सहारा अफ्रीका के देशों में आर्थिक विकास निम्न स्तर पर होने के बावजूद प्रतिरक्षा दर 90 प्रतिशत से ज्यादा है। दूषित पानी और गंदगी के कारण बीमारियां फैलने की घटनाओं में गिरावट तो आई है, लेकिन चीन के मुकाबले अब भी 40 गुना ज्यादा है।
जनस्वास्थ्य पर खर्च की बात करें, तो भारत दुनिया में सबसे कम खर्च करता है। यह खर्च सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 0.9 से 1.2 प्रतिशत के बीच है। यहां तक कि जिन देशों में स्वास्थ्य पर निजी व सार्वजनिक खर्च भारत के बराबर या कम है, वहां कुल स्वास्थ्य खर्च में जनस्वास्थ्य पर खर्च की हिस्सेदारी काफी ज्यादा है।
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि आउट-ऑफ-पॉकेट खर्च (लोगों द्वारा किया गया वो खर्च जो सरकार या कोई एजेंसी बाद में वापस नहीं देती) के कारण पिछले दशक में भारत के 5.5 से 6.3 करोड़ लोगों को गरीबी के दलदल में धकेल दिया गया, क्योंकि इन परिवारों को अपनी कमाई का 10 से 40 प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च करना पड़ा। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, आउट-ऑफ-पॉकेट खर्च स्वास्थ्य पर कुल खर्च का 15 से 20 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। किताब के दूसरे अध्याय में लिखा है, “इस लक्ष्य को कई चरणों में भी पूरा करने के लिए भारत को पहले चरण में आउट-ऑफ-पॉकेट खर्च को 50 प्रतिशत या उससे कम करने का लक्ष्य रखना चाहिए।” इसके लिए जीडीपी का 5 से 6 प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च करना होगा।
नीति आयोग ने राज्य सरकारों को स्वास्थ्य बजट में दोगुना इजाफा करने को कहा है लेकिन बजट बढ़ाने को लेकर केंद्र व राज्य सरकारों के बीच खींचतान बढ़ी है। संप्रति राज्यों द्वारा जन स्वास्थ्य पर खर्च की जाने वाली राशि का एक तिहाई हिस्सा केंद्र सरकार वहन करती है। अभी तक केंद्र सरकार ने अपनी भागीदारी बढ़ाने की कोई इच्छा जाहिर नहीं की है। दूसरी तरफ, नीति आयोग ने जिला अस्पतालों की बागडोर पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप के तहत निजी मेडिकल कॉलेज को देने का प्रस्ताव देकर स्वास्थ्य विशेषज्ञों को चिंता में डाल दिया है। रेड्डी इस तरह के प्रस्तावों को “निजी फायदे के लिए साझेदारी” मॉडल कहते हैं।
किताब में एक पूरा चैप्टर ही दवाओं के पहुंच से बाहर होने पर केंद्रित है। साल 2011-2012 में स्वास्थ्य पर अधिक खर्च करने के कारण जो 5.5 करोड़ लोग गरीब हुए, उनमें से 3.8 करोड़ लोग केवल दवाओं पर खर्च के कारण दरिद्र हो गए। भारत सस्ती दवा निर्माता देश है और इसे “ग्लोबल फार्मेसी” भी कहा जाता है, फिर ऐसा विरोधाभास क्यों? इस सवाल का जवाब इस किताब में मिलता है। किताब में लिखा गया है, “ देश के एक बड़े तबके की खरीद क्षमता बहुत कम होना एक वजह हो सकती है, लेकिन मुख्य वजह यह है कि भारत में बहुत सारी दवाओं के दाम जितने होने चाहिए, उससे काफी ज्यादा हैं। हालांकि, संतोषजनक लाभ स्वीकार्य है, लेकिन उत्पादन लागत पर अत्यधिक दाम बढ़ाए जाने से दवाइयां जरूरत से ज्यादा महंगी हो जाती हैं।”
केंद्र सरकार की आयुष्मान भारत स्कीम को लेकर किताब में हेल्थ सब-सेंटर को हेल्थ व वेलनेस सेंटर में तब्दील करने और प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएमजेएवाई) के अंतर्गत 10 करोड़ लोगों को सलाना 5 लाख रुपए की स्वास्थ्य बीमा के बारे में बताया गया है। रेड्डी लिखते हैं, “हेल्थ व वेलनेस सेंटर को सक्रिय किया जाना स्वागतयोग्य कदम है, लेकिन साल 2018 और 2019 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (ग्रामीण व शहरी स्वास्थ्य मिशन) के लिए जितना फंड आवंटित हुआ, उससे देखते हुए लगता है कि ग्रामीण प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को मजबूत करने को लेकर जिस प्रतिबद्धता की जरूरत है, वह नहीं है। यह भी देखना निराशाजनक है कि इन बजटों में शहरी स्वास्थ्य मिशन के तत्वों की अप्रत्यक्ष रूप से अनदेखी की गई है।”
पीएमजेएवाई में एक बड़ा अंतर यह है कि पूर्ववर्ती बीमा योजना की तुलना में बीमा राशि के कवरेज में बढ़ोतरी से स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च में कुछ कमी आ सकती है, लेकिन इसे आउट-ऑफ-पॉकेट खर्च पर कोई असर नहीं पड़ेगा क्योंकि इसमें बाह्यरोगी (आउट पेशेंट) का इलाज शामिल नहीं है। विडम्बना तो यह है कि यह आउट-ऑफ-पॉकेट खर्च की समस्या और बढ़ाएगी। किताब में लिखा गया है, “प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की गैर मौजूदगी व प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के अंतर्गत सेवाओं की अनियंत्रित मांग से स्वास्थ्य बजट नष्ट होगा, जिससे प्राथमिक चिकित्सा सेवा व सार्वजनिक अस्पतालों को मजबूत करने के लिए फंड की कमी होगी।
स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं की किल्लत हेल्थ सिस्टम को कमजोर कर सकता है। इसके निराकरण के लिए किताब में नेशनल कमिशन फॉर हेल्थ रिसोर्सेज स्थापित करने की अनुशंसा की गई है, जो सभी कैटेगरी को अहम मदद पहुंचाएगा। चिकित्सकों के कुवितरण की समस्या से निजात के लिए रेड्डी ने नेशनल मेडिकल सर्विस की स्थापना की सिफारिश की है। नेशनल मेडिकल सर्विस ग्रामीण क्षेत्रों में स्नातकों और जिला अस्पतालों में स्नातकोत्तरों को नियुक्त करेगा। साथ ही भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) की तर्ज पर विशेषज्ञ चिकित्सकों की स्थायी इकाई तैयार करेगा।