आम चुनाव 2019 में पर्यावरण के मुद्दों को महत्व दिए जाने को लेकर पत्रकार मुझसे लगातार सवाल कर रहे हैं कि क्या राजनीतिक दल इन मुद्दों को उचित महत्व दे रहे हैं। सच कहूं तो मैंने उनके सवालों का जवाब देने के लिए काफी संघर्ष किया, क्योंकि टिप्पणी करने के लिए कुछ खास नहीं था। देश के सामने खड़ी पर्यावरणीय चुनौतियों और राजनीतिक दलों के वादों के बीच इतनी बड़ी खाई है कि टिप्पणी करना आसान काम नहीं है। मैं इसे समझाता हूं।
भारत आज अभूतपूर्व पर्यावरणीय संकट का सामना कर रहा है। कभी भी हमारी हवा और पानी इतने खराब नहीं हुए, जितने आज हैं। हवा की गुणवत्ता इस हद तक खराब हो गई है कि इसके चलते देश में बड़ी तादात में लोग मर रहे हैं। विश्व के अन्य सभी देशों के मुकाबले भारत में जहरीली हवा के कारण शिशु मृत्यु दर सबसे अधिक है। 2017 में, देश में आठ में से कम से कम एक मौत के लिए वायु प्रदूषण को जिम्मेदार ठहराया गया था। इसी तरह, देश में शिशुओं की मौत का एक और बड़ा कारण जल प्रदूषण है और हमारे जल प्रदूषण का स्तर दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है।
2018 में, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने कुल 351 प्रदूषित नदी खंडों की पहचान की - तीन साल पहले 302 खंडों की वृद्धि हुई है। केवल गंगा ही प्रदूषित नदी नहीं है, सभी प्रमुख और छोटी नदियां पानी की निरंतर निकासी और अपशिष्टों के अप्रयुक्त निपटान के कारण प्रदूषण का शिकार हो रही हैं।
भूजल के मामले में संकट और भी विकट है। हम अभी पीने के पानी की आपूर्ति पर लगभग 80 फीसदी निर्भर हैं और हम भूजल प्रदूषण के अभूतपूर्व स्तर पर पहुंच चुके हैं। देश में 640 जिलों में से 276 का भूजल फ्लोराइड के कारण प्रदूषित है, 387 में नाइट्रेट है, 113 जिलों में हैवी मेटल्स हैं और 61 जिलों में भूजल में यूरेनियम है।
हमारे जंगल, वन्यजीव और जैव विविधता पतन की ओर अग्रसर हैं। पिछले तीन दशकों में, हमने प्राकृतिक वनों को बगीचों में बदल दिया है। मनुष्य और पशुओं का संघर्ष बढ़ गया है और मरुस्थलीकरण अब हमारी उत्पादक कृषि भूमि को प्रभावित कर रहा है।
इसके अलावा, अब हमारे सामने जलवायु परिवर्तन है, जो लोगों के जीवन और आजीविका के लिए खतरा है। अत्याधिक बारिश, चक्रवात, बाढ़ और सूखे जैसे चरम मौसम की घटनाएं अब नियमित रूप से देश के एक हिस्से या दूसरे हिस्से को तबाह कर देती हैं। 2013 में उत्तराखंड बाढ़ थी, 2014 में जम्मू और कश्मीर बाढ़, 2015 में चेन्नई बाढ़ और 2018 में केरल बाढ़। इन चरम घटनाओं ने सैकड़ों लोगों की जान ले ली और हजारों करोड़ रुपये का आर्थिक नुकसान हुआ। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव और भी बुरा होने वाला है क्योंकि निकट भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग वर्तमान 1 डिग्री सेल्सियस से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा।
सबसे घातक आंकड़ा यह है कि कैंसर, तपेदिक, एड्स और मधुमेह की तुलना में प्रदूषण के कारण अधिक भारतीय मरते हैं।
ऐसी विकट स्थिति में, किसी ने राजनीतिक दलों से अपेक्षा की होगी कि वे एक गंभीर विचार के साथ सामने आए, जिसमें पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन के साथ विकास और विकास की अनिवार्यताओं के संतुलन की बात हो, लेकिन अफसोस कि दो बड़े राजनीतिक दलों - कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी - ने पुराने विचारों को ही दोहरा दिया है और अपने घोषणापत्र में पर्यावरण को एक मुख्य मुद्दे के बजाय परिधीय विषय के रूप में फिर से पेश कर दिया है।
वायु प्रदूषण के मामले को ही लें। दोनों पार्टियों ने राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) को मजबूत करके वायु प्रदूषण को कम करने का वादा किया है। हालांकि कांग्रेस ने वायु प्रदूषण को लोगों के स्वास्थ्य के लिए एक आपातकाल बताया है और कहा है कि वह उत्सर्जन के सभी प्रमुख स्त्रोतों को निशाने पर लेगी। वहीं, भाजपा ने एनसीएपी को एक मिशन में बदलने और पांच साल में प्रदूषण के स्तर को कम से कम 35 प्रतिशत कम करने का वादा किया है । लेकिन वे दोनों पार्टियां वायु प्रदूषण को उस विकास प्रतिमान के साथ जोड़ने में विफल रहे हैं, जिनका वादा उन्होंने अपने घोषणा पत्र के पहले कुछ पृष्ठों में किया है।
जल संकट को दूर करने के लिए, दोनों दलों ने एक नया जल मंत्रालय बनाने का वादा किया है। भाजपा ने 2022 तक स्वच्छ गंगा के लक्ष्य को प्राप्त करने का वादा किया है तो कांग्रेस ने गंगा सहित नदियों की सफाई के लिए बजट आवंटन को दोगुना करने का वादा किया है। लेकिन दोनों ने भूजल स्तर में सुधार करने और उसके लिए आवश्यक कार्यक्रमों को बात नहीं की है। यदि नए मंत्रालयों और अधिक धन ने काम किया होता तो हम अपनी सभी समस्याओं को बहुत पहले हल कर चुके होते।
जलवायु परिवर्तन पर, कांग्रेस ने सही शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कहा है कि वे ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए एक एक्शन एजेंडा लाएंगे। दूसरी ओर, भाजपा 2022 तक 175 गीगावॉट नवीकरणीय ऊर्जा के लक्ष्य को प्राप्त करने के वादे के अलावा जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर काफी हद तक चुप है।
वन प्रबंधन को लेकर दोनों पार्टियों के बीच एक बड़ा अंतर है। कांग्रेस ने जहां वन प्रबंधन में स्थानीय समुदायों को शामिल करने के लिए एक व्यापक रूपरेखा तैयार की है, वहीं भाजपा आदिवासियों और वनों के मुद्दों पर पूरी तरह से चुप है, जिसमें वन अधिकार कानून भी शामिल है।
लब्बोलुआब यह है कि कांग्रेस का घोषणा पत्र में सही शब्दों का इस्तेमाल किया गया है, जबकि भाजपा के घोषणापत्र में संख्याओं और लक्ष्यों का जिक्र है। लेकिन दोनों ही पार्टियों के घोषणा पत्र में देश के सामने खड़ी पर्यावरणीय चुनौती से निपटने के लिए अपर्याप्त वादे नहीं किए गए हैं।
तथ्य यह है कि पर्यावरण को एक राजनीतिक मुद्दा बनाने का बिल्कुल सही समय है। फिर भी, इस चुनाव में पर्यावरण या उसकी खामियों पर बातचीत वास्तव में चौंकाने वाली है। इधर-उधर के ट्वीट के अलावा, पर्यावरण हमारे राजनीतिक दिग्गजों की जुबान में नहीं है। ऐसा क्यों है? इस लोकसभा चुनाव में पर्यावरण एक महत्वपूर्ण मुद्दा क्यों नहीं है?
मैं इसके लिए राजनीतिक दलों को दोष नहीं देता। राजनीतिक दल अपने मतदाताओं की प्राथमिकताओं को दर्शाते हैं। और, अधिकांश मतदाताओं के लिए पर्यावरण प्राथमिकता नहीं है। ऐसा नहीं है कि पर्यावरण प्रदूषण और विनाश के कारण लोग पीड़ित नहीं हैं। वो हैं, लेकिन उन्हें पर्याप्त रूप से जानकारी नहीं दी गई है ताकि वे इसे महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा बनाएं। और यह सिविल सोसायटी की विफलता है। हम सिविल सोसायटी में पर्यावरण को एक राजनीतिक मुद्दा बनाने के लिए जमीनी स्तर पर अपने संदेश को ले जाने में विफल रहे हैं। यह समय है, जब हमें इस विफलता को पहचानें।