दिन-1 : अंधेरे में टटोल-टटोल कर काम करना मुश्किल हो रहा था, इसलिए मैंने आज प्रकाश की सृष्टि की। अब सब कुछ साफ-साफ दिख रहा है।
दिन-2: चारों और पानी ही पानी था। अब कोई पानी में कैसे काम कर सकता है? डूबने का खतरा अलग। मैंने आज पानी से अलग स्वर्ग को बनाया।
दिन-3: आज मैंने स्थल की सृष्टि की पर सपाट धरती बहुत वीरान लग रही थी। मैंने पेड़ पौधे बनाए, हरियाली बनाई। अब धरती खूबसूरत लग रही है।
दिन-4: दिन और रात का पता ही नहीं चल रहा था। कुछ तो काम की व्यस्तता थी और कुछ इसलिए भी कि दिन और रात में फर्क करने के लिए कुछ था नहीं। आज मैंने सूरज को बनाया जो दिन में उगेगा और चांद और तारों को बनाया जो रात में आसमान में दिखेंगे।
दिन-5: मेरी सृष्टि अब भी बेजान है। ऐसी सृष्टि भला किस काम की? आज मैंने पंछियों को बनाकर आसमान में उड़ा दिया और मछलियों को बनाकर पानी में तैरा दिया है।
दिन-6: स्थल या जमीन अभी भी वीरान थी इसलिए आज मैंने जानवर बनाए। आज मैंने अपने ही बिम्ब में मानव की सृष्टि की। सृष्टि का काम पूरा हुआ।
दिन -7: अब मैं आराम करूंगा.... कम से कम मैंने तो यही सोचा था। थोड़ी सी झपकी आई ही थी कि किसी शोरगुल के चलते नींद खुल गई। शोर नीचे यानी धरती से आ रहा था। यहां ऊपर स्वर्ग से कुछ साफ-साफ दिख नहीं रहा है। नीचे चलकर देखना पड़ेगा।
यह क्या? धरती पर तो चारों और अराजकता फैली है और सारे झमेले की जड़ में इंसान है! मैंने अपने बिम्ब में इंसान को बनाया और इंसान ने देश बना लिया, अपनी सरकारें बना लीं। राजा-सुलतान-सम्राट-पोप-धर्मगुरु और जाने क्या-क्या बना लिए। मैंने तो ऐसा कुछ भी नहीं बनाया था। जानवरों, पक्षियों या पेड़-पौधों जैसे मेरी बाकी सृष्टि में कहीं कोई राजा नहीं, कोई पोप-पंडा-मौलवी नहीं है और न ही कोई देश-सरहद-सरकार और सेनाएं हैं। फिर केवल इंसान ऐसे अजीब बर्ताव क्यों कर रहे हैं?
इंसानों में एक तबका है जो मुझे नहीं मानता। उनके लिए मेरी जरूरत खत्म हो गई है। मुझे प्रसन्नता है कि मेरे बच्चे आज अपना भला-बुरा खुद देख सकते हैं। पर मुझे सदमा उन लोगों से लगा जो खुद को मेरा भक्त बताते हैं और फिर मेरे ही नाम पर वह एक-दूसरे की निर्ममता से हत्या करते हैं!
मैंने उन्हें जब रोकने की कोशिश की तो उन्होंने मुझे मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे-चर्च में बंद कर दिया। हाय! आज मैं इस सृष्टि का सृष्टिकर्ता, अपनी ही सृष्टि द्वारा कैद कर लिया गया हूं! आज मैं, परमपिता एकदम अलग-थलग और अकेला पड़ गया हूं । किससे कहूं अपना गम?
मैं गहरे सदमे में हूं। अब मेरी दुनिया अमीर-गरीब, गोरे-काले, उत्तर-दक्षिण और जाने किस-किस नाम से बंटी हुई है। मैं, ईश्वर, इस सृष्टि का सृजन-कर्ता आज घोषणा करता हूं कि मैंने पेड़-पौधे बनाए, समुद्री जीव और स्थलचारी जीवों को बनाया पर मैंने अमीर-गरीब या गोरे-काले या उत्तर-दक्षिण का फर्क नहीं बनाया! कभी नहीं। ऐसा कर भी कैसे सकता हूं?
मेरी आवाज आज सूने कमरों में गूंजकर वापस आ रही है।
आज जो सुना उसके बाद मेरा अपने ही अस्तित्व पर से विश्वास डगमगा गया है। सुना है कि कुछ लोग कह रहे हैं कि इस पृथ्वी पर सभी इंसानों के बेहतर जीवन यापन के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। उसके लिए पांच पृथ्वियों की और जरूरत है!
कहां हुई मुझसे हिसाब में चूक? मुझसे तो बस एक ही पृथ्वी की सृष्टि हुई है।
बाकी के पांच की सृष्टि कौन करेगा?