
शहर की चकाचौंध–विकास और फेस्टीविटी से दूर, वाल्मीकि मोहल्ले में चुराई ईंटों, प्लास्टिक की शीट और टूटे एस्बेस्टर की छत से बने कमरे में दीपक परेशान होकर चहलकदमी कर रहा था। परेशानी की वजह थी बिटिया का एक छोटा-सा सवाल- “पापा! एस्किमो लोग सील का शिकार कैसे करते हैं?”
बिटिया को ईडब्ल्यूएस कोटे में इलाके के नामी स्कूल “यादव वर्ल्ड पब्लिक स्कूल” में दाखिला दिलाकर दीपक खुश था कि बेटी इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़कर कुछ बन जाएगी। उसे क्या पता था कि ऐसे सवालों से भी दो चार होना पड़ेगा। पहले उसने सवाल को टालने की कोशिश की कि, “कल तुम ट्यूशन की टीचर से पूछ लेना।” पर पता लगा कि ट्यूशन टीचर ने पहले ही हाथ खड़े कर लिए थे कि, “ सिलेबस या ज्यादा से ज्यादा मुहल्ले से संबंधित सवाल पूछ लो। 250 रुपए ऑल सब्जेक्ट ट्यूशन में अंटार्कटिका जाना नामुमकिन है।”
अब दीपक के सामने बेटी को इस सवाल का एकदम ठीक-ठीक जवाब देने के अलावा कोई चारा नहीं था। उसने बेटी को साथ लिया और एक सीवर के पास जाकर खड़ा हो गया। उसने सीवर के ढक्कन को हटाया और बोला “देख बिटिया, अंटार्कटिका में वहां के इनुइट लोग इसी तरह जमीन में सुराख बना देते हैं और फिर इंतजार करते हैं कि कब कोई सील मछली आए।”
बिटिया ने हैरानी से पूछा, “पापा! क्या अंटार्कटिका में नालियों में सील मछली पाई जाती है?”
“अरे दुर-पगली” दीपक ने प्यार से बिटिया को झिड़कते हुए कहा, “अंटार्कटिका में चारों ओर बरफ ही बरफ और बरफ के नीचे पानी का महासमंदर और उस महासमंदर में रहती हैं सील मछलियां!”
“बरफ के नीचे समंदर! भला यह कैसे हो सकता है? बरफ तो समंदर में पिघल जाएगी कि नहीं बुद्धू?” बिटिया ने तमककर कहा।
“कुछ नहीं पिघलता बिटिया। यही तो विधाता की सृष्टि है” दीपक ने कहा, “अब देखो जमीन के ऊपर कितनी रौनक, कितनी चहल पहल है। लाल सांता की-टोपी लगाए बाबू लोग रेस्टोरेंट में खाना खा रहे हैं, मॉल में शापिंग कर रहे हैं। बड़े-बड़े मकानों–रेस्टोरेंटों और मॉल में हग- मूत रहे हैं। उनकी गंदगी शहर के गंदे नाले में बह रही है। हम सीवर साफ करने वाले उनका गंदा साफ करते हैं। गंदगी में नाक तक डूब जाते हैं। और वे हमें देखकर नाक में रुमाल रखकर परे हट जाते हैं। हमें देखकर किसी बाबू का दिल आज तक पिघला है? और जब इंसान का दिल नहीं पिघलता तो बरफ क्या चीज है बिटिया?”
बाप कहानी को आगे बढ़ाता है, “जैसे मैं इस सीवर के गंदे पानी में उतरता हूं, उसी तरह बरफ के नीचे महासमंदर के पानी में सील मछली रहती है।”
बिटिया पूछती है, “पापा आप सील मछली बन जाते हो?”
बाप हंसकर जवाब देता है, “अरे बिटिया, मैं तो पानी में उतरता हूं एक चड्डी पहनकर पर सील मछली तो एकदाम नंग-धड़ंग रहती है।”
बेटी पूछती है, “फिर क्या होता है पापा?”
“सील मछली को सांस लेने के लिए हवा में बाहर आना पड़ता है, ठीक वैसे ही जैसे गंदे पानी में रहते हुए मुझे भी सांस लेने के लिए इस मैनहोल से बाहर निकलना पड़ता है। जैसे सील मछली बरफ में बने सुराख से सांस लेने के लिए अपनी मुंडी बाहर निकालती है, उसी समय शिकारी बरछा चला देता है। ठीक वैसे ही जैसे हम जैसे सीवर साफ करने वाले लोग बाहर सांस लेने के लिए निकलने की कोशिश करते हैं और मैनहोल की जहरीली हवा की बरछी हमारे फेफड़ों को फाड़ देती है, हमारे दिमाग की नसों को सुन्न कर देती है और हम गंदगी से बजबजाते पानी में धीरे-धीरे डूबते चले जाते हैं... और सील मछली मर जाती है।”
एक लंबी चुप्पी के बाद बाप कहता है, “सील मछली हमसे खुशकिस्मत है बिटिया। पूछो क्यों ? क्योंकि सील मछली शिकार पर अब पाबंदी लग गई है।”
फिर अपने में ही बुदबुदाता हुआ कहता है, “जाने कब दूसरे शिकारों पर पाबंदी लगेगी?”