सिक्के का दूसरा पहलू

जम्मू एवं कश्मीर में गडरिया खानाबदोशों के सामने चुनौतियों महज राजनीतिक नहीं हैं। सालों से उनके अस्तित्व के साधनों पर संकट मंडरा रहा है।
मुहम्मद अख्तर जम्मू एवं कश्मीर में बकरीपालक बकरवाल समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। वह कठुआ में बलात्कार के बाद मारी गई लड़की के पिता हैं (फोटो: ईशानी कसेरा / सीएसई)
मुहम्मद अख्तर जम्मू एवं कश्मीर में बकरीपालक बकरवाल समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। वह कठुआ में बलात्कार के बाद मारी गई लड़की के पिता हैं (फोटो: ईशानी कसेरा / सीएसई)
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उधमपुर जिले में सानासर की पहाड़ी ढलानों पर नीले रंग के चमकीले टेंट में बैठे मुहम्मद अख्तर बारिश रुकने का इंतजार कर रहे हैं। टेंट में उनके साथ दो बच्चे और पत्नी भी है। टेंट के पिछले हिस्से में थैले और कंबल लदे हैं। दस साल की एक बकरी कोने में बंधी है। दूसरी तरफ जानवरों का चारा रखा है और टेंट के बाहर बंधी एक गाय उसे खा रही है। बहुत जल्द अख्तर का बारिश थमने का इंतजार खत्म हो जाएगा लेकिन आठ साल की बच्ची का शायद कभी नहीं।

अख्तर जम्मू एवं कश्मीर में बकरीपालक बकरवाल समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। वह कठुआ जिले में रसाना वन में निर्ममतापूर्वक बलात्कार के बाद मारी गई लड़की के पिता हैं। अगर परिस्थितियां सामान्य होतीं तो उनकी बच्ची 200 बकरियों, कुछ गायों और घोड़ों के साथ लौट आती। इसके बाद समुदाय कठुआ से कारगिल की करीब 500 किलोमीटर की लंबी पैदल यात्रा के लिए निकल पड़ता।

कठुआ में बलात्कार की इस घटना से देशभर में आक्रोश है। स्थानीय नेता इस मामले में दिल्ली में भड़काऊ भाषण दे रहे हैं और अख्तर की वकील दीपिका सिंह राजावत ने उच्चतम न्यायालय में अर्जी दाखिल कर इस मामले की सुनवाई जम्मू उच्च न्यायालय से चंडीगढ़ स्थानांतरित करने की मांग की है। देश के अलग-अलग हिस्सों में न्याय की मांग को लेकर मोमबत्तियां जलाई जा रही हैं।

इसके अलावा एक दूसरी तरह का विरोध भी हो रहा है। विरोध करने वालों का कहना है कि आरोपियों को गलत तरीके से फंसाया जा रहा है। बच्ची और आरोपियों के समर्थन में हुए विरोध प्रदर्शनों के बीच एक मांग ऐसी भी उठी जिसका घटना से प्रत्यक्ष वास्ता नहीं है। यह मांग 12 अप्रैल को जम्मू बार एसोसिएशन ने अपने प्रदर्शन के दौरान उठाई जिसे बीजेपी नेता राम माधव ने भी दोहराया। मांग यह थी कि जम्मू एवं कश्मीर के जनजातीय विभाग के आदेश को वापस लिया जाए।

यह आदेश आदिवासियों को जंगलों से बेदखल होने से रोकता है। गुज्जर और बकरवाल भी आदिवासी समुदाय में शामिल हैं। जम्मू में रहने वाले गुज्जर कार्यकर्ता जावेद राही बताते हैं “1991 में हमें अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला था। सरकार हमें वे अधिकार क्यों नहीं दे रही है जो इस समुदाय का हक है? हम वनाधिकार, अत्याचार निवारण अधिकार और राजनीतिक आरक्षण से वंचित हैं। ऐसे में अनुसूचित जनजाति के दर्जे का क्या मतलब रह जाता है?”

राज्य में अनुसूचित जनजातियों के अधिकारों के लिए वनाधिकार कानून 2006 को लागू करने के लिए आंदोलन चल रहा है। वनाधिकार विधेयक को मार्च सत्र में विधानसभा में रखा जाना था। राजौरी से पीडीपी विधायक कमर हुसैन ने इसे प्रस्तावित किया था लेकिन बिल पर चर्चा नहीं हो पाई। हुसैन बताते हैं “अन्य कई विधेयकों पर भी चर्चा होनी थी, इसलिए वनाधिकार विधेयक को टेबल नहीं किया जा सका। हमें उम्मीद है कि ग्रीष्मकालीन सत्र में यह काम हो जाएगा।”

ऐसा पहली बार नहीं है जब विधेयक को विधानसभा में पास नहीं किया जा सका। इससे पहले उमर अब्दुल्ला की अगुवाई वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस सरकार ने भी विधेयक पास नहीं किया। राज्य के आदिवासियों में करीब आधे खानाबदोश हैं।



राज्य में 12 अनुसूचित जनजातियां हैं। इनमें से आठ लद्दाख और बाकी की चार कश्मीर और जम्मू क्षेत्र में हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य की आबादी में इनकी हिस्सेदारी 14 लाख यानी करीब 11 प्रतिशत है। इनकी आबादी में करीब 90 प्रतिशत गुज्जर (करीब 9 लाख) और बकरवाल (करीब दो लाख) हैं। गुज्जर और बकरवाल के विकास के लिए बने स्टेट एडवाइजरी बोर्ड के सचिव मुख्तार अहमद चौधरी बताते हैं कि 90 प्रतिशत गुज्जर आबादी बस चुकी है लेकिन बकरवाल पूरी तरह खानाबदोश हैं।

सामाजिक और आर्थिक पायदान पर वे सबसे नीचे हैं। गुज्जरों से उलट बकरवाल के पास जमीन नहीं है। इसके पीछे एक तथ्य यह है कि गुज्जरों के पास भैंसें होती हैं जो लंबी दूरी की यात्रा नहीं कर सकतीं जबकि बकरवाल के पास भेड़ और बकरियों होती हैं जो लंबी दूरी तय करने में सक्षम हैं।

अपने जानवरों के साथ चल रहे एक बकरवाल ने बताया “हमारे जानवर अधिक गर्मी और ठंड में मर जाते हैं। चारे की भी दिक्कत है। अगर हमें जानवरों को पालना है तो हमें जम्मू और कश्मीर के बीच चलते रहना पड़ता है।”

आदिवासियों की समस्याओं के मद्देनजर 2014-15 में बीजेपी-पीडीपी की सरकार ने जनजातीय विभाग बनाया था। नई सरकार के स्टेट एडवाइजरी बोर्ड ने कुछ गतिविधियां शुरू कीं। इनमें से एक थी आदिवासी आबादी को क्लस्टर गांवों में बसाना। इसे फलीभूत करने के लिए एक ड्राफ्ट पॉलिसी पर काम किया गया जो बीते दिसंबर-जनवरी में बनकर तैयार हुई। मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती इसी सिलसिले में 12 फरवरी को जनजातीय मामलों के मंत्रालय गई थीं। इसके बाद राज्य के जनजातीय विभाग ने आदेश जारी कर अधिकार प्राप्त होने तक बेदखली प्रकिया पर रोक लगा दी थी। इसके तुरंत बाद जम्मू में विरोध होने लगा और आदेश वापस लेने की मांग उठने लगी। राम माधव और बार असोसिएशन ने जनजातीय विभाग के आदेश को वापस लेने की मांग का पुरजोर समर्थन किया।

जम्मू में गुज्जर नेता नजाकत खटाना बताते हैं “वे लोग हमें यहां बसने नहीं देना चाहते। वे हमारे दिलों में डर पैदा कर रहे हैं। वे सोचते हैं कि अगर हमें यहां जमीन का मालिकाना हक मिल गया तो क्षेत्र की जनसांख्यकीय संरचना बदल जाएगी।” वह बताते हैं कि आदिवासी समुदायों पर हमले नए नहीं हैं लेकिन जब से नई सरकार सत्ता में आई है तब से ये हमले बढ़ गए हैं। अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण कानून के आंकड़ों के अभाव में समुदाय द्वारा दी गई मौखिक जानकारियों से ही ऐसे अपराधों की विश्वसनीय जानकारी मिलती है।

एक तरफ आदिवासी समुदाय जहां अपने वाजिब अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ उनके विरोधियों का कुछ और ही मानता है। राज्य के उच्च न्यायालय में बलात्कार मामले में बचाव पक्ष के वकील अंकुर शर्मा के अनुसार, “यह क्षेत्र की जनसांख्यकीय संरचना में बदलाव की कोशिश है। इस कदम से हिंदु बहुल जम्मू का इस्लामीकरण हो जाएगा।” अंकुर और उनकी तरह कई लोगों के लिए खानाबदोश जम्मू के स्थायी निवासी नहीं हैं। वह तो यहां तक कहते हैं कि वनाधिकार के तहत उन्हें जमीन नहीं दी जा सकती क्योंकि वे खानाबदोश हैं और कानून भी यह बात कहता है।

हालांकि कानून में गडरियों के लिए प्रावधान हैं और खानाबदोश समुदाय भी इसमें आते हैं। राज्य में वनाधिकार कानून लागू न होने के कारण जमीन से जुड़े मसले उच्चतम न्यायालय के एक आदेश से चल रहे हैं। इसी आदेश के सहारे “अतिक्रमणकारियों” को जंगल की जमीन से हटाया जा रहा है। राज्य में आदिवासी अतिक्रमणकारी के नाम से बदनाम हैं।

जम्मू एवं कश्मीर में गडरिया खानाबदोशों के सामने चुनौतियों महज राजनीतिक नहीं हैं। सालों से उनके अस्तित्व के साधनों पर संकट मंडरा रहा है। राज्य में स्थायी तौर बसे लोगों से उन्हें चुनौती तो मिल ही रही है, साथ ही साथ उनके अस्तित्व के लिए जरूरी चारागाह भी साल दर साल तेजी से कम हो रहे हैं।

कृषि मंत्रालय के कृषि एवं सहभागिता विभाग के आर्थिक एवं सांख्यकी निदेशालय के आंकड़ों के अनुसार, इस शताब्दी की शुरुआत से 2014-15 के बीच राज्य 11,000 हेक्टेयर चारागाह खो चुका है। 2014 में जारी भारत के महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट के अनुसार, जम्मू एवं कश्मीर राज्य भूमि कानून 2001 अथवा रोशनी कानूनी मामूली फीस के साथ सरकारी भूमि पर स्वामित्व प्रदान करता है। 2000-01 में यह योजना शुरू होने के बाद 17,000 हेक्टेयर जमीन पर निजी स्वामित्व हो गया।



इसके अलावा जम्मू और इसके आसपास के क्षेत्रों में शहरीकरण बढ़ने के चलते भूमि की मांग बढ़ रही है। इससे खानाबदोश समुदाय के लिए जगह कम होती जा रही है। उदाहरण के लिए जम्मू में जिस जगह अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान प्रस्तावित है, वह वर्तमान में गुज्जरों की रिहाइश है। 250 गुज्जर परिवारों को बलपूर्वक यहां से हटा दिया गया है। वनाधिकार कानून लागू न होने के कारण उनके अधिकारों की रक्षा नहीं हो पाई। संस्थान बनता है तो वह इस समुदाय की कीमत पर बनेगा।

ऐसे ढेरों उदाहरण हैं। जावेद राही बताते हैं कि राजौरी जिले में जिस 40 हेक्टेयर जमीन पर बाबा गुलाम शाह बहादुर यूनिवर्सिटी बनाई गई है, वह चारागाह थी और उसका इस्तेमाल खानाबदोश समुदाय अपने पशुओं को चराने के लिए करते थे।

जम्मू एवं कश्मीर में खानाबदोश समुदायों पर शोध करने वाली और जम्मू विश्वविद्यालय में लाइफलॉन्ग लर्निंग डिपार्टमेंट की प्रमुख कविता सूरी समुदाय की परेशानियों को सूचीबद्ध करते हुए बताती हैं कि मौसम के अनुसार प्रवास समुदाय के लिए मुश्किल होता जा रहा है। उनका कहना है “वन भूमि पर वन विभाग ने बाड़बंदी कर दी है। वहीं कश्मीर के ऊंचाई वाले चारागाह फौज की घेराबंदी में आ गए हैं।”

वन विभाग की कार्यप्रणालियां खानाबदोश समुदायों की उपेक्षा ही करती हैं। विभाग चरवाहों को समस्या के रूप में देखता है। उदाहरण के लिए राजौरी फॉरेस्ट डिवीजन का वर्किंग प्लान (2014-15 से 2023-24) कहता है “वन क्षेत्र के इस डिवीजन में स्थायी और प्रवासी पशुओं की चराई की समस्या चिरकाल से है। इस क्षेत्र में चराई अवैज्ञानिक, अनियंत्रित और अनियमित है। इसने चीर के पुनर्जन्म को बुरी तरह प्रभावित किया है और क्षेत्र में वनस्पतियों को नुकसान पहुंचाया है।” अन्य फॉरेस्ट डिवीजन का भी कुछ ऐसा ही मानना है।

स्पष्ट है कि फॉरेस्ट डिवीजनों का आचरण समुदाय के सदस्यों के प्रति तिरस्कार पूर्ण है। राही कहते हैं “उनका मानना है कि हम जंगलों का नष्ट कर रहे हैं। लेकिन क्या यह संभव है? हमारा वर्तमान और भविष्य जंगलों पर ही निर्भर है। हम तो उनकी रक्षा करते हैं। हम जंगलों को लकड़ी माफिया से बचाते हैं और हमारे पशु मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने में योगदान देते हैं।”

लेकिन इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि खानाबदोशों के पास पशुओं की संख्या बढ़ी है। चराई से जहां वनों का स्वास्थ्य सुधरता है वहीं जरूरत से ज्यादा चराई से विपरीत परिणाम निकलते हैं।

मोहम्मद अल्ताफ ने डाउन टू अर्थ को बताया “पहले हमारे पास इतने मवेशी नहीं थे। हमें ज्यादा मवेशी रखने पड़ते हैं क्योंकि उनमें से कई तो मर जाते हैं। अगर हम ज्यादा मवेशी नहीं रखेंगे तो हम पैसे नहीं कमा पाएंगे।” अल्ताफ कठुआ से अनंतनाग 25 भेड़ों और 20 गांयों के साथ जा रहे थे। उनकी एक गाय तेज रफ्तार कार की टक्कर से मर गई है। गाय को खोने से उन्हें 30 से 40 हजार रुपए का नुकसान हुआ है।

खानाबदोशों की दिक्कतें यहीं खत्म नहीं होतीं। भूमि और जल जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर बढ़ते दबाव के चलते भी उनका स्थायी निवासियों से संघर्ष हो रहा है। पशुओं को पानी पिलाने के लिए स्थानीय जल स्रोत पर लेकर जाने पर टकराव के हालात पैदा हो रहे हैं। अगर पशु खेत में घुस जाएं तो बवाल और बढ़ जाता है। अख्तर बताते हैं “मैंने सांबा इसलिए छोड़ दिया क्योंकि वहां स्थानीय लोग पशुओं को तालाब का पानी नहीं पीने दे रहे थे।” वह अपना दर्द बताते हुए कहते हैं “ऐसे हालात में हम क्या करें? जानवरों को तो चारा चाहिए। हम जंगलों में भी नहीं जा सकते क्योंकि वह बाड़बंदी कर दी गई है और चारागाह कम होते जा रहे हैं।”

ऐसी हालात के मद्देनजर जम्मू एवं कश्मीर के खानाबदोश अपनी पैतृक विरासत छोड़ने को मजबूर हैं।

बकरवाल समुदाय की लंबी पदयात्रा आधुनिक समय में भी खत्म होने की उम्मीद नहीं है। एक जगह बसने के विचार से अख्तर सोच में पड़ जाते हैं। उनका कहना है “हम पशुओं पर निर्भर हैं, साथ ही साथ हम थोड़ी बहुत खेती भी करते हैं। जमीन से छोटे टुकडे से हमारा गुजारा नहीं होगा। लेकिन जब उन्हें वनाधिकार कानून के तहत 4 हेक्टेयर तक जमीन के प्रावधान के साथ स्कूल और अस्पताल जैसी सुविधाओं के बारे में पता चला तो उनकी आंखें उम्मीद से चमक उठीं।

सूरी के मुताबिक, खानाबदोश समुदाय को तब तक नहीं उबारा जा सकता जब तक उन्हें बसाकर शिक्षा नहीं दी जाती। उनका कहना है “गुज्जरों ने काफी सुधार कर लिया है क्योंकि उनके पास जमीन है और वे स्थायी रूप से बसकर शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। राज्य की प्रशासनिक सेवाओं में गुज्जर मिल जाएंगे लेकिन बकरवाल नहीं।”

सरकार ने खानाबदोशों के लिए मोबाइल स्कूल कार्यक्रम शुरू किया था। इसके पीछे विचार था कि समुदाय से एक शिक्षक नियुक्त जाए जो उनके प्रवास के दौरान साथ रहे। सूरी के अनुसार, “आतंकवाद और भ्रष्टाचार ने इस कार्यक्रम की हत्या कर दी। इसे फिर से जीवित करने की जरूरत है।”

ऐसा नहीं है कि खानाबदोश समुदाय के युवा अपने परंपरागत व्यवसाय को छोड़ना नहीं चाहते लेकिन उनके साथ कोई दूसरा रास्ता नहीं है। अपनी 100 भेड़ों के झुंड के सामने खड़े 18 वर्षीय यूसुफ चौधरी बताते हैं “मैं भेड़ों को चराना छोड़ दूं तो मुझे कौन नौकरी देगा? मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूं और जानवरों के अलावा मुझे किसी चीज की जानकारी भी नहीं है। ऐसे में जिंदगी कैसे कटेगी?”

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