विफल संरचनाओं का जीवंत नमूना

अकाल से निपटने के लिए अनाजों के भंडारण के उद्देश्य से बनवाया गया गोलघर एक ऐतिहासिक धरोहर बनकर रह गया है
पटना स्थित ऐतिहासिक धरोहर गोलघर की दीवार में दरार आने बाद से जारी है मरम्मत का कार्य  (सचिन कुमार)
पटना स्थित ऐतिहासिक धरोहर गोलघर की दीवार में दरार आने बाद से जारी है मरम्मत का कार्य (सचिन कुमार)
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लंबे अरसे के बाद पटना स्थित गोलघर एक बार फिर पर्यटकों को लुभाने के लिए तैयार है। दरअसल वर्ष 2010 में गोलघर की दीवार में दरारें पड़ गईं थीं, जिसके बाद से इसे पर्यटकों के लिए बंद कर दिया गया था। इसके बाद इसकी मरम्मत का काम शुरू हुआ, जो अब पूरा होने की स्थिति में है।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन संरक्षित धरोहर और बिहार के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक गोलघर का निर्माण अंग्रेजों ने सूखे और अकाल की समस्या से निपटने के लिए करवाया था। वर्तमान में जब देश में भंडारण की कमी की वजह से हर साल उत्पादन का लगभग एक तिहाई अनाज, फल और सब्जियां या तो सड़ जाते हैं, या चूहों आदि जीवों की भेंट चढ़ जाते हैं। ऐसे में खाद्यान्नों के उत्पादन में आत्मनिर्भर होने के बाद भी देश में एक बड़ी आबादी भूखे पेट सोने को मजबूर है। हाल के दिनों में मानसून की अनियमितता ने इस संकट को और बढ़ा दिया है। ऐसे में गोलघर को देखकर लगता है कि ऐसी मजबूत और सुरक्षित संरचना देश की भंडारण जरूरतों को पूरा कर सकती है। लेकिन वास्तव में गोलघर को एक विफल संरचना के तौर पर जाना जाता है। क्या वजह थी कि गोलघर का निर्माण जिस मकसद से किया गया था, वह उसमें कामयाब नहीं हो पाया?

1770 के दशक में बंगाल प्रांत में अकाल पड़ा जिसे ‘द ग्रेट बंगाल फेमीन’ के नाम से भी जाना जाता है। इस अकाल में लगभग एक करोड़ लोगों की जान चली गई थी। उस समय बंगाल प्रांत में वर्तमान बिहार और ओडिशा भी शामिल थे। उस वक्त ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स थे। वारेन हेस्टिंग्स के 1772 की रिपोर्ट के अनुसार, उस वक्त अकाल प्रभावित क्षेत्र में भुखमरी की वजह से करीब एक तिहाई आबादी काल के गाल में समा गई थे। इस अकाल के प्रमुख कारणों में 1769 में मानसून का नहीं आना था, जिसने प्रांत को सूखे की ओर धकेल दिया और जो चावल की दो फसलों के तबाह होने का भी कारण बना।

अकाल के इतना विनाशकारी होने की प्रमुख वजह थी ब्रिटिश काल के पहले अनाज संग्रहण व्यवस्था का अभाव। इस अवधि में लोग जितना उगाते थे उसका पूरा उपभोग कर लेते थे और भविष्य के लिए बचाकर रखने की प्रवृत्ति नहीं थी। किसी प्रकार की भंडारण संरचना के निर्माण पर उस समय के राजाओं या नवाबों ने ध्यान नहीं दिया। इस अकाल ने प्रांत के तत्कालीन गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स को सोचने पर मजबूर कर दिया कि कैसे भविष्य में इस प्रकार की विपदा से निपटा जा सकता है। वर्ष 1924 में प्रकाशित बिहार और ओडिशा डिस्ट्रिक्ट गजेटियर के अनुसार, जब जॉन शोरे जो उस समय बंगाल के राजस्व परिषद के सदस्य थे, 1783 ईसवीं में कलकत्ता से पटना लौटे, तो उन्हें इस समस्या से निपटने के लिए उपाय सुझाने को कहा गया। शोरे ने इसके लिए कई सुझाव दिए, जिनमें अनाजों के एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने पर लगने वाले कर को हटाना, दूसरे जिलों से पटना जिले में अनाजों को लाने-ले जाने पर लगी रोक को हटाना और पटना में अनाज के भंडारण के लिए बड़े गोदामों का निर्माण का प्रस्ताव शामिल था। शोरे ने अनाज गोदामों के निर्माण पर विशेष बल दिया ताकि इनमें अभाव के दिनों में इस्तेमाल के लिए अनाजों से भरकर रखा जा सके।



आर्किटेक्सचरेज डॉट नेट में प्रकाशित लेख ‘गोलघर ऐट बांकीपुर’ के अनुसार गोदाम के निर्माण का सीधे तौर पर फैसला लेने के बजाय 1740 ईसवीं में ईस्ट इंडिया कंपनी के अंदर सूखे और अकाल के बीच के संबंधों को लेकर चर्चाओं का लंबा दौर चला। इसलिए इस अवधारणा कि अनाज के गोदाम अकाल से लड़ने में सहायक साबित हो सकते हैं, का विरोध कई रसद व्यवस्थापकों ने किया। बाद में अकाल से सुरक्षा को लेकर शोध कर रहे अनुसंधानकर्ताओं ने यह दलील पेश की कि गोदाम और भंडार गृह इस प्रकार की तबाही से बचाव में शायद ही कारगर हो। साथ ही उन्होंने इस समस्या के समाधान के लिए अन्य प्रविधियों को ढूंढने की सलाह भी दी। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अन्य विकल्पों की तलाश जारी थी, जिसमें फसलों की सूखा-प्रतिरोधक प्रजाति विकसित करना शामिल था, जिससे मानसून के कमजोर रहने की सूरत में भी खाद्य अनाजों का उत्पादन प्रभावित न हो।

वारेन हेस्टिंग्स ने सभी तर्कों को दरकिनार करते हुए शोरे के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी और बंगाल प्रांत के तत्कालीन चीफ आर्किटेक्ट कैप्टन जॉन गार्सटिन को पूरे प्रांत में ऐसी संरचनाओं के निर्माण का आदेश दे दिया। गार्सटिन ने 1784 ईसवीं में पटना के बांकीपुर में गोदाम का निर्माण कार्य प्रारंभ कर दिया।

गोलघर की संरचना

कैप्टन गार्सटिन के दिमाग में गोदाम के आकार को लेकर कई विचार चल रहे थे। गार्सटिन बौद्ध स्तूपों से काफी प्रभावित थे, इसलिए उन्होंने गोदाम का आकार स्तूप की तरह बनाने का निर्णय लिया। स्तूप का आकार अमूमन अर्धगोलाकार अथवा मधुमक्खी के छत्ते के आकार का होता है। अर्धगोलाकार होने की वजह से इसका नाम गोलघर रखा गया। इस संरचना की खासियत यह थी कि इसमें एक भी पिलर का इस्तेमाल नहीं किया गया था। गोलघर की ऊंचाई 96 फीट और आधार से इसकी दीवारों की मोटाई 12 फीट रखी गई, ताकि भंडारित अनाज को किसी भी प्रकार की आर्द्रता से बचाया जा सके।

इसका व्यास 125 मीटर है। गोलघर में अनाज के भंडारण के लिए ऊपर से अनाज डालने की व्यवथा की गई थी। ऊपर तक पहुंचने के लिए 145 कदमों की सीढ़ियां बनाई गई थीं, जिससे मजदूर अनाज लेकर गोलघर के ऊपर तक पहुंच सकें और वहां बने छिद्र से अनाज को गोलघर के अंदर डाल सकें।

गोलघर में 1,40,000 टन अनाज का भंडारण किया जा सकता है। हालांकि इसके निर्माण के समय एक संरचनात्मक गलती की वजह से गोलघर को अनाज से पूरी तरह कभी भी नहीं भरा जा सका। दरअसल, अनाज डालने की व्यवस्था ऊपर की ओर से की गई थी और जरूरत पड़ने पर निकालने की व्यवस्था नीचे बने दरवाजे से। नीचे जो दरवाजा बनाया गया था, वह अंदर की तरफ खुलता था। गोलघर को अनाज से पूरी तरह से भर देने पर इस दरवाजे का खुलना नामुमकिन हो जाता।

जब इस गोदाम का निर्माण कार्य प्रगति पर था, उस समय भी इसकी व्यवहारिकता को लेकर बहस जारी थी। 1786 ईसवीं की शुरुआत में ईस्ट इंडिया कंपनी के कैप्टन रोबर्ट किड ने कलकत्ता में वानस्पतिक उद्यान बनाने की पुरजोर वकालत की। उनका तर्क था कि वानस्पतिक उद्यान में अनाजों की सूखा प्रतिरोधक प्रजातियों का विकास किया जा सकेगा, जो खाद्यान्न की कमी से निपटने का सबसे कारगर उपाय साबित होगा। गोलघर का निर्माण पूरा हो जाने के बाद भी कंपनी के लोग इसकी व्यवहारिकता पर सवाल उठते रहे। हालांकि बाद में अकाल राहत की ब्रिटिश नीति ने भी अकाल से निपटने के इस उपाय से मुंह मोड़ लिया और किड की मंशा के अनुरूप ही गोलघर एक धरोहर बनकर रह गया।

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