भारत की आपराधिक बर्बादी: मनरेगा के तहत एक करोड़ से अधिक का काम अधूरा

डाउन टू अर्थ का विश्लेषण यह सामने लाता है कि ज्यादातर कार्य उन राज्यों में अपूर्ण हैं, जिनके कई जिलों ने पिछले तीन साल के अंदर सूखा या सूखे जैसी स्थिति का सामना किया था
आफत से गुजर रहे लोगों को राहत दिलाने में यह कार्यक्रम अब भी सबसे ज्यादा कारगर है। Credit: Moyna/ CSE
आफत से गुजर रहे लोगों को राहत दिलाने में यह कार्यक्रम अब भी सबसे ज्यादा कारगर है। Credit: Moyna/ CSE
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महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) में काम पूरा करने की दर में पिछले साढ़े तीन वर्षों के अंदर भारी गिरावट आई है। इसके कारण एक तरफ सरकारी राशि बर्बाद हो रही है तो दूसरी ओर गांवों को सूखा प्रभावित होने के लिए छोड़ दिया गया है। योजना से लोगों की दूरी बनाने का एक कारण यह भी हो सकता है।

जब बारिश की कमी के कारण भारत के एक-तिहाई से अधिक जिले सूखे जैसी स्थिति से जूझ रहे थे, उसी समय एक और बुरी खबर आ गई। मनरेगा के तहत शुरू हुए काम, जिनमें से लगभग 80 फीसदी जल संरक्षण, सिंचाई और भूमि विकास से संबंधित थे, उन्हें अपूर्ण या आदतन छोड़ दिया जा रहा है।

मनरेगा की प्रगति का सूचना प्रबंधन प्रणाली (एमआईएस) के तहत सघन विश्लेषण पर तैयार आंकड़े को देखें तो अप्रैल 2014 से 1.4 करोड़ कार्य पूरे नहीं किए गए हैं। 12 अक्टूबर तक का यह आंकड़ा ग्रामीण विकास मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध है। पिछले साढ़े तीन वर्षों में 3.97 करोड़ काम इस योजना के तहत शुरू हुए थे। योजना के विश्लेषण से पता चलता है कि इनमें से लगभग 70 फीसदी काम जल संरक्षण, सिंचाई और भूमि विकास से संबंधित हैं। कार्यक्रम के तहत रोजगार सृजन और अन्य फायदों के सामने होने के बावजूद कार्य निष्पादन की दर काम के ढर्रे की ओर स्पष्ट इशारा कर रही है। यह कार्य खास तौर पर उन गांवों के लिए बेहद फायदेमंद हैं, जो सूखा झेलते हैं और पानी की कमी से जूझते हैं। इसका सीधा असर कृषि पर पड़ता।

अप्रैल 2014 से कार्य निष्पादन की दर में तेज गिरावट आई है। 2014-15 में, कार्य निष्पादन की दर (कार्यारंभ और कार्य समाप्ति पर आधारित) 97 प्रतिशत थी। वित्तीय वर्ष 2015-16 में यह गिरकर 71.24 प्रतिशत पर रह गई। 2016-17 में यह और गिरते हुए 41 प्रतिशत पर रह गई। चालू वित्तीय वर्ष में 12 अक्टूबर तक कार्य निष्पादन की दर महज आठ प्रतिशत के खतरनाक स्तर पर है।

डाउन टू अर्थ का विश्लेषण यह सामने लाता है कि ज्यादातर कार्य उन राज्यों में अपूर्ण हैं, जिनके कई जिलों ने पिछले तीन साल के अंदर सूखा या सूखे जैसी स्थिति का सामना किया या फिलहाल ऐसी स्थिति से जूझ रहे हैं। इनमें महाराष्ट्र भी एक उदाहरण है, जो गंभीर सूखे और इसकी वजह से किसानों की आत्महत्या के कारण इस वर्ष समेत पिछले कुछ वर्षों से खबरों में हैं। पिछले साढ़े तीन वर्षों में इस राज्य में 13 लाख कार्यों की शरुआत हुई, जिनमें 80 प्रतिशत जल संरक्षण और सिंचाई से संबंधित हैं। लेकिन, 40 प्रतिशत कार्य पूरे नहीं किए गए। देश के कुल 235 जिले बारिश में 20 से 50 फीसदी तक गिरावट के कारण सूखे जैसी स्थिति से जूझ रहे हैं। यहां पिछले साढ़े तीन वर्षों में 90 फीसदी से ज्यादा कार्य पूरे नहीं किए गए हैं।

वर्ष 2007 में सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायरमेंट (सीएसई) ने ज्यादा से ज्यादा काम शुरू करने और उन्हें पूरा नहीं करने के चलन को सबसे पहले सामने लाया था। सीएसई की ओर से अखिल भारतीय स्तर पर हुए इस सर्वे ने सामने लाया था कि कार्य पूरा नहीं किए जाने के कारण लोग इस योजना में दैनिक मजदूरी के नजरिए से भी लाभ नहीं ढूंढ़ सके। दूरगामी फायदे के मद्देनजर इस योजना के तहत गांवों में स्थानीय पारिस्थितिकी का पुनरुत्थान एक मूल उद्देश्य था। उदाहरण के लिए, योजना के तहत कम-से-कम चार हेक्टेयर के भूभाग में जल संचय संरचना का निर्माण किया गया। यह लोगों को कार्यक्रम से जोड़ने पर केंद्रित है। इसके अलावा, इस कार्यक्रम के तहत गरीबी रेखा से नीचे के अनुसूचित जाति-जनजाति श्रेणी के लोग अपनी निजी भूमि पर भी काम कर सकते हैं। यही एक बड़ा कारण है, जिससे इस श्रेणी की एक बड़ी आबादी की इस योजना में भागीदारी रही।

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन इस योजना के विरोध में रहा है। मई 2014 में सत्ता संभालने के तुरंत बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे सरकारी धन की बर्बादी और गैर उत्पादक बताते हुए खारिज कर दिया था। लेकिन, फिर दो साल के अंदर मन के साथ मनरेगा बदला और कम-से-कम इसका परित्याग नहीं किया गया। लेकिन, साथ ही यह साफ-साफ दिख रहा है कि योजना को वैसा राजनीतिक समर्थन नहीं मिल रहा, जैसा इसे लाने वाली पिछली सरकार के दौरान दिखता था।

दरअसल, यह एक बड़ी सच्चाई है कि मनरेगा एकमात्र ऐसी योजना है, जो लोगों को बेकारी के समय में रोजगार के जरिए आय से उन्हें राहत देती है। कार्य निष्पादन की गिरती दर संकेत के साथ-साथ चेतावनी भी कि योजना किस ओर जा रही है। पहली बात यह कि, पिछले तीन साल में सूखे से प्रभावित क्षेत्रों में राहत देने के लिए इस योजना के तहत काम शुरू कराया है। यह दिखाता है कि आफत से गुजर रहे लोगों को राहत दिलाने में यह कार्यक्रम अब भी सबसे ज्यादा कारगर है। दूसरी बात यह कि अगर यह काम पूरे नहीं किए जाते हैं तो सूखा से बचाव का दूरगामी उद्देश्य पिछड़ जाएगा। परेशान ग्रामीण आबादी को मजदूरी के जरिए न्यूनतम आय उपलब्ध कराने की जरूरत के मद्देनजर सरकार को कुछ काम जारी रखना है। लेकिन, मजदूरी के भुगतान में देरी और मानसून की लुकाछिपी में सिंचाई व कृषि सुरक्षा सुनिश्चित करने वाले उत्पादक उपक्रम तैयार किए बगैर लोगों को इसका फायदा नहीं नजर आएगा। शहरी क्षेत्र में मजदूरी मनरेगा के तहत उपलब्ध दर से अधिक है। क्या समझें कि पूर्ण कार्यों की संख्या में भारी गिरावट क्या यह इशारा कर रहा है कि लोग पहले ही इस योजना का परित्याग कर रहे हैं, इससे दूर जा रहे हैं। पंचायत खुली है।   

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