नारी की लाचारी

ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं नहाने का स्थान न होने के कारण प्रताड़ित होती रहती हैं। क्या स्वच्छ भारत अभियान इस मुद्दे का समाधान पेश करता है?
महिलाओं के पास कोई विकल्प नहीं होता, इसलिए उन्हें नजदीकी तालाब, कुएं, नलकूपों और नदियों में पूरे कपड़े पहनकर नहाना पड़ता है (विकास चौधरी)
महिलाओं के पास कोई विकल्प नहीं होता, इसलिए उन्हें नजदीकी तालाब, कुएं, नलकूपों और नदियों में पूरे कपड़े पहनकर नहाना पड़ता है (विकास चौधरी)
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सामाजिक नियम निर्धारित करते हैं कि एक महिला अपने उचित व्यवहार से अपने शील की रक्षा करे। ऐसे नियम भारत में सख्ती से निभाए जाते हैं लेकिन भारत के कई हिस्सों में महिलाएं खुले में स्नान करने को मजबूर हैं। यह शर्मनाक है कि ग्रामीण महिलाओं के लिए सुरक्षित और निजी स्नान की व्यवस्था अधिकांश हिस्सों में नहीं है।

2011 की जनगणना के अनुसार, 55 प्रतिशत ग्रामीण घरों में नहाने के लिए ढंका हुआ स्थान नहीं है, भारत के गरीब स्थानों में यह आंकड़ा बढ़कर 95 प्रतिशत हो जाता है। महिलाओं के पास भी कोई विकल्प नहीं होता, इसलिए उन्हें नजदीकी तालाब, कुएं, नलकूपों और नदियों में पूरे कपड़े पहनकर नहाना पड़ता है। हाइजीन के अलावा उन्हें अपनी अस्मिता से भी समझौता करना पड़ता है। जिस पानी में वे नहाती हैं, वह बर्तनों, कपड़ों और यहां तक कि मासिक धर्म के कपड़ों को धोने में इस्तेमाल किया जाता है। इस पानी से कई तरह का संक्रमण हो सकता है। समस्या उस वक्त और गंभीर हो जाती है जब पानी का संकट हो और कई समुदाय और जातियां साथ रहती हों। कई बार दूर से पानी लाने में स्वच्छता और हाइजीन की अनदेखी हो जाती है।

इस समस्या की जांच के लिए सितंबर 2016 से सितंबर 2017 के बीच झारखंड, बिहार, ओडिशा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के साथ समूह चर्चाएं और साक्षात्कार आयोजित किए गए। बिहार के गया में किए गए अध्ययन में यह बात सामने आई कि अधिकांश प्रतिभागियों को नहाने का निजी स्थान उपलब्ध न होने के कारण परेशानियां होती हैं। हालांकि उच्च जाति के परिवारों की महिलाओं के लिए घुसलखाने हैं लेकिन साक्षात्कार के लिए वे तैयार नहीं हुईं। निचली जाति की महिलाएं आमतौर पर या तो खुले में स्नान करती हैं या घर अथवा घर के पीछे साड़ी या प्लास्टिक को छोटे से दायरे में बांध दिया जाता है।

कुल 55 महिलाओं से बात की गई जिनमें से 53 के पास अस्थायी इंतजाम थे। उन्हें घर में उस वक्त नहाना पड़ता था जब घर में कोई पुरुष मौजूद न हो। बाकी महिलाएं तालाब या नलकूप के पास नहाती हैं। लगभग सभी गांवों में महिलाओं के लिए नहाने का अलग स्नान होता है जहां पुरूषों के जाने में मनाही है। हालांकि कुछ समुदायों में ऐसा भी नहीं है जिससे महिलाओं को छींटाकशी और भद्दी टिप्पणियों का सामना करना पड़ता है। महिलाएं उस वक्त भी असहज महसूस करती हैं जब वे गीले कपड़े पहनकर घर लौटती हैं। वे अपने निजी अंगों को भी ठीक से साफ नहीं कर पातीं जिससे त्वचा के संक्रमण का खतरा रहता है। मासिक धर्म में स्वच्छता अभ्यास के बारे में बात करने पर 49 प्रतिशत ने अनिच्छा से बताया कि उन्हें खराब कपड़ों को बदलने के लिए उस वक्त का इंतजार करना पड़ता है जब आसपास कोई न हो।

इससे कल्पना की जा सकती है कि कैसे महिलाओं के लिए रोज का काम दुश्वार हो जाता है। 63 प्रतिशत स्वीकार करती हैं कि वे मासिक धर्म के कपड़ों को वहां धोती हैं जहां उन्हें नहाना पड़ता है। इस्तेमाल किए गए सैनिटरी नैपकिन भी उन्हें इसी स्थान पर फेंकने पड़ते हैं। जब स्त्री रोगों के संबंध में बात की गई तो अधिकांश प्रतिभागियों ने पीठ दर्द, पेट के निचले हिस्से में दर्द और योनि से स्राव की बात की। गया में शेरघाटी खंड के कूसा गांव की मध्यम आयु वर्ग की महिलाओं ने बताया, “हमें यह जानकारी है रोज स्नान न करने से संक्रमण हो सकता है। नलकूप के पास पूरे कपड़े पहनकर नहाने से हम खुद को ठीक से साफ नहीं कर पातीं। लेकिन हमारे पास विकल्प ही क्या है? हमारे पास इतना समय और धन नहीं है कि घुसलखाने बनवा सकें। जब आपके पास खाने के लिए इतने सारे मुंह हों तो आप उन्हें प्राथमिकता देते हैं, घुसलखाने बनवाने को नहीं।”  

समस्या पर किसी का ध्यान नहीं गया, झारखंड, ओडिशा और राजस्थान के गांव में किया गया हमारा शोध बताता है कि नहाने के स्थान की गैरमौजूदगी के कारण जो समझौते और कठिन श्रम ग्रामीण महिलाओं को करने पड़ते हैं वे हमारी उम्मीद से भी गंभीर हैं। असहज और असुरक्षित होने के बावजूद ये महिलाएं शिकायत नहीं करतीं और न ही वे स्वास्थ्य के प्रति उन खतरों से अवगत हैं जो खुले में नहाने से हो सकते हैं। उनके लिए स्नान सालों पुराना अभ्यास जो खुले में ही हो रहा है। यह विडंबना ही है कि इस मुद्दे पर उस वक्त भी जनसमूहों के बीच बातचीत नहीं हो रही है जब शौचालयों पर होने वाली बातचीत चरम पर है। क्या इसकी वजह यह है कि महिलाएं इसे अपनी नियति मानकर चुपचाप बर्दाश्त कर रही हैं। या इसकी वजह संसाधनों तक उनकी सीमित पहुंच है।

घर के सभी कामों को करने के साथ पंपों या अन्य स्रोतों से पानी लाने के लिए किया जाने वाला शारीरिक दबाव और मानसिक कष्ट, सीमित पानी से हाइजीन को बरकरार रखना उनके स्वास्थ्य और जीवन के लिए खतरा है। विकासवादी कार्यकर्ता मानते हैं कि स्वच्छता से महिलाओं का संघर्ष पानी की कमी के कारण है। नीतियों में स्नानघरों का निर्माण अभी दूर की कौड़ी है। इसके लिए जरूरी है कि सभी ग्रामीण घरों में पानी उपलब्ध हो। अतीत का साहित्य और शोध बताता है कि पानी तक पहुंच, शौचालय और स्नानगार की सुविधा का महिलाओं की भलाई से सीधा संबंध है। इसमें यह भी कहा गया है कि नहाने के स्थान तक सीमित पहुंच और पानी की कमी के मुद्दे पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है। ऐसे समय में जब स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय बनाने का काम जोरों पर है, यही समय है जब सुरक्षित स्नानघर और पानी की समुचित व्यवस्था को इस कार्यक्रम में शामिल करने के रास्ते तलाशे जाएं।

(लेखिकाएं टाटा ट्रस्ट के विकासान्वेष फाउंडेशन में जूनियर रिसर्च फेलो हैं)

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