छह राष्ट्रीय परियोजनाओं की लागत में 28 गुणा वृद्धि

छह योजनाओं की मूल लागत 3,530 करोड़ रुपए थी लेकिन अब इसकी लागत बढ़कर 86172.23 करोड़ रुपए हो गई है। यह निष्कर्ष कैग ने अपनी रिपोर्ट में निकाले हैं।
छह राष्ट्रीय परियोजनाओं की लागत में 28 गुणा वृद्धि
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केंद्रीय जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय की 16 राष्ट्रीय परियोजनाओं में से छह में देरी और सही समय पर क्रियान्वयन नहीं होने के कारण इसकी लागत में लगभग 28 गुणा वृद्धि हुई है। छह योजनाओं की मूल लागत 3,530 करोड़ रुपए थी लेकिन अब इसकी लागत बढ़कर 86172.23 करोड़ रुपए हो गई है। यह निष्कर्ष भारत के नियंत्रक व महालेखा परीक्षक (कैग) ने अपनी 2017 की रिपोर्ट में निकाले हैं। कैग की टिप्पणी है कि फरवरी, 2008 में केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय परियोजनाओं की एक योजना को मंजूरी दी जिसके अंतर्गत 16 प्रमुख जल संसाधन विकास एवं सिंचाई परियोजनाओं की पहचान की गई। ये सभी योजनाएं शीघ्र सिंचाई लाभ कार्यक्रम के अंर्तगत तैयार की गईं थीं। लेकिन बाद में भूमि अधिग्रहण, राज्यों के बीच समन्वयन की कमी, वित्तीय बाधाएं, पुनर्वास संबंधी कठिनाइयों के कारण इन परियोजनाओं का कार्य शिथिल पड़ गया। इन योजनाओं के खराब क्रियान्वयन होने के कारण राष्ट्रहित प्रभावित हुआ। कैग ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि कायदे से राज्य व केंद्र सरकार पर इन परियोजनाओं का सही समन्वयन व कार्यों का सही समय पर खत्म करने की जिम्मेदारी थी। लेकिन वह इस जिम्मेदारी से कोसों दूर थे। कैग ने पाया कि छह योजनाओं पर मार्च, 2017 तक 13299.12 करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद ये योजनाएं अपने मूल उद्देश्य से कोसों दूर हैं। यही नहीं 2010 में कैग ने इन 16 परियोजनाओं में से 6 योजनाओं में डीपीआर (डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट) में विलंब पाया। 

रिपोर्ट में कहा गया है कि परियोजनाओं के विभिन्न घटकों में कार्य पूरा नहीं होने के कारण 16 राष्ट्रीय योजनाओं से 25.10 लाख हेक्टेयर भूमि सिंचित करने का लक्ष्य था लेकिन पांच योजनाओं का लक्ष्य था 14.53  लाख हेक्टेयर लेकिन आधे-अधूरे क्रियान्वयन होने से अब तक केवल 5.36 लाख हेक्टेयर भूमि ही सिंचित हो पा रही है। 2,341 प्रतिशत की कुल लागत वृद्धि ने योजनाओं की व्यवहारिता पर ही संकट खड़ा कर दिया। रिपोर्ट में कहा गया है कि योजनाओं के सुस्त क्रियान्वयन, प्रबंधन की विफलता, सर्वेंक्षण व जांच में दूरी, परियोजना स्थलों की मंजूरी व भूमि अधिग्रहण में प्रशासनिक अक्षमता ने योजनाओं के विलंब होने के प्रमुख घटक हैं। यही नहीं योजनाओं से विस्थापितों के पुनर्वास व पुनर्वास्थापन सही ढंग से नहीं करने व विस्थापितों को सही मुआवजा नहीं देने के कारण योजनाओं में बाधाएं उत्पन्न हुईं। क्रियान्वयन के तहत पांच योजनाओं के कमांड एरिया विकास कार्यों के लिए कोई भी प्रस्ताव केंद्रीय जल आयोग मार्च, 2017 तक नहीं भेजा गया।    

कैग ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि 16 में से 6 क्रियान्वयन होने वाली योजनाओं का सर्वेक्षण अपूर्ण व इनकी डीपीआर रिपोर्ट में विलंब ऐसे प्रमुख घटक हैं जिनके कारण योजनाओं की लागत में वृद्धि हुई। इसके कारण योजनाओं में 17 से 65 महीने तक विलंब हुआ। 

कैंग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि है कि नदी मार्ग एवं उसके पारिस्थितिक तंत्र में समय के साथ क्रमिक बदलाव आते हैं और परियोजना के सही क्रियान्वयन के लिए सही नियोजन व सही सर्वेक्षण की जरूरत पड़ती है। लेकिन हमने अपनी जांच में पाया कि 16 परियोजनाओं में से केवल चार में सर्वेक्षण व नियोजन रिपोर्ट का प्रयोग किया गया। यही नहीं इसमें कीमतों के स्तरों का भी गलत प्रयोग किया। इसमें तीन से चार वर्ष पुरानी कीमतों को जोड़ गया। इससे स्पष्ट होता है कि जब केंद्रीय जल आयोग की प्रस्तुति के समय आंकड़े पुराने थे।

इस संबंध में रिपोर्ट में कहा गया है कि हालांकि संबंधित मंत्रालय ने जनवरी, 2018 में यह सफाई दी है उसने यह आंकड़े पुराने क्यों प्रयुक्त किए हैं लेकिन इसके बावजूद इससे इस बात का औचित्य सिद्ध नहीं होता है कि केंद्रीय जल आयोग अपने प्रस्तावों में पुराने आंकड़े प्रस्तुत करे। वास्वत में परियोजनाओं के मूल्यांकन की प्रक्रिया संबंधी दिशानिर्देश का पालन नहीं किया गया।

कैग ने कहा, आंध्र प्रदेश स्थित इंदिरा सांगर पोलावरम परियोजना में जल के पूर्ण पूर्ति स्तर (एफएसएल) को कम करना था लेकिन इसका स्थानीय जनता द्वारा सिंचाई क्षमता प्रभावित किए जाने के कारण विरोध किया गया। इसके कारण था जलाशय के चारों ओर अलग से चैनलों का निर्माण करना। यह वास्तव में कार्यों का दोहराव था। इसी प्रकार इस संबंध में जनवरी, 2018 में मंत्रालय ने यह तर्क दिया कि जलाशय की नहर की लंबाई में परिवर्तन, कुल नहर लंबाई की तुलना निरर्थक थी लेकिन कैग का कहना था कि वास्तव में यह सही सर्वेंक्षण की ओर इंगित करता है।

अंत में कैग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि केंद्रीय जल आयोग द्वारा परियोजनाओं के अनुमोदन के लिए निर्धारित समय सीमा का पालन नहीं किया गया। इसके अलावा अनावश्यक सर्वेक्षण, पुराने मूल्य स्तर को अपनाना आदि ऐसे घटक थे जिससे योजनाओं की लागत में बहुत अधिक वृद्धि हुई। 

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