क्यों उद्वेलित हो रहे हैं दलित?

नए-नए युवा चेहरे दलित आंदोलन में उभरकर आ रहे हैं लेकिन तमाम आंदोलनों में प्राकृतिक संसाधनों पर दलितों के स्वामित्व का पक्ष नजरअंदाज है।
रॉयटर्स
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हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद, अन्याय, उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ शुरू हुआ दलितों के मुखर होने का सिलसिला अब तक जारी है। हैदराबाद में सुलगी चिंगारी गुजरात, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में देखते ही देखते फैल गई। नए-नए युवा चेहरे दलित आंदोलन में उभरकर आ रहे हैं लेकिन तमाम आंदोलनों में प्राकृतिक संसाधनों पर स्वामित्व का पक्ष नजरअंदाज है। केवल आरक्षण और अस्मिता पर ही सभी आंदोलन केंद्रित हैं। दलितों के उद्वेलित होने के कारणों, उनकी समस्याओं के समाधान और संसाधनों पर स्वामित्व के मुद्दे पर भागीरथ ने स्थानीय प्रतिनिधियों से बात की

दलितों के सड़कों पर आने की बड़ी वजह यह है कि कोई उनकी बात नहीं सुनता और उन्हें न्याय नहीं मिलता। उनके साथ वादे तो बड़े-बड़े किए गए थे लेकिन उनके हित में कोई काम नहीं किया गया। जिन दलितों के काम नहीं बनते वे विरोध और आंदोलन नहीं तो और क्या करेंगे? अपनी नाराजगी जाहिर करने का यही तो तरीका होता है। संविधान ने सभी नागरिकों को बराबर माना है लेकिन समाज में आज भी दलितों को बराबरी का दर्जा नहीं मिला है। वे पिछड़े और जागृत नहीं थे।

लेकिन अब वे धीरे-धीरे जाग रहे हैं। उनके साथ भेदभाव खत्म करने के लिए ही आरक्षण का लाभ दिया गया था लेकिन कुछ लोग इसका भी विरोध करने लगे हैं। अब तो ऊंची जाति के लोग भी नौकरी के लिए आरक्षण की मांग करने लगे हैं। मुझे लगता है कि दलितों को 50 प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए क्योंकि अब भी उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति बहुत खराब है। दलित परिवार अपने बच्चों को दिहाड़ी मजदूरी करके सरकारी स्कूलों में पढ़ा रहा है लेकिन ऊंची जातियों और पैसों वालों के बच्चे महंगे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे हैं। जाहिर है वे दलित बच्चों से बेहतर नंबर लाएंगे।

दलित बच्चे उनकी बराबरी कहां से कर पाएंगे? इसलिए जरूरी है कि आरक्षण मिले। उन लोगों के पास जमीनें भी बहुत कम हैं या नहीं के बराबर हैं। अगड़ी जाति के लोगों ने उनकी जमीनें हड़प ली हैं। सरकार के पास भी उन्हें जमीन देने की क्षमता नहीं है। इसलिए कम से कम नौकरी तो मिलनी चाहिए। नौकरियों पर खतरा मंडराता देख ही दलित आज सड़कों पर है। हमारा गांव दलित बाहुल्य हैं।

मेरे गांव की आबादी करीब 1,700 है। इनमें 1,035 मतदाता हैं। इनमें 800 दलित हैं। मेरे गांव में भी दलितों के पास जमीनें बहुत कम हैं लेकिन अच्छी बात यह है कि यहां जातीय भेदभाव नहीं है। गांव में सभी जातियों के लोग घुल मिलकर रहते हैं।

भारत में ऊंची जाति के लोगों ने दलितों को सदियों दबाकर रखा है। निजी संपत्ति से वंचित दलित रोजमर्रा की जरूरतों के लिए ऊंची जाति के लोगों पर निर्भर हो गए। मनुवादी व्यवस्था ने उन्हें भिखारी और दरिद्र बनाकर रखा। भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के अंत के बाद उनके भीतर उम्मीद की किरण फूटी। बेहतर और आत्मसम्मान से भरी जिंदगी के बारे में उन्होंने सोचना शुरू किया लेकिन यह अब तक सपना ही है।

आजाद भारत में कांग्रेस नेताओं द्वारा दिया गया तथाकथित स्वराज और स्वाधीन भारत का नारा भी यह सुनिश्चित करने में असफल रहा। दलित समुदाय की सामाजिक सुरक्षा और अस्मिता आज भी यक्ष प्रश्न हैं। यही कारण हैं कि दलित असुरक्षित महसूस कर रहे हैं और असुरक्षा का यह भाव आज देशव्यापी प्रदर्शनों के रूप में दिखाई दे रहा है। आज भी दलित सबसे पिछड़े समुदाय में शामिल हैं। शैक्षणिक रूप से भी वे सबसे अधिक वंचित हैं। आर्थिक और सामाजिक रूप से सदियों तक असमानता झेलते आए दलितों को समाज में सम्मानजनक स्थान पर पहुंचाना आसान काम नहीं है।

इनके उत्थान के लिए जरूरी है कि पर्याप्त संसाधन और सामाजिक सुरक्षा दी जाए अन्यथा वे समाज के प्रभावशाली वर्ग की दया पर ही निर्भर रहेंगे। किसी समाज के विकास और उन्नति के लिए शिक्षा सबसे जरूरी है। दूसरे तबके से मुकाबला करने के लिए जरूरी है कि दलित बच्चों को शिक्षा के तमाम अवसर मुहैया कराए जाएं। हालांकि आजादी के बाद छुआछूत से राहत मिली है। आरक्षण के लिए किए गए सांवैधानिक प्रावधान से भी कुछ हद से मदद मिली लेकिन पूरे दलित समाज को लाभ नहीं मिला, संसाधनों के स्वामित्व पर असर नहीं पड़ा। यानी संसाधनों का वितरण अपरिवर्तित ही रहा।

अब भी उनका संघर्ष मूलभूत जरूरतों और अस्मिता की लड़ाई के लिए ही चल रहा है।

‘नीति राजनीति’ में हम किसी स्थानीय समस्या को लेकर संबंधित क्षेत्र के ग्राम प्रतिनिधि/पार्षद और लोकसभा/राज्यसभा सदस्य से बातचीत करेंगे। यह किसी समस्या को स्था नीय प्रतिनिधियों के नजरिए से देखने का प्रयास है।

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