अमेरिकी दादागीरी से खतरे में डब्ल्यूटीओ

वाणिज्य मंत्री सुरेश प्रभु ने लौटकर प्रसन्नता व्यक्त की और कहा, यह पहली बार है कि भारत को दोषी नहीं ठहराया जा रहा है, हम निश्चित ही खलनायक बनकर नहीं लौटे हैं।
तारिक अजीज / सीएसई
तारिक अजीज / सीएसई
Published on

जब दो हाथी लड़ते हैं तो कुचली घास जाती है। यह अफ्रीकी कहावत डब्ल्यूटीओ (विश्व व्यापार संगठन) में चलने वाले मौजूदा खेल को बेहतर तरीके से बयान करती है। ब्यूनस आयर्स में हुआ 11वां मंत्रिस्तरीय सम्मेलन मुख्य मुद्दों और आंदोलनों के स्तर पर फ्लॉप शो था। हर कोई यही सवाल पूछ रहा है कि क्या यह सबसे बड़ी व्यापारिक शक्ति के साथ बहुपक्षीय व्यापार के लिए पर्देदारी है। अमेरिका ने अपने मूल उद्देश्य से ध्यान हटाने और नियमों को तोड़ने का डब्ल्यूटीओ पर आरोप लगाया है। अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि रॉबर्ट लायजर ने भी सम्मेलन के समाप्त होने से एक दिन पहले सम्मेलन छोड़कर संगठन के प्रति अमेरिका के नजरिए को स्पष्ट कर दिया था।

डब्ल्यूटीओ का दोहा विकास एजेंडा, बातचीत का वह दौर था जिसका उद्देश्य विकासशील देशों के लिए विश्व व्यापार की अपार संभावनाओं को खोलना था। इस दौर की आकस्मिक मौत का लंबे समय तक देश शोक मनाते रहे हैं। अब ऐसा प्रतीत होता है कि अमेरिका की मनमानी इस बार भी कामयाब हुई तो जल्द ही सभी सदस्य देश वर्तमान विश्व व्यापार संगठन की मौत का भी शोक मनाएंगे।

डब्ल्यूटीओ सर्वश्रेष्ठ व्यापारिक प्रणाली नहीं हैं लेकिन फिर भी विकासशील देशों के लिए, सबसे अहिंसक व्यापार समझौतों व बहिष्कारवादी बहुपक्षीय सौदों की दुनिया में, सबसे बेहतर विकल्प है। डब्ल्यूटीओ अब तक एक वैश्विक क्लब के रूप में कार्य कर रहा है जहां सदस्यों को उनकी हैसियत का अंदाजा है। ऐसी व्यवस्था है जो शक्तिशाली एवं अमीर देशों के पक्ष में है और इसके नियम बड़े खिलाडि़यों द्वारा बनाए जाते हैं। हालांकि सैद्धांतिक रूप से इसके सदस्य देशों के अधिकार समान है तथा वरीयता और विशेषाधिकार बहुत करीने से संहिताबद्ध हैं। चीन के इस संगठन में प्रवेश से पहले तक स्थापित नियमों एवं कायदों को कोई चुनौती नहीं मिल रही थी। जब चीन के निर्यात में कमी आने का कोई संकेत नहीं था और चीन के साथ अमेरिका का व्यापार घाटा 2016 में 22,555 अरब रुपए पहुंच गया, उसके बाद डब्ल्यूटीओ खलनायक के रूप  में उभरा।

चीन के विरुद्ध अमेरिका का व्यापार युद्ध जो बराक ओबामा के समय से चला आ रहा है, डोनल्ड ट्रंप के शासन में भी जारी है। नई बात यह है कि ट्रम्प के शासन काल में “अमेरिका प्रथम नीति” के तहत उसने अपने को और सख्त कर लिया है। अमेरिकी राष्ट्रपति का मानना है कि डब्ल्यूटीओ के पक्षपातपूर्ण व्यापार नियम उनके देश के व्यापार घाटे तथा घटते रोजगारों के लिए जिम्मेदार है। ओबामा की तरह ट्रम्प के लिए भी असली फोकस चीन है जिसने अमेरिका के लंबे समय से चले आ रहे व्यापारिक वर्चस्व को चुनौती दी है। अमेरिका चाहता है चीन द्वारा दी जा रही सब्सिडी की जांच हो। उसका मानना है कि डब्ल्यूटीओ इस काम को नहीं कर रहा है।  

हाल के महीनों में राष्ट्रपति ट्रंप ने डब्ल्यूटीओ के सात सदस्यीय अपील निकाय के कई न्यायाधीशों की नियुक्ति को बाधित कर, इसके विवाद निपटान प्रणाली को पंगु बनाकर रखा है। इससे विवादों को निपटाने में लंबी देरी हो रही है। विश्लेषकों को शंका है कि अमेरिका द्वारा इस रणनीति का प्रयोग अपने व्यापार भागीदारों के विरुद्ध किसी भी एकतरफा कार्यवाही को औचित्य प्रदान करने के लिए किया जा सकता है। बहुपक्षीय व्यवस्था के पक्षधरों ने विवाद निपटान प्रक्रिया को संभावित व्यापार युद्धों को रोकने के लिए महत्वपूर्ण माना है।

अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि रॉबर्ट लायजर ने ब्यूनस आयर्स की बैठक में दो प्रमुख मुद्दों को रेखांकित किया था। पहला, उनका मानना था कि डब्ल्यूटीओ बातचीत पर प्रमुख रूप से केन्द्रित रहने का उद्देश्य खो रहा है तथा अब वह अधिक से अधिक मुकदमेबाजी का केन्द्र बनता जा रहा है। प्रायः सदस्यों को लगता है कि वे जो बातचीत के जरिए हासिल नहीं कर सकते हैं वो रियायतें वे मुकदमों के जरिये हासिल कर सकते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि अधिसूचना एवं पारदर्शिता के मामले में कई सदस्यों की खराब भूमिका को सही करने की आवश्यकता है और ये अधिक से अधिक बाजार प्रणाली में निपुणता हासिल करने के लिए जरूरी है।

ये दोनों ही बातें चीन द्वारा अपने सरकारी उद्यमों को दी जा रही सब्सिडी को निशाने पर रखकर कही गई थीं। कहा जा सकता है कि उल्टा चोर कोतवाल को डांटे। दरअसल अमेरिका है जो बार-बार निर्णयों को लागू करने की प्रक्रिया में बाधा डाल रहा है और व्यापार नियमों का उल्लंघन कर रहा है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण कपास उत्पादन सब्सिडी का मामला है जहां वह ब्राजील से हार गया। 2005 में विश्व व्यापार संगठन के अपील निकाय ने अमेरिका को कपास सब्सिडी खत्म करने का आदेश दिया था। जिसकी वजह से कपास की कीमतों में दुनियाभर में कमी आई थी। चार अत्यंत गरीब अफ्रीकी देशों की अर्थव्यवस्थाएं अमेरिकी सब्सिडी की वजह से बर्बाद हो गईं थीं। लेकिन धन के अभाव में यह गरीब देश अपने मामले को विश्व व्यापार संगठन में नहीं ले जा सके थे। ऐसे में अमेरिका ने सब्सिडी को कम करने के बजाय अपील निकाय के निर्णय से अपने को बचाने के लिए ब्राजील को सालाना 1.55 अरब रुपए तथा एकमुश्त 1.92 अरब रुपए देने का समझौता कर लिया। इसलिए लायजर द्वारा यह दावा सरासर गलत है कि अमेरिका ऐसी हालत बनाए नहीं रख सकता जहां नए नियम केवल कुछ देशों पर ही लागू हों।

हालांकि कपास का यह मामला विवाद निपटान निकाय की सीमाओं को उजागर करता है लेकिन वहीं अधिकांश सदस्यों का मानना है कि इसका दूसरा कोई विकल्प भी नहीं है। 11 दिसंबर को 44 विकासशील एवं विकसित सदस्य देशों के मंत्रियों ने बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली के समर्थन में एक संयुक्त बयान जारी किया था, जिसमें विवाद निपटान निकाय की भूमिका की प्रशंसा की। साथ ही निकाय के सभी पदों को भरने का संकल्प लिया था। अजीब बात यह है कि इस अपील का कोई हस्ताक्षरकर्ता नहीं है।

अमेरिका के विपरीत यूरोपीय संघ डबल्यूटीओ के पुरजोर समर्थन में है। व्यापार आयुक्त सीसिलया मालस्ट्रोम का कहना है “यूरोपीय संघ के लिए नियमों के आधार पर बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली को संरक्षित तथा मजबूत करना हमारा स्पष्ट उद्देश्य है”, लेकिन चीन ने इस दावे पर प्रश्न चिन्ह लगाया है। चीन ने यूरोपीय संघ के विरुद्ध एक केस दायर किया है (जिसमें अमेरिका ने भी अपने को एक पक्ष बनाया है) जिसमें यूरोपीय संघ द्वारा चीन को “बाजार अर्थव्यवस्था” का दर्जा देने से इनकार किए जाने को चुनौती दी है। बाजार अर्थव्यवस्था का दर्जा मिलने पर डबल्यूटीओ के सभी सदस्य देशों को चुनौती दिए बिना चीनी उत्पादों को अंकित कीमतों पर ही लेना होगा, जैसा वे अभी तक नहीं कर रहे थे।

रॉयटर ने चीन के डब्ल्यूटीओ के राजदूत झांग शिमांगचेन द्वारा 15 दिसंबर को विश्व व्यापार संगठन की सुनवाई को उद्धृत करते हुए कहा है, “चीन डब्ल्यूटीओ में  इस विश्वास के साथ शामिल हुआ था कि यह संगठन नियम पर गैर भेदभावपूर्ण तथा मुक्त व्यापार को बढ़ावा देने वाला होगा। लेकिन यूरोपीय संघ के उपाय इसके सब सिद्धांतों की अवहेलना कर रहे हैं। यह पूरी तरह से नियमों को ताक पर रखता है। यह भेदभावपूर्ण तथा संरक्षणकारी है।” जहां ब्यूनस आयर्स में व्यापारिक दिग्गज देश एक-दूसरे से भिड़ रहे थे, भारत क्यों किनारे खड़ा एक मूकदर्शक बना हुआ था? उसका एकमात्र उद्देश्य खाद्य सब्सिडी बिल का कोई स्थायी समाधान तलाशना था।

यह एक ऐसा चुनौतीपूर्ण मुद्दा था जिसने 2013 की बाली बैठक तथा 2015 की नैरोबी बैठक में विवादों को रखा था। एक बार फिर से इसे हल करने के प्रयास निष्फल होते दिखे, जब अमेरिका के प्रतिनिधि शेरॉन बॅामर ने दो टूक शब्दों में यह कह दिया कि उनका देश स्थायी समाधान में दिलचस्पी नहीं रखता है। भारत द्वारा जारी आधिकारिक वक्तव्य को मूक बना दिया गया। हालांकि भारत ने बिना नाम लिए अमेरिका को अपनी उस प्रतिबद्धता से पीछे हटने का दोषी ठहराया जिसमें उसने विश्व के निर्धनतम देशों में भूख की अत्यंत महत्वपूर्ण समस्या का समाधान सुझाने का वादा किया था।

फिर भी भारत वहां हुए उस अंतरिम समझौते से भी नाखुश नहीं है जो स्थायी समाधान खोजे जाने तक इन देशों को खाद्यान्न भंडारण की छूट प्रदान करता है। भारत सरकार को इस बात से ही राहत मिली है कि इस बार ब्यूनस आयर्स में वह आलोचना के केन्द्र में नहीं था। वाणिज्य मंत्री सुरेश प्रभु ने लौटकर प्रसन्नता व्यक्त की और कहा, “यह पहली बार है कि भारत को दोषी नहीं ठहराया जा रहा है, हम निश्चित ही खलनायक बनकर नहीं लौटे हैं।”

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in