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बार-बार विरोध-प्रदर्शन क्यों करते हैं युवा?

1 नवंबर 2025 को दुनिया भर में 35 सरकार-विरोधी प्रदर्शन दर्ज किए गए। इससे पहले के 12 महीनों में 70 देशों में कुल 128 सरकार-विरोधी आंदोलन हुए
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एशिया से लेकर अफ्रीका, यूरोप और अमेरिका तक, पूरी दुनिया में विरोध-प्रदर्शनों की लहरें उठ रही हैं। इन आंदोलनों में भाग लेने वाले ज्यादातर लोग युवा हैं, जबकि उनके मुद्दे अलग-अलग हैं- कहीं सत्ता परिवर्तन की मांग है तो कहीं बढ़ती महंगाई के खिलाफ आक्रोश।

बांग्लादेश में अगस्त के महीने में छात्रों ने राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव के लिए विरोध-प्रदर्शन किए, वहीं केन्या में “जेन जी” युवाओं के दबाव के कारण सरकार को नए कर प्रस्ताव वापस लेने पड़े।

कार्नेगी के ग्लोबल प्रोटेस्ट ट्रैकर के अनुसार, 1 नवंबर 2025 को दुनिया भर में 35 सरकार-विरोधी प्रदर्शन दर्ज किए गए। इससे पहले के 12 महीनों में 70 देशों में कुल 128 सरकार-विरोधी आंदोलन हुए।

जब दुनिया भर में हो रहे विरोध-प्रदर्शनों के एजेंडे और उनकी संरचना पर नजर डालते हैं, तो एक व्यापक तस्वीर उभरकर सामने आती है। ये आंदोलन नेतृत्व के लिहाज से अनौपचारिक हैं और पूरी तरह मुद्दा-आधारित हैं। इन्हें किसी चुने हुए या स्थापित नेतृत्व द्वारा संचालित नहीं किया जा रहा है। इसके बजाय, ये आंदोलन विकास से जुड़े अनेक सवालों से ऊर्जा प्राप्त कर रहे हैं और युवाओं द्वारा आगे बढ़ाए जा रहे हैं।

यह स्थिति ऐसे समय में स्वाभाविक लगती है, जब दुनिया के इतिहास में पहली बार युवाओं की आबादी सबसे अधिक है। अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय विकास एजेंसी (यूएस एजेंसी फॉर इंटरनेशनल एड) के अनुमान के अनुसार, वर्तमान में दुनिया में 10 से 29 वर्ष आयु वर्ग के लगभग 2.4 अरब युवा हैं। इसे अब तक की सबसे बड़ी पीढ़ी कहा जा सकता है।

यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार, “प्रदर्शनों में भाग लेने को तैयार लोगों का अनुपात 1990 के दशक के बाद अब अपने सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गया है और इसी अवधि में विरोध-प्रदर्शनों की संख्या में भी बढ़ोतरी हुई है।”

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 21वीं सदी की शुरुआत के बाद से “ऐसे नए रुझान अधिक स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आए हैं, जो हाल के विरोध-प्रदर्शनों को अतीत के आंदोलनों से अलग करते हैं। इन पैटर्नों को परिभाषित करने में युवाओं की भूमिका बेहद अहम रही है।”

युवाओं के नेतृत्व वाले ये विरोध-प्रदर्शन व्यापक जनसमर्थन पर आधारित हैं और इनमें कोई औपचारिक नेतृत्व नहीं होता। ये अधिक अनौपचारिक राजनीतिक क्षेत्रों में हो रहे हैं और इनके एजेंडे में भी स्पष्ट बदलाव दिखता है। 2000 के शुरुआती वर्षों में उदारीकरण के विरोध से लेकर बाद में जलवायु न्याय, खाद्य और ऊर्जा महंगाई तक; और अब सत्ता परिवर्तन की सीधी मांग, बढ़ती असमानता और हाशिए पर धकेले जाने की भावना तक।

एक अध्ययन के अनुसार, बांग्लादेश और नेपाल जैसे देशों में सत्ता परिवर्तन को लक्ष्य बनाने वाले युवा आंदोलनों में 1990 के बाद से वृद्धि हुई है। दिलचस्प बात यह है कि ऐसे विरोध-प्रदर्शन गरीब, विकासशील और विकसित—तीनों तरह के देशों में देखने को मिलते हैं।

एक विश्लेषण बताता है कि नवंबर 2021 से अक्टूबर 2022 के बीच जीवन-यापन की बढ़ती लागत (जिसमें खाद्य और ऊर्जा महंगाई शामिल है) के खिलाफ 150 देशों में करीब 12,500 विरोध-प्रदर्शन और दंगे हुए। इनमें लगभग 10 प्रतिशत आंदोलनों का नेतृत्व छात्रों ने किया।

कई मामलों में स्थानीय मुद्दों पर शुरू हुए आंदोलन पड़ोसी देशों तक फैल गए। उदाहरण के लिए, 2010 के दशक में "अरब स्प्रिंग" की शुरुआत ट्यूनीशिया में आर्थिक कठिनाइयों के खिलाफ हुए प्रदर्शनों से हुई, जो बाद में मिस्र, लीबिया, सीरिया और यमन तक फैल गई।

करीब 30 वर्ष पहले संयुक्त राष्ट्र के सामाजिक विकास पर विश्व शिखर सम्मेलन ने एक प्रस्ताव अपनाया था, जिसमें विकास के केंद्र में लोगों को रखने की बात कही गई थी। इससे पहले के लगभग दो दशकों तक दुनिया ने नवउदारवादी नीतियों का अंधाधुंध पीछा किया, यह मानते हुए कि इससे आर्थिक वृद्धि बढ़ेगी, गरीबी घटेगी और समानता आएगी।

लेकिन इसके स्पष्ट संकेत मिलने लगे थे कि ‘ट्रिकल-डाउन’ यानी ऊपर से नीचे तक लाभ पहुंचने की रणनीति काम नहीं कर रही है। असमानता गहराती गई और इसके परिणामस्वरूप दुनिया भर में विरोध-प्रदर्शन और असंतोष फैलने लगा।

इस शिखर सम्मेलन में पहली बार दुनिया ने बहुसंख्यक लोगों द्वारा झेली जा रही वंचना और उसके “पीड़ादायक परिणामों” को गंभीरता से स्वीकार किया। 186 देशों द्वारा अपनाई गई इसकी घोषणा में सामाजिक विकास के तीन प्रमुख लक्ष्यों को हासिल करने के लिए समावेशी नीतियों का वादा किया गया- गरीबी का उन्मूलन, पूर्ण और उत्पादक रोजगार को बढ़ावा देना, और सामाजिक समावेशन को मजबूत करना।

इस घोषणा में यह भी चेतावनी दी गई थी कि नवउदारवादी आर्थिक नीतियां और विकास से बहुत से लोगों को दूर रखने वाली प्रकृति “अनिश्चितता और असुरक्षा” को जन्म दे सकती हैं। बाद में सतत विकास लक्ष्यों जैसे विकास से जुड़े वैश्विक आह्वानों के लिए यही घोषणा एक प्रमुख मार्गदर्शक सिद्धांत बनी।

1995 के शिखर सम्मेलन के बाद से एक अरब से अधिक लोग गरीबी से बाहर निकले हैं, औसत आयु और संपत्ति सृजन में भी वृद्धि हुई है। दुनिया समानता और विकास लक्ष्यों को लेकर सामूहिक दृष्टिकोण पर चर्चा करती है। अधिक देशों ने लोकतंत्र को अपनाया है। फिर भी सबसे अहम सवाल बना हुआ है। युवा इतनी बार और इतनी ज्यादा क्यों विरोध-प्रदर्शन करते हैं?

संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक मामलों के विभाग (डीईएसए) की “वर्ल्ड सोशल रिपोर्ट 2025” के अनुसार, “कई लोगों का मानना है कि आज का जीवन 50 साल पहले की तुलना में बदतर हो गया है।” जीवन-संतोष पर किए गए गैलप वर्ल्ड पोल में 60 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने खुद को “संघर्षरत” और 12 प्रतिशत ने “कष्ट में” बताया।

1990 के बाद से आय और संपत्ति में असमानता बढ़ी है, खासकर चीन और भारत जैसे विकासशील देशों में ऐसा हुआ है। एक आकलन के मुताबिक, दुनिया की दो-तिहाई आबादी ऐसे देशों में रहती है जहां असमानता बढ़ी है। कोई भी अचानक घटने वाली घटना जैसे चरम मौसम उन्हें गरीबी रेखा से नीचे धकेल सकती है। विश्व बैंक के अनुसार, दुनिया का हर पांचवां व्यक्ति जलवायु आपदाओं के जोखिम में है।

दुनिया में इस समय युवाओं की आबादी इतिहास में सबसे अधिक है; ऐसे में विकास से बाहर रहने और भविष्य को लेकर अनिश्चितताएं युवाओं के लिए सबसे बड़ा खतरा बन जाती हैं।

विरोध-प्रदर्शनों में बढ़ोतरी के पीछे दो प्रमुख कारण हैं। समाज में बढ़ती बहिष्करण (अलग-थलग रहने) की भावना ध्रुवीकरण को जन्म देती है, और लोकतांत्रिक संस्थाओं की प्रभावहीनता बढ़ाती है।

संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक मामलों के विभाग (डीईएसए) की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया की आधी से अधिक आबादी को अपनी सरकार पर बहुत कम या बिल्कुल भी भरोसा नहीं है। भरोसे की यही कमी युवाओं के गुस्से के विस्फोट को जन्म देती है।

सवाल यह है कि वे कौन-से मुद्दे हैं जो युवाओं को इतने बड़े आंदोलनों का नेतृत्व करने के लिए प्रेरित करते हैं? 21वीं सदी की शुरुआत में वैश्वीकरण के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शन हुए।

इसके बाद आर्थिक कठिनाइयों के खिलाफ आक्रोश देखने को मिला और हाल के वर्षों में लोकतंत्र और स्वतंत्रता की मांग प्रमुख मुद्दा बनी। जलवायु न्याय भी धीरे-धीरे वैश्विक स्तर पर लामबंदी का एक अहम कारण बनता जा रहा है।

हाल के वर्षों में, खासकर महामारी के बाद, जीवन-यापन की बढ़ती लागत का संकट सबसे बड़ा ट्रिगर बनकर उभरा है। एक अनुमान के अनुसार, नवंबर 2021 से अक्टूबर 2022 के बीच 150 देशों में लगभग 12,500 विरोध-प्रदर्शन और दंगे दर्ज किए गए।

इनमें से अधिकांश आंदोलन या हिंसक घटनाएं महंगाई, ऊर्जा लागत और खाद्य संकट से जुड़ी थीं, और इनमें युवाओं की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही।

सामाजिक वैज्ञानिक और नीति-निर्माता यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि युवा इतने ग़ुस्से में क्यों हैं। यूनिसेफ सहित अधिकांश आकलन एक ऐसे युवा-बहुल विश्व की ओर इशारा करते हैं, जहां बुनियादी जीवन-निर्वाह के साधनों की कमी और मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था की युवाओं की जरूरतों का जवाब देने में विफलता के खिलाफ वे अपनी आवाज़ उठा रहे हैं।

अधिकांश आंदोलनों का मूल मुद्दा आर्थिक सुरक्षा है—सरल शब्दों में कहें तो रोज़गार और आजीविका। कई लोग इसे इस बात के संकेत के रूप में देखते हैं कि मौजूदा विकास मॉडल इस पीढ़ी की आकांक्षाओं को पूरा करने में सक्षम नहीं है। इसलिए ये विरोध-प्रदर्शन एक ऐसे नए विकास मॉडल की मांग हैं, जिसे अभी तक न तो स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है और न ही विकसित किया गया है।

कुछ वर्ष पहले, अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने युवाओं में बढ़ती बेचैनी पर ध्यान देते हुए कहा था, “युवा रोजगार संकट अपने सभी रूपों में केवल सुस्त आर्थिक वृद्धि से जुड़ा कोई अस्थायी घटनाक्रम नहीं है। यदि ठोस नीतिगत बदलाव नहीं किए गए, तो यह एक संरचनात्मक प्रवृत्ति बन सकता है।”

कुछ लोग इन विरोध-प्रदर्शनों को युवाओं की राजनीतिक सोच या राजनीतिक झुकाव का प्रतिबिंब मानते हैं। सेज ओपन में प्रकाशित एक सर्वेक्षण में शुरुआती 2000 के दशक से लेकर 2017 तक 128 देशों के 10 लाख लोगों के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया।

इसमें कहा गया, “40 वर्ष से कम उम्र के लोग, 40 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों की तुलना में, अनौपचारिक राजनीतिक गतिविधियों को प्राथमिकता देने की अधिक संभावना रखते हैं।

कुछ लोगों का मानना है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि युवा मुद्दा-आधारित राजनीति और ऐसी कार्रवाई में अधिक रुचि रखते हैं, जिसमें किसी मध्यस्थ की आवश्यकता नहीं होती, बजाय पारंपरिक और संस्थागत राजनीति के।”

यूनिसेफ का यह अध्ययन पुरानी और नई पीढ़ियों के दृष्टिकोण और भागीदारी की भूमिका में आए बदलाव की पुष्टि करता है।

रिपोर्ट में कहा गया है, “हाल के वर्षों में किए गए वैश्विक विश्लेषणों से यह सामने आया है कि राजनीति में भागीदारी के मंच के रूप में लोकतंत्र को लेकर बुज़ुर्ग और युवा पीढ़ियों के विचार अलग-अलग हैं। पुरानी पीढ़ियों की तुलना में युवा, लोकतांत्रिक संस्थाओं के अपर्याप्त प्रदर्शन से लगातार अधिक निराश होते गए हैं।”

इसी संदर्भ में, अर्थशास्त्रियों, वैज्ञानिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक समूह ‘अर्थ4ऑल’ ने जी-20 देशों (जिसमें भारत भी शामिल है) में सरकारों पर भरोसे को लेकर किए गए एक सर्वेक्षण के निष्कर्ष जारी किए।

इस सर्वे में यह भी पूछा गया कि क्या अमीरों पर अधिक कर लगाया जाना चाहिए और क्या लोगों को भरोसा है कि उनकी सरकार पर्यावरणीय संकट से पृथ्वी को बचाने के लिए पर्याप्त प्रयास कर रही है।

इस सर्वेक्षण में उन देशों के 22,000 लोगों की राय ली गई, जो मिलकर दुनिया की 85 प्रतिशत जीडीपी का प्रतिनिधित्व करते हैं। अर्थ4ऑल सर्वे में पाया गया कि केवल 39 प्रतिशत लोगों का मानना है कि “सरकार पर बहुसंख्यक लोगों के हित में फैसले लेने के लिए भरोसा किया जा सकता है।” दीर्घकाल में (20–30 वर्षों में) ऐसे लाभकारी फैसले लेने की सरकार की क्षमता पर भरोसे के सवाल पर सिर्फ 37 प्रतिशत लोगों ने हां में जवाब दिया।

सरकारों पर भरोसे की यह कमी राष्ट्रीय और वैश्विक दोनों स्तरों पर राजनीतिक व्यवस्थाओं में सुधार की लोगों की इच्छा को दर्शाती है। सर्वे में शामिल लगभग दो-तिहाई लोगों ने अपने देश की राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव की आवश्यकता जताई, जबकि करीब 30 प्रतिशत लोगों का मानना था कि राजनीतिक प्रणाली में “पूर्ण” सुधार की जरूरत है।

भारत के संदर्भ में यह सर्वे लोगों के राजनीतिक व्यवस्था पर भरोसे को लेकर कुछ दिलचस्प संकेत देता है। बहुसंख्यक लोगों के हित में निर्णय लेने के सवाल पर सर्वे में शामिल 74 प्रतिशत भारतीयों ने सरकार पर गहरा भरोसा जताया। दीर्घकाल में उपयुक्त फैसले लेने को लेकर भी लगभग इसी स्तर का भरोसा दर्ज किया गया।

जब यह पूछा गया कि देश चलाने के लिए कौन-सी राजनीतिक व्यवस्था उपयुक्त होगी, तो 87 प्रतिशत लोगों ने “ऐसे विशेषज्ञों द्वारा निर्णय लेने” के पक्ष में मतदान किया, जो उनके अनुसार देश के लिए सबसे बेहतर हो। वहीं 86 प्रतिशत लोगों ने “लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था” का समर्थन किया।

सर्वे में शामिल निम्न-आय वर्ग के परिवारों में 83 प्रतिशत लोगों ने विशेषज्ञों द्वारा संचालित व्यवस्था पर भरोसा जताया, जबकि 79 प्रतिशत ने लोकतांत्रिक व्यवस्था पर विश्वास व्यक्त किया। यह आंकड़ा सर्वे में दर्ज कुल औसत (86 प्रतिशत) से काफी कम है।

अर्थ4ऑल की कार्यकारी अध्यक्ष सैंड्रिन डिक्सन-डिक्लेव का कहना है कि यूरोप में सरकारों के प्रति अविश्वास साफ तौर पर दिखाई देता है। वे इस अविश्वास को सर्वे के एक अन्य महत्वपूर्ण निष्कर्ष से जोड़कर देखती हैं। सर्वे में शामिल दो-तिहाई से अधिक लोगों का मानना है कि जी-20 देशों की आर्थिक प्राथमिकता केवल मुनाफा और संपत्ति सृजन नहीं, बल्कि स्वास्थ्य, समग्र कल्याण और प्रकृति होनी चाहिए।

उनके शब्दों में, “यूरोप में हालिया चुनावों में रैडिकल राइट की ओर झुकाव को देखते हुए, यह जरूरी है कि सरकारों को जवाबदेह बनाया जाए ताकि वे ऐसी अर्थव्यवस्था लाएंं जो एक साथ लोगों और पृथ्वी—दोनों की सेवा करे।”

अर्थ4ऑल पहल के सह-नेतृत्वकर्ता ओवेन गैफ्नी इन निष्कर्षों को समेटते हुए कहते हैं, “दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में जिन लोगों से हमने बात की, उनमें से भारी बहुमत का मानना है कि इस दशक में ही जलवायु परिवर्तन से निपटने और प्रकृति की रक्षा के लिए बड़े और तत्काल कदम उठाने की जरूरत है।

युवाओं के नेतृत्व में हाल के वर्षों में बढ़े विरोध-प्रदर्शन एक बड़े रुझान का हिस्सा हैं—ऐसे राजनीतिक आंदोलनों का, जो सोशल मीडिया के जरिये उभरे या लोकप्रिय हुए। इसकी शुरुआत कम से कम 2011 के अरब स्प्रिंग से मानी जा सकती है।

2025 का ग्लोबल यूथ पार्टिसिपेशन इंडेक्स (पीडीएफ), जो यूरोपीय संघ द्वारा वित्तपोषित एक शोध समूह की रिपोर्ट है, बताता है कि 30 वर्ष से कम उम्र के युवा चुनावों में मतदान करने की संभावना भले ही कम रखते हों, लेकिन वे ऑनलाइन और जमीनी दोनों तरह के नागरिक और राजनीतिक आंदोलनों में कहीं अधिक सक्रिय भूमिका निभाते हैं।

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