मौजूदा वक्त में बेरोजगारी पर राष्ट्रीय बहस देखना असामान्य रूप से संतोषजनक है। अभी यह बहस नेशनल सैंपल सर्विस ऑफिस के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण के लीक होने के बाद देशव्यापी बन गई है।
राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के दो सदस्यों ने यह आरोप लगाते हुए इस्तीफा दे दिया कि सरकार उस रिपोर्ट को जारी नहीं करना चाहती है जो 2017-18 में बेरोजगारी के आकड़े को सामने लाएगी।
दैनिक समाचार पत्र बिजनेस स्टैंडर्ड को यह रिपोर्ट मिल गई है और इसने बताया है कि उस वर्ष यह बेरोजगारी 6.1 प्रतिशत थी, जो 45 वर्षों में सबसे अधिक थी। जैसी कि उम्मीद थी, यह मुद्दा अब राजनीतिक घमासान का करण बन चुका है।
इस वक्त, बेरोजगारी सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए), विशेष रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए एक प्रमुख राजनीतिक लड़ाई बन गई है। यह इस कारण से भी है कि सत्ता में उनके आने की वजह दो जादुई आंकड़े थे। एक तो तत्कालीन सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार द्वारा 1.86 लाख करोड़ रुपए का भ्रष्टाचार और दूसरा था एक साल में 1 करोड़ नौकरियां देने का उनका वादा।
1 करोड़ नौकरियों के नारे ने 1.86 लाख करोड़ रुपए के आंकड़े को इतना अधिक बदनाम बना दिया, जिसने यूपीए सरकार को पस्त कर दिया।
पिछले साढ़े चार वर्षों में, मोदी ने रोजगार का प्रभार रखने वाले दो मंत्रियों को बदल दिया। जाहिर तौर पर प्रधानमंत्री इस महत्वपूर्ण वादे को लेकर इन मंत्रियों के काम से खुश नहीं थे। इस बीच भारत दुनिया की सबसे बड़ी श्रम शक्ति बनने से सिर्फ सात साल दूर है।
लेकिन, इस जादुई वादे पर वापस आते हैं। आखिर किसने यह वादा किया था और हर किसी को रोजगार देने के लिए इसे कैसे जादुई आकड़े में बदल दिया था? इन सवालों का जवाब हमें प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी के पिछले एनडीए शासन में वापस ले जाता है।
इस तरह का पहला वादा 1999 में वाजपेयी ने किया था। उन्होंने मोंटेक सिंह अहलूवालिया के नेतृत्व में “रोजगार के अवसरों पर टास्क फोर्स” का गठन किया था। अहलूवालिया टास्क फोर्स को 10 वर्षों में 10 करोड़ या प्रति वर्ष 1 करोड़ रोजगार प्रदान करने के लिए रणनीतियां सुझानी थी। जब उन्होंने जुलाई 2001 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, तो 1 साल में 1 करोड़ नौकरियां राष्ट्रीय सुर्खियां बन गईं। इसे 2014 की तरह ही 2004 में वाजपेयी के फिर से सत्ता में आने के लिए तैयार किया गया था।
मतदाताओं पर इसके धारणात्मक असर का परिणाम ही था कि मोंटेक रिपोर्ट सामने आने से पहले ही, तत्कालीन राजग सरकार के सलाहकारों ने “स्पेशल ग्रुप ऑन टार्गेटिंग टेन मिलियन एम्प्लॉयमेंट ओपॉर्ट्यूनिटीज पर ईयर” नामक टास्क फोर्स बनाने के लिए सरकार को मजबूर कर दिया। इसका नेतृत्व एसपी गुप्ता कर रहे थे, जो पूर्ववर्ती योजना आयोग के पूर्व सदस्य थे। इसने 2002 में उन्होंने अपनी रिपोर्ट दी, जिसे बाद में इंडिया विजन 2020 के रूप में पेश किया गया और एक साल में 1 करोड़ नौकरियों का वादा किया गया। यह लोगों के बीच काफी लोकप्रिय भी हुआ क्योंकि एनएसएसओ 1999-2000 के अनुसार, बेरोजगारों की संख्या 1993-94 के 2.013 करोड़ से बढ़कर 1999-2000 में 2.65 करोड़ हो गई थी। नतीजतन, बेरोजगारी दर- श्रम बल के प्रतिशत के रूप में बेरोजगार लोगों की संख्या 1993-94 के 5.99 प्रतिशत से बढ़कर 1999-2000 में 7.32 प्रतिशत हो गई थी।
कम से कम राजनीतिक तौर पर, एक संकट को एक अवसर के रूप में बदला जा सकता है। बेरोजगारी संकट की व्याख्या एनडीए-1 ने इसी तरह की। एक साल में 1 करोड़ नौकरियों का वादा सिर्फ एक जीत की स्थिति थी और इंडिया विजन 2020 को 2004 के आम चुनावों के लिए “इंडिया शाइनिंग” के नारे में बदल दिया गया। हालांकि, यह नारा बाद में आलोचना का शिकार हुआ। वाजपेयी चुनाव हार गए। लेकिन एक साल में 1 करोड़ नौकरियों का लालच दिखाना जारी रहा।
यूपीए-I ने इस लक्ष्य को अपनाया। मोंटेक सिंह अहलूवालिया वापस योजना आयोग के उपाध्यक्ष बनाए गए। हालांकि, नौकरी की बात पृष्ठभूमि में रही क्योंकि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम को लागू कर दिया गया था।
पहली पंचवर्षीय योजना (1951-1956) के बाद, यह 10वीं बार था जब भारत ने बेरोजगारी और गरीबी उन्मूलन के लिए अपना लक्ष्य निर्धारित किया। नए यूपीए-I ने रोजगार सृजन को अपनी प्राथमिक नीति बताया। इसने पिछली सरकार की 11वीं योजना के अंत या 2011 तक बेरोजगारी को खत्म करने के लक्ष्य को भी स्वीकार किया।
अब तक की ये दो रिपोर्टें दो महत्वपूर्ण आधिकारिक दस्तावेज हैं, जिससे बेरोजगारी पर बहस को, विशेष रूप से भारत के रोजगार चरित्र को समझा जा सकता है। लेकिन भ्रम तब बढ़ जाता है जब कोई दोनों रिपोर्टों की तुलना करता है। असल में ये रोजगार पैदा करने के लिए दो अलग-अलग तरीकों की बात करते हैं, जिस पर बहस है।
टास्क फोर्स ने 1999 में बेरोजगारी की दर 2.2 प्रतिशत होने का अनुमान लगाया था, वहीं स्पेशल ग्रुप का कहना है कि बेरोजगारी की दर बढ़कर 7 प्रतिशत हो गई। आंकड़ों में यह अंतर इसलिए था क्योंकि दोनों समूहों ने अलग-अलग तरीकों का इस्तेमाल किया था। टास्क फोर्स ने राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की यूजुअल प्रिंसिपल एंड सब्सिडियरी स्टेट्स (यूपीएसएस) पद्धति के आधार पर अनुमान लगाया था। स्पेशल ग्रुप का कहना है कि यह तरीका सटीक नहीं है क्योंकि यह बड़ी संख्या में ऐसे लोगों को छोड़ देता है जो साल में छह महीने या उससे कम समय के लिए बेरोजगार होते हैं और कभी-कभी अपने काम के दिनों में कुछ घंटों के लिए नौकरी करते हैं। स्पेशल ग्रुप ने रोजगार को मापने की वर्तमान दैनिक स्थिति (सीडीएस) पद्धति का उपयोग किया, जिसने देश में खुली बेरोजगारी को प्रतिबिंबित किया है।
टास्क फोर्स का कहना है कि एक वर्ष में 1 करोड़ नौकरियों का लक्ष्य होना आवश्यक नहीं है। इससे कम संख्या में नौकरियां भी दसवीं योजना के लक्ष्य को पूरा कर सकती हैं। लेकिन स्पेशल ग्रुप का कहना है कि यह गणना लगभग 2.6 करोड़ बेरोजगारों को ध्यान में नहीं रखती है। यह संख्या सीडीएस पद्धति के जरिए अनुमानित है, जो सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत पद्धति है।
दोनों समूह रोजगार पैदा करने के तरीकों पर एक दूसरे के साथ पूरी तरह से अलग हैं। टास्क फोर्स ने कहा कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि से रोजगार पैदा होगा। स्पेशल ग्रुप का कहना है कि जीडीपी में वृद्धि हो सकती है लेकिन समान गति से नौकरियां पैदा नहीं हो सकतीं। स्पेशल ग्रुप बचत और निवेश बाधाओं, असंतोषजनक बुनियादी ढांचे और सुशासन की अनुपस्थिति की ओर इशारा करता है। टास्क फोर्स, जो दसवीं पंचवर्षीय योजना के दृष्टिकोण पत्र के रूप में काम कर रहा था, ने प्रति वर्ष 9 प्रतिशत की वृद्धि दर की सिफारिश की ताकि आगे रोजगार पैदा किया जा सकें।
स्पेशल ग्रुप आवश्यक संख्या में रोजगार सृजित करने के लिए संगठित क्षेत्र में क्षमता नहीं देखता है। रिपोर्ट में जोर दिया गया है कि रोजगार पैदा करने के लिए असंगठित क्षेत्र को लक्षित करने की आवश्यकता है। इसमें कहा गया है कि वर्तमान में असंगठित क्षेत्र 92 प्रतिशत रोजगार प्रदान करता है। इसके विपरीत, टास्क फोर्स ने कहा कि अंततः संगठित क्षेत्र कम प्रतिस्पर्धी असंगठित क्षेत्र का बोझ कम करेगा।
टास्क फोर्स का कहना है कि नई नौकरियों के निर्माता के रूप में कृषि का कोई भविष्य नहीं है। लेकिन स्पेशल ग्रुप का कहना है कि कृषि क्षेत्र एक 'सोने की खान' है, जिसमें पांच वर्षों में 1.1 करोड़ नौकरियां पैदा करने की क्षमता है। यह समूह बागवानी, फूलों की खेती, कृषि-वानिकी, लघु सिंचाई और वाटरशेड पर जोर देता है। टास्क फोर्स ने सिफारिश की कि कृषि कंपनियों को बंजर भूमि खरीदने, विकसित करने, खेती करने और बेचने की अनुमति दी जानी चाहिए, लेकिन स्पेशल ग्रुप का कहना है कि इस योजना को समयबद्ध पट्टे के रूप में लेना चाहिए, जिसमें स्थानीय भूमिहीन श्रमिकों और सीमांत किसानों के हित को ध्यान में रखा जाए।
टास्क फोर्स शहरी उपयोग के लिए ग्रामीण भूमि के रूपांतरण की सिफारिश करती है ताकि टाउनशिप और सम्पदा के निजी विकास को सुविधाजनक बनाया जा सके। लेकिन स्पेशल ग्रुप का कहना है कि यह बंजर भूमि के चुनिंदा हिस्सों पर ही किया जाना चाहिए।
चाहे जो भी मतभेद हो, एक बात स्पष्ट है कि महज आर्थिक विकास के माध्यम से रोजगार पैदा करने में मदद नहीं मिलेगी। इसका कारण यह है कि हम 1990 के दशक की शुरुआत से ही बेरोजगार वृद्धि का सामना कर रहे हैं। सरकार के दावे के अनुसार, भारत अब सबसे तेज गति वाला अर्थव्यवस्था है। लेकिन रोजगार सृजन उम्मीद के मुताबिक नहीं हुआ है।
मोदी के सामने दोहरी चुनौतियां हैं। यह सामान्य ज्ञान है कि भारत एक गहरे कृषि संकट का सामना कर रहा है। लेकिन संकट का संदर्भ वहां है, जहां वास्तविक संदेश छुपा है। कृषि उत्पादकता बढ़ाने के बावजूद किसान कम कमा रहे हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था प्रभावशाली दर से बढ़ने के बावजूद लोगों को ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार नहीं मिल रहा है।
कृषि, जो सबसे बड़ा नियोक्ता है, रोजगार पैदा करने की क्षमता खो रहा है। अधिक से अधिक लोग आजीविका के वैकल्पिक स्रोतों को तलाशने के लिए खेती छोड़ रहे हैं। लेकिन वैकल्पिक नौकरियां इतनी नहीं है कि सभी नौकरी चाहने वाले लोगों को नौकरी मिल जाए।
हाल ही में, नीति आयोग के अर्थशास्त्री रमेश चंद, एस के श्रीवास्तव और जसपाल सिंह ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बदलाव और रोजगार पर उसके प्रभाव पर एक चर्चा पत्र वितरित किया। यह पत्र विभिन्न सकारात्मक आर्थिक संकेतकों के बावजूद, निराशाजनक ग्रामीण रोजगार परिदृश्य का सबसे बेहतर विश्लेषण करता है।
इस पेपर के अनुसार, 1970-71 और 2011-12 के बीच भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था 3,199 बिलियन रुपए से बढ़कर 2004-05 में 21,107 अरब रुपये हो गई। यह सात गुना वृद्धि थी। अब, रोजगार सृजन में वृद्धि के साथ इसकी तुलना करें तो यह 19.1 करोड़ से बढ़कर 33.6 करोड़ ही हो सकी। यानी, इस अवधि में दोगुने से भी कम वृद्धि हुई।
एक अन्य सूचना भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रोजगारहीन वृद्धि को बताती है। चार दशकों के दौरान, पहली बार कृषि क्षेत्र में कार्यरत कार्यबल में कमी देखी गई। नीति आयोग के पेपर के अनुसार, 1991 में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण से पहले ग्रामीण रोजगार ने 2.16 प्रतिशत वार्षिक विकास दर दर्ज की थी।
1990 के दशक के बाद के वर्षों में, यह घटकर 1.45 प्रतिशत पर आ गई। इसने उस समय नकारात्मक वृद्धि भी दर्ज की जब पूरे देश में आर्थिक मंदी देखी जा रही थी। इस पेपर का कहना है कि आउटपुट की तुलना में रोजगार बहुत कम दर से बढ़ा और 2004-05 में उच्च विकास के बावजूद इसमें गिरावट आई।
वास्तव में, मांग के अनुसार रोजगार निर्मित करने की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की क्षमता अभी नकारात्मक है। इसका मतलब है कि ग्रामीण क्षेत्रों में गैर-कृषि रास्ते कृषि छोड़ने वालों को नौकरी देने में सक्षम नहीं हैं। फिर ये लोग रोजगार की तलाश में कहां जा रहे हैं?
2011-12 में, 8.4 करोड़ कृषि श्रमिकों को गैर-कृषि क्षेत्रों में स्थानांतरित करने की आवश्यकता थी। इसके लिए गैर-कृषि नौकरियों में 70 प्रतिशत वृद्धि की आवश्यकता थी। आमतौर पर, कृषि छोड़ने वाले लोग शहरी क्षेत्रों में विनिर्माण, निर्माण और अन्य सेवा क्षेत्रों में रोजगार चाहते हैं। लेकिन ये क्षेत्र अब मंदी का सामना कर रहे हैं और कृषि क्षेत्र को छोड़ने वाले कार्यबल को नौकरी देने में सक्षम नहीं होंगे।
फिर इतनी बड़ी संख्या में खेती छोड़ने वाले लोगों के लिए रोजगार कैसे उपलब्ध हो सकता है? इस चुनौती का सामना केवल किसान-हितैषी बजट पेश करने से नहीं किया जा सकता है। इसके लिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था के ओवरहाल की आवश्यकता है।
इंडिया शाइनिंग का जन्म वैसे ही हुआ था, जैसे अभी न्यू इंडिया की बात हो रही है। सरकार ने पहले ही वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में “ब्लूमिंग इंडिया” की बात शुरू कर दी है। लेकिन यह याद रखना चाहिए कि अक्सर एक झूठा दंभ अपने साथ चुनावी झटका ले कर आता है!