सच्चिदानंद सिन्हा। फोटो: सर्वोदय प्रेस
सच्चिदानंद सिन्हा। फोटो: सर्वोदय प्रेस

समाजवादी विकल्प की राजनीति के सच्चे पथप्रदर्शक थे सच्चिदानंद सिन्हा

सच्चिदानंद भारतीय सन्दर्भों में महात्मा गांधी के रास्ते को व्यवहारिक मानते थे, लेकिन गांधीवाद के लिए कांग्रेस का अनुसरण करने के बजाय समाजवादी रास्ते को अपनाया
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19 नवंबर को बिहार के मुजफ्फरपुर जिले मनिका गांव से एक मनहूस खबर आई कि समाजवादी कार्यकर्ता, विचारक, लेखक, गांधीवादी, आजादी की लड़ाई के हिस्सेदार, लालसा विहीन सादगी के प्रतिमूर्ति सच्चिदानंद सिन्हा हम लोगों के बीच नहीं रहे।

मैं पढ़ाई के बाद जब से जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय के साथ जुड़ा और विकास की अवधारणा को समझने की कोशिश करने लगा. उसी क्रम में सामयिक वार्ता में उनके लेख माध्यम से पहली बार उनके विचारों से परिचित हुआ, आगे अनेक कार्यक्रमों में मिलना हुआ कुछ किताबें, उनके लेख पढ़ने का अवसर मिला हर बार एक नई ऊर्जा और स्पष्ट दृष्टि मिलती थी।

पूरी सभ्यता के समक्ष खड़े, गहरे संकट के खतरों को समझकर, उसका समाजवादी व्यवहारिक समाधान क्या हो सकता है उसके बारे में वे लिखे। तथाकथित विकास के नाम पर बड़े बांधों के निर्माण, नदियों को कैद करना, प्राकृतिक संसाधनों का अकूत दोहन कर, मुनाफा और उपभोक्तावाद पर खड़े विकास मॉडल के भ्रम जाल की सच्चाई जनता के समक्ष रखे। उसके लिए वैकल्पिक राजनीति खड़ा करने में लगे रहे।

वे समाजवादी आंदोलनों के साथ जनता के हित में होने वाले आंदोलनो के साथ रहते थे। अंधाधुंध हो रहे शहरीकरण के दुष्प्रभावों, ऊर्जा आधारित विकास मॉडल के विकल्पों को सुझाते थे वे गांवों की तरक्की के पैरोकार थे इसलिए मुंबई और दिल्ली को छोड़कर बिहार के सुदूर एक छोटे से गांव में रहते थे। वे आंदोलनों और भारतीय समाजवादी समाज के जन विकास के विकल्प और विकल्प की राजनीति के पथप्रदर्शक थे।

सच्चिदानंद सिन्हा का जन्म 30 अगस्त 1928 को बिहार में मुजफ्फर जिले के में हुआ था उनके पिता का नाम श्री ब्रज नंदन प्रसाद सिन्हा और माता का नाम श्रीमती देवी था पिता जी 1952 में बिहार विधान सभा के सदस्य रहे थे| सचिदानंद सिन्हा ने पढ़ाई के दौरान 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिए ।

1946 में हुए दंगों में खान अब्दुल गफ्फार खान जब बिहार आये थे तो वे उनके साथ दंगा पीड़ितों के लिए कार्य किया| पटना साइंस कॉलेज के इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद सोशलिस्ट विचारों के साथ जुड़ गए| अपनी बीएससी (गणित) की पढ़ाई अधूरा छोड़कर, मजदूर आंदोलन खड़ा करने चले गए। वे मजदूर का काम करते हुए कोयला खलासी के रूप में काम करते उनका संगठन किया।

उनका परिवार राजनैतिक था। उनके मामा बिहार के कम्युनिस्ट पार्टी के चर्चित नेता कामरेड चंद्रशेखर सिंह थे उनके नाना 1952 की सरकार में कैबिनेट मंत्री थे। पिता जी विधायक रहे थे फिरभी सभी सुखों को त्याग कर वे मजदूर आंदोलन खड़ा करने चले गए।

मार्क्सवाद का गहरा प्रभाव उन पर शुरुआती दिनों में था बाद में वे भारतीय सन्दर्भों में महात्मा गांधी के रास्ते को व्यवहारिक मानते थे और गांधीवाद के लिए कांग्रेस का अनुसरण करने के बजाय समाजवादी रास्ते को उन्होंने अपनाया| समाजवादी रास्ते में भी सत्ता की होड़ के बीच वे वैकल्पिक समाजवादी राजनीतिक का व्यहारिक स्वरूप गढ़नेमें योगदान दिया।

उनके शुरुआती लेखों से प्रभावित होकर डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने उन्हें मैनकाइंड के संपादक मंडल में रखा। सोशलिस्ट पार्टी में रहे उसके विघटन के दौर में मर्माहत होकर लेखन और चिंतन को उन्होंने महत्व दिया। वे 1969 से 1987 तक दिल्ली में रहे। फिर मुजफ्फरपुर के मुसहरी में मनिका गांव में आकर अंतिम सांस तक रहें। उन्होंने शादी नहीं की, उनसे छोटे दो भाई और है प्रो प्रभाकर सिन्हा जो पीयूसीएल के अध्यक्ष रहे।

अरविंद सिन्हा जो कम्युनिष्ट पार्टी माले के बड़े नेता है। वे किशन पटनायक के साथ समता संगठन और समाजवादी जन परिषद जैसे वैकल्पिक राजनीति को खड़ा करने में अपना आजीवन योगदान दिया ।

उन पर लोकनायक जयप्रकाश नारायण का गहरा प्रभाव था आचार्य नरेंद्र देव डाक्टर राममनोहर लोहिया के चिंतन परम्परा को आगे बढाये वही इमरजेंसी के बाद बिहार के मुजफ्फरपुर में जार्ज फर्नाडिज के चुनावों में उनकी सक्रिय भागीदारी रही| वे 1952 के मुंबई में अम्बेडकर के चुनाव में भी लगे थे पर बड़े नामों के साथ अपने को कभी नही जोड़े| कोई लोभ और कुछ पाने की कोई लालसा नहीं थी।

उन्होंने लगभग दो दर्जन से अधिक पुस्तकें लिखीं, जिनमें राजनीति, अर्थशास्त्र, संस्कृति, पर्यावरण, दर्शन, समाजशास्त्र, कला जैसे विविध विषय शामिल हैं। राजकमल प्रकाशन ने अरविंद मोहन के प्रयास से से उनके प्रमुख लेखन को आठ खंडों में 'सच्चिदानंद सिन्हा रचनावली' के रूप में प्रकाशित किया है।

वे जाति व्यस्था और गोत्र पर लिखते हुए जातिविहीन समाज की तरफ इशारा किया। जब बिहार और झारखंड एक साथ साथ था उस समय एक ही देश के भीतर आंतरिक उपनिवेशवाद की बातें लिखीं, आपातकाल लगने और उसके बाद की स्थिति पर लिखा, पंजाब से लेकर असम जैसे ज्वलंत मुद्दों पर न सिर्फ पुस्तके लिखी बल्कि उसके लिए किए जाने वाले अभियानों के हिस्सा रहे। पूंजीवाद के संकट से लेकर मार्क्स बाद की सीमाओं को लिखा।

उनकी प्रमुख रचनाओं में 'केस एंड क्रिएशन', 'संस्कृति विमर्श', 'संस्कृति और समाजवाद', 'मानव सभ्यता और राष्ट्र-राज्य', 'एडवेंचर्स ऑफ लिबर्टी' (आजादी के अपूर्व अनुभव), 'जिंदगी: सभ्यता के हाशिये पर', 'कड़वी फसल' और 'मार्क्सवाद और गांधीवाद', 'द इंटरनल कॉलोनी, 'सोशलिज्म एंड पावर' इत्यादि है। आपातकाल के दौरान 'इमरजेंसी इन पर्सपेक्टिव' और जनता पार्टी सरकार के बाद 'द परमानेंट क्राइसिस' था। उनके निधन से एक समाजवादी विकल्प की तलाश करते युगपुरुष का अंत हुआ।

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