दो जून की रोटी से भी महरूम मनरेगा मजदूर

मनरेगा को 12 साल से अधिक का समय गुजर गया है लेकिन ग्रामीण भारत के लिए ये दो जून की रोटी भी मुयस्सर नहीं करा पा रही है
Photo: Srikant
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आफाक हैदर

मनरेगा योजना को ग्रामीण भारत में पलायन को दूर करने तथा ग्रामीणों को उनके ही गांव में रोजगार सुनिश्चित करने के लिए लाया गया था। मनरेगा को 12 साल से अधिक का समय गुजर गया है लेकिन ग्रामीण भारत के लिए ये दो जून की रोटी भी मुयस्सर नहीं करा पा रही है। जो बजट आवंटित किया जाता है उससे मजदूरों को समय पर न ही मजदूरी मिल पाती है और न ही वाजिब मेहनताना ही मिलता है। इसलिए मजदूर अब भी या तो भूखे काम कर रहे हैं या काम की तलाश में शहर पलायन करते हैं।

संजय पासवान गया के कोंच इलाके के रहने वाले हैं। मजदूरी की तलाश में हर रोज़ कोंच से गया शहर आते हैं। झुलसती गर्मी में गया के लेबर चैक पर ग्राहक का इंतजार कर रहें है। संजय अपने गांव में ही मनरेगा योजना में काम नहीं तलाशतें हैं। संजय कहतें हैं कि मनरेगा से पेट नहीं भरता है। मनरेगा में जो मजदूरी दी जाती है वह सामान्य मजदूरी से बहुत कम है, लगभग आधा है।शहर में दिन भर की मजदूरी औसतन 350-500 रूपये तक दी जाती है।

मनरेगा में केवल 171 रूपयेही मजदूरी मिलती है जो कि शहर में मिल रही मजदूरी का आधा भी नहीं है, इस मजदूरी से दो वक्त की रोटी भी नहीं हो पाती है। ऊपर से मजदूरी कभी समय पर नहीं मिलती है। ऐसे में बाल-बच्चों को क्या खिलाएंगे ? और खुद क्या खाएंगे ? हम तो हर रोज कमाने और खाने वाले लोग हैं अगर मजदूरी मिलने में महीना भी लग जाएगा तो हम तो मर जाएंगे। संजय अकेले नहीं हैं जिनका पेट मनरेगा से नहीं भरता है। संजय के अलावा सैंकड़ों मजदूर आस-पास के ग्रामीण इलाकों से काम की तलाश में शहर के लेबर चैक पर चिलचिलाती धूप में खड़े रहतें हैं। ऐसे ही एक मजदूर धर्मेंद्र पासवान भी हैं जो रफीगंज से काम की तलाश में गया शहर हर रोज़ आतें हैं और लेबर चैक पर खड़े रहतें हैं।

धर्मेंद्र पासवान का कहना है कि मनरेगा से हमारा गुजारा कैसे होगा एक तो दिहाड़ी कम मिलती है ऊपर से मुखिया और ठेकेदार भी कमीशन खाता है। जो पैसा आता है वह समय पर नहीं आता है। इससे अच्छा खेत में ही काम कर लेते हैं। खेत में काम करने पर दिहाड़ी पांच किलो चावल और दो वक्त का खाना मिल जाता है। आज कल खेत में भी काम नहीं मिलता है, खेती का सीजन नहीं है इसलिए शहर में काम की तलाश में आतें हैं। 

जितेंद्र गुरूआ से काम की तलाश में गया शहर आते हंै। जितेंद्र ने कभी मनरेगा में काम ही नहीं किया है। जितेंद्र को मनरेगा की कोई जानकारी ही नहीं है उसने कभी अपना जाॅब कार्ड भी नहीं बनाया है। दिलचस्प बात है कि ग्रामीण भारत के जिन मजदूरों के लिए विश्व की सबसे बड़ी ग्रामीण रोजगार योजना चल रही है उनमें से कई को इनकी जानकारी ही नहीं है। गा्रमीण भारत में जागरुकता का अभाव भी मनरेगा में भ्रष्टाचार और विफलता की एक बड़ी वजह है।

छोटन बावर्ची का काम करता है लेकिन अभी इसका सीजन नहीं है तो काम की तलाश में नवादा से गयाशहर आ गया है। छोटन हर रोज़ लेबर चैक पर काम की तलाश करता है। छोटन ने कभी मनरेगा में काम नहीं किया है और उसकी भी यही शिकायत है कि मनरेगा में पैसा बहुत कम मिलता है जब कोई काम नहीं मिलता है तब मनरेगा में मजदूरी कर लेता है। मनरेगा में कम मजदूरी एक बहुत बड़ी समस्या है मनरेगा में केवल एक ही राज्य नागालैंड में मजदूरी न्यूनतम मजदूरी से अधिक है बाकी सभी राज्यों और केंद्रशषित प्रदेशों में न्यूनतम मज़दूरी से बहुत कम मजदूरी दी जाती है।

बिहार में जहां न्यूनतम मजदूरी 268 रूपया प्रतिदिन है वहीं मनरेगा में दी जाने वाली मजदूरी केवल 171 रूपया ही है। आमतौर से बिहार के शहरों में सामान्य मजदूरी 350-500 प्रतिदिन है। मनरेगा में बाजार मूल्य से कम मजदूरी दिए जाने के कारण आम तौर पर ग्रामीण इलाकों में पुरुष शहरों में जाकर काम करने को मजबूर हैं इसके अलावा शहरों में रोज़ मजदूरी भी मिल जाती है।  इसके बरक्स औरतें मनरेगा को पुरुष के मुकाबले ज्यादा पसंद करती हैं उसका कारण ये भी है की बाजार में उनकी मजदूरी पुरुषों के मुकाबले बहुत कम दी जाती है और उन्हें ज्यादा मेहनत वाले कामों में नहीं लिया जाता है इसलिए वह बाजार मूल्य से कम पर भी काम करने को तैयार हैं।

इसे मनरेगा की उपलब्धि भी मान सकतें हैं कि महिलाओं को रोज़गार का अवसर मनरेगा ने प्रदान किया है और मनरेगा की विफलता भी क्योंकि मनरेगा मजदूर की पहली पसंद नहीं बन पाई है, बल्कि मजबूरी का दूसरा नाम बन गया है। मनरेगा में न्यूनतम मजदूरी के सवाल पर राजनीतिक विश्लेषक और मनरेगा योजना को गहराई से समझने वाली प्रोफेसर ज़ोया हसन कहतीं हैं कि ये बात बिलकुल दुरूस्त है कि मनरेगा में मजदूरी बहुत कम है। नेशनल एडवाइज़री कमीटी ने प्रधानमंत्री डाॅ मनमोहन सिंह से मनरेगा में मजदूरी न्यूनतम आय के समान करने की दरख्वास्त की थी लेकिन प्रधानमंत्री ने मनरेगा की मजदूरी न्यूनतम मजदूरी के समान करने में अपनी असमर्थता जताई।

प्रोफेसर जोया हसन कहतीं हैं कि इसके अलावा इसे न्यूनतम मजदूरी के बराबर करना इसलिए भी मुश्किल है क्योंकि न्यूनतम मजदूरी हर राज्य में अलग-अलग है केरल में जहां न्यूनतम मजदूरी 600 रूपये है वहीं यूपी में 255 रूपये है। मनरेगा विश्व की सबसे बड़ी ग्रामीण रोज़गार योजना है। इसे वर्ष 2006 में यूपीए सरकार ने लागू किया था जिसका ग्रामीण भारत की अर्थव्यवस्था पर काफी अच्छा प्रभाव पड़ा।

मनरेगा अपेक्षाकृत परिणाम नहीं दे पाया परन्तु इस जनकल्याणकारी योजना ने ज़मीनी बदलाव बेशक लाया है।  खुद मजदूर संजय पासवान का भी मानना है कि मनरेगा में मजदूरी बहुत कम ज़रूर मिलती है लेकिन मनरेगा के कारण गांव में मजदूरी बढ़ी है।आम तौर से दिहाड़ी बढ़कर 350-500 रूपया हो गया है या 5 किलो चावल है। वहीं पहले मात्र 200 रूपये और सवा सेर कच्ची (धान) ही मिलता था।

संजय आगे कहतें हैं मनरेगा के कारण मजदूरी बढ़ी जरूर है यदि मनरेगा में मजदूरी 500 रूपये प्रतिदिन कर दी जाए तब सामान्य मजदूरी 800 रूपया दिहाड़ी हो जाएगी। मनरेगा के कारण बुरे हालात में भी खासकर कृषि संकट और सूखे के समय गांव में काम मिला है। नोट बंदी के समय जब शहर में काम मिलना मुश्किल था और शहर के लेबर चैक सुनसान हो गये थें तो मनरेगा ने ही मजदूरों को सहारा दिया है। लेकिन सरकार की उदासीनता और निचले स्तर तक फैले भ्रष्टाचार के कारण एक जनकल्याणकारी योजना बर्बाद हो रही है जिसकी तस्दीक कई अध्ययन कर रहेें हैं।

मनरेगा योजना पर किए गये कई अध्ययनों मेंये बात स्पष्ट रूप से रेखांकित की गयी है कि मनरेगा में 100 दिन के रोज़गार के बजाए 40 से 50 दिन का रोज़गार ही मिल पाता है। बिहार और उत्तर प्रदेश में स्थिति और ज्यादा खराब है। हाल ही में पंजाब विश्वविद्यालय मंे हुए शोध में भी इस तरह के ही निष्कृष सामने आएं हैं। सही मोनिटरिंग और सोशल ओडिटिंग न होने के कारण इसमें भ्रष्टाचार भी फैल रहा है। जिस कारण निचले स्तर तक इस जनकल्याणकारी योजना का लाभ पूरी तरह नहीं पहुंच पा रहा है।

मनरेगा ने बहुत हद तक ग्रामीण भारत की बेरोजगारी को दूर करने की कोशिश की है खासकर ऐसे समय में जहंा देश कृषि संकट, प्राकृतिक आपदा और बढ़ती बेरोजगारी से जूझ रहा हो खासकर हाशिये के समाज के लोगों के लिए संकट मोचक बनकर आया है। समाज के सबसे अखिरी तबके की महिलाओं को मनरेगा योजना का लाभ काफी मिला है। सरकार की उपेक्षा से भी मनरेगा को नुकसान हुआ है कभी खुद देश के मौजूदा प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी जी ने पार्लियामेंट में कहा था कि ‘मनरेगा यूपीए सरकार की असफलता का जीवित स्मारक है‘।
मनरेगा योजना को लेकर सरकार ने कभी गंभीरता नहीं दिखाई है। सरकार के मंत्रियों का भी रवैया भी मनरेगा के प्रति सकारात्मक और गंभीर नहीं रहा है। बेशक मनरेगा उन उद्देश्यों को पाने में असफल रही है जिन उद्देश्यों के लिए मनरेगा योजना को लागू किया गया था लेकिन मनरेगा को पूरी तरह से खरिज नहीं किया जा सकता है। आज भी यदि मनरेगा के बजट में उचित बढ़ोतरी किया जाए और इसकी मोनिटरिंग और ओडिटिंग सही से की जाए तो ये जनकल्याणकारी योजना गा्रमीण भारत की तस्वीर बदल सकती है।

(लेखक नेशनल फाउंडेशन फाॅर इंडिया के फेलो और जामिया मिल्ल्यिा इस्लामिया में शोधार्थी हैं) 

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