निजता कानून की आड़ में सूचना के अधिकार में संशोधन से नहीं मिलेंगी सूचनाएं

पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त यशोवर्धन आजाद ने कहा कि निजता कानून प्रजातांत्रिक ढांचे में अब तक सबसे बड़ा हमला
दिल्ली के प्रेस क्लब में नागरिक संगठनों के प्रतिनिधियों ने निजता कानून की खामियां गिनाईं। फोटो : हिमांशु
दिल्ली के प्रेस क्लब में नागरिक संगठनों के प्रतिनिधियों ने निजता कानून की खामियां गिनाईं। फोटो : हिमांशु
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“डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोक्टेशन (डीपीडीपी) कानून प्रजातांत्रिक प्रणाली में अब तक सबसे बड़ा हमला है। यह कानून भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने का काम करेगा। विरोध प्रजातंत्र का तकाजा है लेकिन यह कानून विरोध को खत्म कर ताबूत में आखिरी कील ठोकने का काम करेगा। इससे सूचना मिलनी बंद हो जाएंगी और सूचना के अधिकार (आरटीआई) का कोई औचित्य नहीं रहेगा।”

दिल्ली के प्रेस क्लब में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में ये चिताएं पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त यशोवर्धन आजाद ने जाहिर कीं। उनका कहना था कि डीपीडीपी कानून के क्रियान्वयन के लिए डेटा प्रोटेक्शन बोर्ड का गठन किया जाएगा जो कानून के उल्लंघन पर किसी पर भी 250 करोड़ रुपए तक का जुर्माना लगा सकता है।

सतर्क नागरिक संगठन (एसएनएस) की संयोजक अंजलि भारद्वाज का कहना था कि डीपीडीपी कानून के तहत सूचना के अधिकार में किया गया संशोधन प्रेस की आजादी को भी खत्म करने का काम करेगा। साथ ही कठिन सवाल पूछने वालों और जवाबदेही मांगने वालों को हतोत्साहित करेगा।

सिविल सोसायटी संगठन के तमाम सदस्यों ने एक सुर में कहा कि सूचना के अधिकार की धारा 8(1) जे में किया गया संशोधन सूचना के अधिकार को खत्म करने का काम करेगा। मजदूर किसान शक्ति संगठन से जुड़े निखिल डे का कहना था कि संशोधन के बाद निजी सूचना उस वक्त की रजामंदी के बाद दी जाएगी जिसके बारे में सूचना मांगी गई है। अंजलि भारद्वाज के अनुसार, बिना अनुमति नाम उजागर नहीं किया जा सकता। ऐसे में किसी व्यक्ति के भ्रष्टाचार से जुड़ी सूचनाएं मिलनी असंभव हो जाएंगी।

प्रेस क्लब की उपाध्यक्ष संगीता बरूआ ने बताया कि मीडिया और नागरिक अधिकार समूहों के प्रतिनिधियों ने 28 जुलाई 2025 को इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधिकारियों से मुलाकात कर डीपीडीपी अधिनियम, 2023 को लेकर गंभीर चिंताएं जताईं। उन्होंने कहा कि यह कानून पत्रकारों, व्हिसलब्लोअर्स और कार्यकर्ताओं की सरकार को जवाबदेह ठहराने की कोशिशों पर गंभीर असर डाल सकता है।

उन्होंने कहा कि कानून के पहले के मसौदों में पत्रकारिता गतिविधियों को स्पष्ट रूप से छूट दी गई थी। ये छूट अंतिम मसौदे तक मौजूद थीं, कानून पारित होते समय हटा दी गईं। यह कोई चूक नहीं हो सकती। उन्होंने यह भी कहा कि मंत्रालीय सचिव ने उन्हें मौखिक आश्वासन दिया है कि यह कानून पत्रकारों पर लागू नहीं होगा, लेकिन ऐसे बयान कानूनी रूप से कोई महत्व नहीं रखते।

सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने भी इस कानून की आलोचना करते हुए कहा कि यह व्हिसलब्लोअर्स की रक्षा करने में विफल है। “अगर कोई व्यक्ति भ्रष्टाचार उजागर करता है और अधिकारियों के नाम लेता है, तो अब उसे डीपीडीपी अधिनियम के उल्लंघन के लिए सजा दी जा सकती है। उनका कहना था कि यह कानून केवल उन कंपनियों और संस्थाओं पर लागू होना चाहिए जो डेटा का प्रसंस्करण करती हैं, न कि पत्रकारों, व्यक्तियों और नागरिक समाज के सदस्यों पर।”

भूषण ने चेतावनी दी कि यह कानून केंद्र सरकार को अत्यधिक अधिकार देता है, जिससे वह इसका इस्तेमाल आलोचकों और सरकार को जवाबदेह ठहराने की कोशिश करने वाले व्यक्तियों के खिलाफ कर सकती है।

इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के निदेशक अपार गुप्ता ने कहा कि निजता का अधिकार सरकार की निगरानी और हस्तक्षेप की शक्ति को सीमित करने का अधिकार है।

उन्होंने कहा, “गोपनीयता और डेटा संरक्षण के नाम पर सरकार जरूरी अधिकारों को कमजोर कर रही है। यह कानून सरकार को अत्यधिक केंद्रीकृत शक्ति देता है। उन्होंने कहा कि पत्रकारों से उनके स्रोतों का खुलासा करने को कहा जा सकता है, जवाबदेही पर काम कर रही सिविल सोसाइटी संस्थाओं से उनकी पूरी जानकारी मांगी जा सकती है, और व्हिसलब्लोअर्स को अपने पास मौजूद सभी दस्तावेज सौंपने के लिए मजबूर किया जा सकता है।

गुप्ता ने यह भी बताया कि डेटा प्रोटेक्शन बोर्ड प्रभावी रूप से केंद्र सरकार के नियंत्रण में है। इसके अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति, हटाना, वेतन और लाभ सब कुछ केंद्र सरकार तय करती है। उन्होंने कहा कि यह कानून इतना अस्पष्ट है कि इसे असंवैधानिक कहा जा सकता है।

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