आगे आने वाली सरकार से कुछ आशा करने से पहले यह जरुरी है कि हम वर्तमान में देश के स्वास्थ्य का जायजा लें। गरीब देश होने के कारण बहुत सालों तक यहां संक्रामक बीमारियों, जैसे कि टाइफाइड, मलेरिया का ही बोलबाला था। पर जैसे-जैसे देश अमीर होता गया, यहां बीमारियों की प्रवृत्ति बदलती चली गई और देश में गैर संक्रामक रोग (एनडीसी) बढ़ते गए। 2017 में देश की सबसे बड़ी स्वास्थ्य संस्था, भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने एक रिपोर्ट जारी की, जिससे पता चला कि देश में बीमारियों का प्रोफाइल ही बदल गया है। रिपोर्ट के मुताबिक, 1990 से 2016 के दौरान पिछले 26 वर्षों में मधुमेह 174 प्रतिशत और इस्केमिक हृदय रोग (आईएचडी)104 प्रतिशत बढ़ गया। इस अवधि के दौरान संक्रामक रोग, जच्चा-बच्चा और पोषण संबंधी रोग 61 प्रतिशत से कम हो कर केवल 33 प्रतिशत रह गए, जबकि गैर संक्रामक रोग 30 प्रतिशत से बढ़ कर 55 प्रतिशत हो गए। इन बीमारियों की एक खास बात ये है कि ये कभी ठीक नहीं होती और रोगी के पास जिंदगी भर दवाई खाने के अलावा कोई चारा नहीं रहता। इनमें मधुमेह, कैंसर, रक्तचाप, हार्ट अटैक और स्ट्रोक शामिल हैं। ये बीमारियां पहले सिर्फ बूढ़े लोगों को होती थी, पर अब 30 से 35 साल के लोगों को भी ये बीमारियां हो रही हैं।
हालांकि ऐसा नहीं है कि गैर संक्रामक रोग बढ़ने से संक्रामक रोगों का बोझ कम हो गया है। अभी भी दोनों रोगों का बोझ बढ़ रहा है। संक्रामक बीमारियों के इलाज में भी अब मुश्किलें देखी जा सकती हैं। देखा जा रहा है कि एंटीबायोटिक्स के काम न करने के कारण ये संक्रामक रोग भी लाइलाज होते जा रहे हैं।
पिछले दो दशक में मैंने देखा है कि खराब पर्यावरण ही देश की सबसे मुश्किल बीमारियों की जड़ है। अब अगर मधुमेह को ही लें तो समझ में आता है कि ये तीन प्रमुख कारणों से बढ़ रहा है। पहला तो यह कि हमारा खाना अब बदल गया है। पहले मोटा अनाज खाया जाता था, पर अब ज्यादातर मैदा खाया जा रहा है। बाजार के खाने में तो इसके साथ ज्याद चीनी और वसा भी होती है। इसको पचाने के लिए शरीर ठीक मात्रा में इन्सुलिन हॉर्मोन नहीं बना पाता और बीमार हो जाता है। बीमारी कुछ हद तक कंट्रोल की जा सकती है, अगर व्यक्ति अच्छी तरह से शारीरिक मेहनत करेे। लेकिन आजकल यह भी मुश्किल हो गया है,क्योंकि जिन लोगों को इसकी ज्यादा जरुरत है, वही डेस्क जाॅब कर रहे होते हैं। अब शहरों का नियोजन ऐसा हो गया है कि छोटी दूरी का सफर भी पैदल नहीं किया जा सकता। फुटपाथों पर गाड़ियां खड़ी कर दी जाती हैं। सड़क पार करने के लिए पैदल चलने वालों को कोई सहूलियत नहीं दी जाती। अंडर ब्रिज और ओवर ब्रिज पर गन्दगी और असामाजिक तत्वों का कब्जा रहता है। सैर करने के लिए जगह की कमी हो गई है। पिछले कुछ वर्षाें के दौरान यह भी देखने को मिला है कि पर्यावरणीय विषाक्तता से भी मधुमेह जैसी हार्मोनल बीमारियां होती हैं। कैंसर जैसी बीमारियां भी इस वजह से बढ़ रही हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की संस्था, इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर ने ऐसे कीटनाशक की पहचान की, जिनसे कैंसर हो सकता है। इसी संस्था ने यह भी बताया कि डीजल के धुएं से भी कैंसर हो सकता है। अब आप कब तक बिना सांस लिए रह सकते हैं या कब तक बिना खाए रह सकते हैं? अब एक और नया जोखिम भी सामने आ रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण डेंगू, मलेरिया और कालाजार जैसी बीमारियां बढ़ रही हैं, जबकि दूसरी ओर सेहत को नुकसान पहुंचाने वाले हीट स्ट्रोक और मानसिक बीमारियों में भी वृद्धि हो रही है।
इन सब से यह साफ है कि बीमारियों के इलाज से ज्यादा जरुरी है कि इन बीमारियों से बचने का रास्ता तलाशा जाए। गैर संक्रामक रोगों को जीवनचर्या से पैदा होने वाली बीमारियां भी कहा जाता है। ऐसे में जीवनशैली और रहन-सहन में बदलाव लाकर इन गैर संक्रामक रोगों से लड़ाई लड़ी जा सकती है।
आने वाली सरकार को इस तरफ ध्यान देना चाहिए, क्योंकि कमजोर नियमों के कारण इस पर कुछ ज्यादा प्रगति नहीं हुई है। जबकि पर्यावरण में फैल रहे जहरीले तत्वों के कारण सेहत पर साफ असर दिखाई देता है, लेकिन सरकार उस पर ठोस कार्रवाई नहीं करती। कीटनाशक रसायन हानिकारक है इसके बावजूद उनके प्रयोग पर कोई रोक-टोक नहीं है। वायु प्रदूषण से सेहत को कई तरह के नुकसान होते हैं परन्तु इसे भी नियंत्रित करने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की गई।
दुनियाभर में किए जा रहे शोध बताते हैं कि ज्यादा चीनी, नमक और वसा वाला खाना बीमार कर सकता है, लेकिन बाजार में अनियंत्रित मात्रा में बिक रहे जंक फूड व पैकेट बंद खाने को नियंत्रित करने के लिए भी कोई कारगर नीति नहीं बनाई गई है। गुणवत्तापूर्ण भोजन इतना महंगा है कि लोग जंक फूड खाने को मजबूर हैं। लोगों की सेहत में सुधार लाने के लिए न सिर्फ देश को सख्त नियमों की जरुरत है, बल्कि नई सरकार को इस ओर अपनी प्रतिबद्धता भी दिखानी होगी। जो लोग बीमार हो गए हैं, उनको कम से कम खर्चे में ठीक किया जाए। यह तो साफ है कि स्वास्थ्य सम्बन्धी खर्चे बढ़ने वाले हैं। अभी सरकार जीडीपी का कुल एक प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करती है। विशेषज्ञ पिछले कुछ दशकों से इसे बढ़ा कर तीन प्रतिशत की मांग कर रहे हैं, नई सरकार को अब इससे भी आगे सोचने की जरुरत होगी।
छोटे होते और सिकुड़ते परिवार की वजह से बहुत लोग बीमारी के समय अकेलेपन के शिकार होते हैं। ऐसी स्थिति में उनके लिए अकेले स्वास्थ्य जांच कराना या अस्पताल में खुद भर्ती होना बेहद मुश्किल भरा काम होता है। महिलाओं के लिए तो यह और भी मुश्किल होता है, क्योंकि अस्पताल में उनकी सुरक्षा का कोई प्रावधान नहीं है। यही दुविधा बुजुर्ग लोगों की भी रहती है,क्योंकि अब उनके बच्चे उनके पास नहीं रहते। छोटी-छोटी कोशिशें भी देश के लोगों की मदद करती हैं। आम आदमी पार्टी के मोहल्ला क्लिनिक को वैश्विक पहचान मिली है। परंतु अब ये समझना जरुरी है कि इसकी जरुरत ही क्यों पड़ी। आखिर प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा तो हमारे स्वास्थ्य व्यवस्था में पहले से जुड़ा हुआ है। लेकिन जो हालात दिख रहे हैं, उससे स्पष्ट तौर पर लगता है कि पैसा बनाने के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य व्यवस्था को खत्म कर दिया गया। नई सरकार को इसे ठीक करना चाहिए और प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करना चाहिए।