स्वशासन पर हमला है ग्राम पंचायतों को भंग करना
देश के कई हिस्सों में ग्राम पंचायतों को भंग कर नगर परिषदों में शामिल किए जाने का ग्रामीण विरोध कर रहे हैं। इस पर एक विस्तार रिपोर्ट आप यहां पढ़ सकते हैं। आज पढ़ें, तीसरी सरकारी अभियान के संयोजक चंद्र शेखर प्राण का आलेख
वैसे तो अंग्रेजी शासन के दौरान सन 1920 में विभिन्न अधिनियमों के तहत पंचायत एक्ट के माध्यम से आम नागरिकों को अपने गांव के विकास और न्याय व्यवस्था में कुछ हद तक भागीदारी दी गई थी, स्वतंत्रता के बाद ग्रामीण विकास की अधिकांश योजनाएं पंचायतों के माध्यम से संचालित की गईं। लेकिन 26 जनवरी 1950 को भारत का जो संविधान लागू हुआ, उसमें दो सरकारों का प्रावधान किया गया।
संविधान के भाग-5 में संघ सरकार और भाग-6 में राज्य सरकार का उल्लेख किया गया। लंबे समय तक इन्हीं दोनों सरकारों के द्वारा देश का शासन चलता रहा। वर्ष 1992 में 73वें और 74वें संविधान संशोधनों के द्वारा एक और सरकार का प्रावधान किया गया। संविधान के भाग-9 के अंतर्गत पंचायत और भाग-9ए के अंतर्गत नगरपालिका के रूप में स्व-सरकार (सेल्फ गवर्नमेंट) की व्यवस्था की गई।
हालांकि भारत के संविधान में सेल्फ गवर्नमेंट को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया, लेकिन इसका आशय केंद्र और राज्य सरकार के बाद भारतीय शासन प्रणाली में स्थानीय स्तर पर गांवों में स्वयं की सरकार के रूप में इसे विषय व क्षेत्र में अपने निर्णय लेने का अधिकार प्रदान करना था।
73वें संविधान के भाग 9 में कुछ प्रावधानों को राज्य के अधिनियमों में अनिवार्य किया गया, लेकिन कुछ प्रावधानों को संविधान के निर्देश के अनुरूप राज्य के विधान मंडलों के विवेक पर छोड़ दिया गया।
अनिवार्य प्रावधानों में ग्राम सभा का गठन, पंचायतों की संरचना, आरक्षण, राज्य वित्त आयोग व राज्य चुनाव आयोग का गठन शामिल था, लेकिन विभिन्न स्तरों की पंचायतों, उनकी शक्तियां व अधिकार, वित्त लेखा आदि को स्वैच्छिक प्रावधान मान लिया गया।
इस प्रावधान के चलते पंचायतों को अधिकार व शक्ति देने में राज्य सरकारें मनमाना व्यवहार करती हैं, ग्राम पंचायतों को भंग करने या नगर निकायों में शामिल करना भी इसमें शामिल है। संविधान में कहा यह गया है कि शहरी क्षेत्रों पर 74वां और ग्रामीण क्षेत्र में 73वां संशोधन लागू होगा।
यह नहीं कहा गया कि गांव को तोड़ कर शहर बना दिया जाए। सरकारें गांवों की स्वायत्तता को नष्ट कर रही है और लोगों को आपत्तियां दर्ज कराने का मौका नहीं दिया जाता। ग्रामीणों को बरगला लिया जाता है कि शहर बनने पर उनका गांव विकसित हो जाएगा, जबकि देश में जो शहर पहले से हैं, वो ही विकसित नहीं हो पा रहे हैं।
शहरों के विकास की जिम्मेवारी प्राधिकरण को सौंपी जा रही है, जबकि वो प्राशसनिक निर्णय है। दिल्ली से यह सिलसिला शुरू हुआ था, हालांकि दिल्ली की परिस्थितियां अलग हैं, अब पूरे देश में यह सिस्टम अपनाकर नौकरशाही के हवाले किया जा रहा है और पंचायत या नगर पालिका जैसी लोकतांत्रिक इकाइयों को भंग करके प्रशासनिक इकाई बनाया जा रहा है। सभी राज्य सरकारें ऐसा कर रही हैं।
नोएडा, ग्रेटर नोएडा एक बड़ा उदाहरण है। सवाल इतना ही नहीं है कि केवल मनरेगा जैसी सुविधाओं के लिए विरोध किया जाए, बल्कि यह तो 73वें और 74वें संशोधन के विरुद्ध है। अतः इस पर राज्य सरकारों के साथ साथ भारत सरकार के भी संबंधित पक्षों द्वारा गंभीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए।
(लेखक तीसरी सरकार अभियान के संस्थापक हैं)