क्या हमारे बजट में जन भागीदारी है?

बजट में जन भागीदारी बढ़ाने की सरकारी कोशिशें क्या वाकई कारगर हैं या ये महज औपचारिकता मात्र हैं?
केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण। फाइल फोटो-पीआईबी
केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण। फाइल फोटो-पीआईबी
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केंद्रीय बजट पेश होने से पहले बेहद गोपनीय रखा जाता है। संसद में पेश होने से छह महीने तक किसी को इसकी भनक नहीं लगने दी जाती। केंद्रीय मंत्रिमंडल भी संसद में पेश होने से कुछ घंटे पहले ही इसे देख पाता है। केंद्रीय बजट देश में पेश होने वाले सभी बजटों का करीब 50 प्रतिशत होता है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के कार्यकाल में वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी बजट को पारदर्शी और सहभागी बनाना चाहते थे। उन्होंने बजट बनाने की प्रक्रिया में सुधार की कोशिश की थी। बजट के लिए उन्होंने सिविल सोसायटी के लोगों से बातचीत का सिलसिला शुरू किया था।

मौजूदा एनडीए सरकार ने भी बजट में लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए उनकी प्रतिक्रियाएं मंगाईं। 2017-18 के बजट से पहले सरकार ने “बजट में जनभागीदारी से आएगा परिवर्तन, बदलेगा देश, खुशहाल होगा जन-जन”, “बजट में भागीदारी, प्रगति में साझेदारी” और हो रही बजट की तैयारी, चलो बढ़ाएं जन भागीदारी” जैसे नारे दिए।

साल 2017 में इंटरनेशनल बजट पार्टनरशिप के ओपन बजट सर्वे में पारदर्शिता के मामले में भारत को 100 में से 48 अंक मिले थे जो बताता है कि भारतीय बजट में पारदर्शिता की कमी है। भारत की स्थिति अफगानिस्तान से भी खराब है। सर्वे में कुल 102 देश शामिल थे। साल 2015 के सर्वे में भारत के 46 अंक थे। इससे पहले 2006, 2008, 2010 और 2010 में क्रमश: 53, 60, 67 और 68 अंक के साथ स्थिति थोड़ी बेहतर थी। स्पष्ट है कि 2015 और 2017 के सर्वे में भारत पारदर्शिता के मामले में पिछड़ा है। सहभागिता अथवा जन भागीदारी के मामले में भी भारत के बजट की स्थिति खराब है। 2017 के सर्वे के अनुसार, भारत बजट प्रक्रिया से लोगों को जोड़ने का कम अवसर देता है।

जन भागीदारी और पारदर्शिता बढ़ाने के तमाम प्रयासों के बीच ऐसी स्थिति कुल मूलभूत सवाल खड़े करती है। मसलन, वित्त मंत्री किस मकसद से और क्यों लोगों के समूह से मिलते हैं? क्या इन मुलाकातों से बजट को प्रभावित किया जा सकता है? क्या इतने महत्वपूर्ण बजट को प्रभावित करने के लिए इन लोगों के पास पहले से बजट से जुड़ी बारीक जानकारियां होती हैं? आइए इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने की कोशिश करते हैं।

सिविल सोसायटी से मिलना महज औपचारिकता

बजट का चक्र चार चरणों से होकर गुजरता है- बजट फॉर्म्युलेशन, बजट इनेक्टमेंट, इंप्लीमेंटेशन और इसका ऑडिट। दिल्ली स्थित गैर लाभकारी संगठन सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस अकाउंटेबिलिटी के कार्यकारी निदेशक सुब्रत दास कहते हैं, “पहले दो और अंतिम चरण को लोगों द्वारा प्रभावित नहीं किया जा सकता। केवल इंप्लीमेंटेशन के चरण को कुछ हद तक प्रभावित करने की संभावना होती है।” इन सभी चरणों में बजट फॉर्म्युलेशन सबसे गोपनीय होता है। वित्त मंत्री द्वारा लोगों या समूहों से मुलाकात इसी चरण पर प्रतिक्रिया लेने के लिए होती है।

बजट की प्रक्रिया वित्त मंत्री के बजट सर्कुलर जारी करने के बाद सितंबर में ही शुरू हो जाती है। इस चरण में विभिन्न सरकारी विभागों के खर्चों और राजस्व का अनुमान लगाया जाता है। इसी चरण में कोई बजट को प्रभावित कर सकता है। इस चरण के बाद जटिल प्रक्रियाओं की जानकारी हासिल करना बेहद मुश्किल होता है। इस चरण में कोई सरकारी मंत्रणा नहीं होती।

आमतौर पर वित्त मंत्री जनवरी में लोगों से मुलाकात करते हैं। तब तक वित्त मंत्री के पास खर्चों का लेखा जोखा आ जाता है। यह मुलाकात राजस्व के पहलू (कराधान) पर कारगर हो सकती है। यही वह मौका होता है जब उद्योगों से जुड़े लोग वित्त मंत्री से मिलकर बजट को प्रभावित कर सकते हैं। हम सब जानते हैं कि उनकी चिंताएं करों में कटौती को लेकर होती हैं।

बहुत से समूह मंत्रालयों पर बजट में बदलाव का दबाव बनाते हैं। लेकिन उनसे बातचीत का समय नहीं होता। ऐसा इसलिए क्योंकि फरवरी में वित्त मंत्रालय बहुत सी योजनाओं के लिए धनराशि का आबंटन कर देता है। इसकी भनक दूसरे मंत्रालयों को भी नहीं लगती। इसलिए इस चरण में वित्त मंत्री की लोगों से मुलाकात दिखावा मात्र होता है।

अनुदान की 84 प्रतिशत मांगों पर चर्चा नहीं होती

बजट सत्र को देखने पर पता चलता है कि संसद को बजट पर चर्चा करने के लिए 30-35 दिन ही मिलते हैं। इसमें अनुदान की 105 मांगों को चर्चा की जाती है। आदर्श रूप में हर अनुदान पर चर्चा होनी चाहिए लेकिन लोकसभा में भी ऐसी चार से पांच मांगों पर ही चर्चा हो पाती है। शेष कागज के पुलिंदे में बंधकर गिलोटिन नामक संसदीय कार्यवाही हेतु मतदान के लिए चली जाती हैं।

2010-11 के बजट में तीन मंत्रालयों की वित्त मांगों पर संसद में विस्तार से चर्चा हुई थी। कुल मांगों में ये महज 16 प्रतिशत थीं। बाकी की 84 प्रतिशत मांगें गिलोटिन के लिए चली गईं यानी बिना चर्चा के पास हो गईं।

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