आरटीआई एक्ट में संशोधन विधायिका और राज्यों की संप्रभुता खत्म करने का प्रयास

आरटीआई एक्ट में संशोधन विधायिका और राज्यों की संप्रभुता खत्म करने का प्रयास

सूचना का अधिकार कानून में संशोधन किया गया है। इस संशोधन को लेकर केंद्रीय सूचना आयुक्त रह चुके एम श्रीधर आचार्युलु ने डाउन टू अर्थ के लिए एक लेख लिखा है। पेश है इस लेख की पहली कड़ी-
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मैंने सोचा था कि प्रचंड बहुमत से दुबारा चुनकर आने के बाद नरेंद्र मोदी सरकार काफी मजबूत हुई है। लेकिन अफसोस की बात है कि सरकार सूचना के अधिकार (आरटीआई) और केंद्रीय सूचना आयोग(सीआईसी) से डर रही है। मानो ये ऐसे राक्षस हैं, जो शक्तिशाली शासकों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। आरटीआई अधिनियम के तहत, भारत में सूचना आयुक्त का पद एक दंतहीन संस्था से थोड़ा ही अधिक ताकतवर है। हालांकि यह केंद्रीय चुनाव आयुक्त और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समान पद है, लेकिन यह इतना कमजोर है कि यह अपने स्वयं के आदेश को लागू नहीं करवा सकता। हालांकि इसके पास स्वतंत्रता है, लेकिन अधिकांश सूचना आयुक्त गोपनीयता की अपनी पोषित संस्कृति से बाहर नहीं आ सके हैं। वजह, एक जनसेवक के तौर पर वे दशकों तक अपनीपुरानी कार्य संस्कृति में ही डूबे रहे और सरकारी कृपा की वजह से पारदर्शिता लाने जैसे काम को लागू करवाने के लिए चुने गए।

मुझे वास्तव में यह समझ में नहीं आता कि सरकार डरी हुई है या नौकरशाही आरटीआई से खफा है, क्योंकि हर साल 60 से 70 लाख लोग सरकार से जानकारी मांगते हैं। क्या सरकार ने आरटीआई कानून को खत्म करने के लिए भ्रष्ट बाबुओं के दबाव में घुटने टेक दिए हैं?

आरटीआई सरकारी कार्यालयों की फाइलों में पड़े कागज की एक प्रति पाने तक ही सीमित है और सीआईसी ज्यादा से ज्यादा किसी लोक सूचना अधिकारी को कारण बताओ नोटिस जारी कर सकता है या अधिकतम 25,000 रुपए का जुर्माना लगा सकता है। सूचना आयोग के पास केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण जैसी शक्ति भी नहीं है। सरकार ने इस कानून को कमजोर करने के लिए अपने थिंक टैंक का इस्तेमाल किया, अपनी लॉबिंग पावर को आगे किया, क्षेत्रीय दलों से मदद मांगीऔर रणनीतिक रूप से सांसदों को विधेयक पढ़ने तक का समय नहीं दिया, जिससे वे अपना विरोध सही तरीके से दर्ज करा सकें। सरकार ने बिना समय गंवाए इसे बड़ी तेजी से क्रियांवित किया। तब तक किसी को इस संशोधन के बारे में पता तक नहीं चला जब तक यह संसद में निर्धारित बिजनेस में नहीं दिखा। हाल के चुनाव में बीजेपी को पराजित करने वाले तीन शक्तिशाली क्षेत्रीय दल, टीआरएस (तेलंगाना), वाईएसआर कांग्रेस पार्टी (आंध्र प्रदेश) और बीजू जनता दल (ओडिशा) ने पहले विधेयक का विरोध किया, लोकसभा में समर्थन नहीं दिया लेकिन राज्यसभा में एनडीए की ताकत को बढ़ा दिया, जिससे यह विधेयक आसानी से पारित हो गया। यह आश्चर्य की बात है कि तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी जहां पहले शक्तियों के केंद्रीकरण के खिलाफ फेडरल फ्रंट बनाने की बात कर रहे थे, राज्य की स्वायत्तता की बात कर रहे थे, अचानक उन्होंने पलटी मारी और सूचना आयुक्त पर केंद्रीय नियंत्रण के पक्ष में खड़े हो गए।

राज्यों की स्वायत्तता छीनी

राजस्थान एक ऐसा राज्य है, जहां सूचना का अधिकार आंदोलन का जन्म हुआ और फिर इसने पूरे देश के शासन में क्रांति लाने का काम किया। 2019 में आरटीआई संशोधन के साथ ही राज्य सरकार को, अधिसूचना जारी करने के बावजूद, राज्य सूचना आयुक्तों के चयन प्रक्रिया को रोकना होगा, क्योंकि राज्यों को सूचना आयुक्तों का दर्जा, कार्यकाल, वेतन और सेवा शर्तों के लिए केंद्र के निर्णय की प्रतीक्षा करनी होगी। आरटीआई अधिनियम 2005 और भारतीय संविधान के मानदंडों के तहत राज्य सूचना आयोग का मौजूदा स्टेटस (दर्जा) पूरी तरह खारिज कर दिया जाएगा। यह संशोधन किसी भी राज्य में संवैधानिक अधिकार के तौर पर सूचना का अधिकार कानून लागू करने की राज्यों की संप्रभु शक्तियों का अतिक्रमण करने के लिए बनाया गया है। यह सूचना पाने और सार्वजनिक रिकॉर्ड तक पहुंच के अधिकार को लागू करने वाले आरटीआई कानून व संविधान के अनुरूप नहीं है।

लोगों ने राष्ट्रपति से पोस्ट कार्ड, ईमेल, ऑनलाइन याचिकाओं और ट्विटर के माध्यम से सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक, 2019 को वापस करने और अस्वीकार करने का अनुरोध किया लेकिन उनके अनुरोध को नजरअंदाज कर दिया गया।लोगों का कहना है कि ये विधेयक दोनों सदनों के सदस्यों द्वारा विस्तृत विचार-विमर्श किए बिना, जल्दबाजी में पास कर के राष्ट्रपति की सहमति के लिए भेजा गया है।

यह संशोधन संविधान की कसौटी पर खरा नहीं उतर सकता, क्योंकि यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) का उल्लंघन करता है, जिसके तहत सूचना का अधिकार लोगों के मूल अधिकार का एक अभिन्न अंग है। इस संशोधन का उद्देश्य सूचना आयोग जैसी संस्था को नीचा दिखाना और उसके कार्य-प्रक्रिया की स्वतंत्रता या स्वायत्तता को नुकसान पहुंचाना है।

केंद्र के पास राज्यों के लिए कानून बनाने का अधिकार नहीं

2005 से पहले आरटीआई को लेकर आठ राज्य सरकारों ने कानून बनाए थे, जिन्हें आरटीआई अधिनियम 2005 के बावजूद लागू किया जा रहा है। ये राज्य अधिनियमसमवर्ती सूची की प्रविष्टि 12 के कारण मान्य हैं जो कहता है,“साक्ष्य और शपथ;कानून, सार्वजनिक कानून और रिकॉर्ड और न्यायिक कार्यवाही की मान्यता।”

आरटीआई नागरिकों को सार्वजनिक रिकॉर्डतक पहुंचने में सक्षम बनाता है, जो सार्वजनिक प्राधिकरण के पास होता है। आठ राज्योंका कानूनइसी खंड या सूची III के एंट्री के तहत बचा हुआ है।आरटीआई विधेयक 2004का उद्देश्य है,“प्रस्तावित कानून भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत मान्यसूचना के अधिकार को प्रभावी बनाने के लिए एक प्रभावी ढांचा प्रदान करेगा।”ऐसे में यह आरटीआई संशोधन इस कानून को कमजोर करेगा और सूचना आयुक्तों के कद, शक्तियों और स्वायत्तता पर प्रतिबंध लगाएगा।

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