सूचना का अधिकार कानून के 20 साल: पारदर्शिता की लड़ाई में विधायी बाधाएं
इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसई

सूचना का अधिकार कानून के 20 साल: पारदर्शिता की लड़ाई में विधायी बाधाएं

लोकतंत्र के चारों स्तंभों में विशेषकर विधायिका ने आरटीआई को कमजोर करने का प्रयास किया
Published on

सूचना का अधिकार अधिनियम सरकारी सूचनाओं तक नागरिकों की पहुंच को संस्थागत बनाकर भारतीय शासन में एक महत्वपूर्ण बदलाव का जरिया बना। शुरुआत में पारदर्शिता सुनिश्चित करने, जवाबदेही को बढ़ावा देने और भ्रष्टाचार से निपटने के लिए एक क्रांतिकारी उपाय के रूप में तारीफ पाने वाली आरटीआई व्यवस्था को बाद में कमजोर करने वाले विधायी संशोधनों, प्रणालीगत देरी, संस्थागत स्वायत्तता का कमजोर होना और आरटीआई कार्यकर्ताओं को खतरे जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ा।

यह भी पढ़ें
सूचना का अधिकार कानून के 20 साल: खात्मे की ओर आंदोलन की उपज
सूचना का अधिकार कानून के 20 साल: पारदर्शिता की लड़ाई में विधायी बाधाएं

सुशासन और पारदर्शिता के लिए लंबे संघर्ष के बाद हासिल आरटीआई केवल जानने का अधिकार नहीं है, बल्कि यह तो सूचना के अधिकार का केवल एक छोटा हिस्सा भर है। फिर भी यह एक चमत्कार साबित हुआ। कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के दूसरे कार्यकाल के दौरान कई प्रगतिशील कानूनों के साथ यह विकसित हुआ। हम दावा कर सकते हैं कि आरटीआई ने नागरिकों को सार्वजनिक प्राधिकरणों से सूचना प्राप्त करने का अधिकार देकर संवैधानिक सुशासन की परिभाषा को बदल दिया।

लोकतंत्र के तीन स्तंभ-कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका हैं। खामियों के बाजवूद चौथा स्तंभ मीडिया माना जाता है। आरटीआई के कारण एक नए पांचवां स्तंभ अर्थात नागरिक समाज का उदय हुआ। दुर्भाग्यवश, सभी चारों स्तंभों ने संवैधानिक कानून को निराश किया। विशेषकर विधायिका ने आरटीआई को कमजोर करने का प्रयास किया। वहीं शिक्षा का अधिकार (आरटीई) कार्यपालिका को शिक्षित करने के लिए तैयार नहीं हुआ।

उम्मीद की किरण

2005 में अधिनियमित आरटीआई भारत में सहभागी शासन की दिशा में एक आधारभूत कदम के रूप में परिकल्पित किया गया था। शिक्षा का अधिकार अधिनियम (2009) और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (2005) के साथ आरटीआई संवैधानिक आदर्शों को क्रियान्वित करने के लिए एक विधायी प्रयास का प्रतिनिधित्व करता था। हालांकि भारत में आरटीआई व्यवस्था आज अस्तित्वगत खतरों का सामना कर रही है। एक के बाद एक सरकारों ने इसके संस्थागत ढांचे को कमजोर किया है, संशोधनों के माध्यम से इसके दायरे को सीमित किया है और प्रणालीगत अक्षमताओं से जनता के विश्वास को कम करने दिया है।

यह भी पढ़ें
सूचना का अधिकार कानून के 20 साल: पारदर्शिता की लड़ाई में नई चुनौतियां
सूचना का अधिकार कानून के 20 साल: पारदर्शिता की लड़ाई में विधायी बाधाएं

आरटीआई ने नागरिकों को सरकारी अधिकारियों से सवाल पूछने, व्यय की जांच करने और आधिकारिक दस्तावेजों तक पहुंचने का अधिकार दिया। आदर्श आवास घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला और काले धन के खुलासे जैसे उल्लेखनीय मामले आरटीआई-आधारित खुलासों के कारण ही संभव हुए। सांसदों और विधायकों के धन उपयोग रिकॉर्ड तक पहुंचने की क्षमता ने सार्वजनिक निगरानी को मजबूत किया है। इसके अलावा, आरटीआई ने खोजी पत्रकारिता और डिजिटल सक्रियता को बढ़ावा दिया है। उदाहरण के लिए अफरोज आलम साहिल ने स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों तक पहुंचने के लिए आरटीआई का उपयोग किया, जिससे 315 से अधिक आवश्यक दवाओं की कीमतों में 70 प्रतिशत तक की कमी आई। यूट्यूब, फेसबुक और वैकल्पिक मीडिया स्रोत जैसे प्लेटफॉर्म सरकारी विफलताओं को उजागर करने के लिए आरटीआई के जवाबों का तेजी से उपयोग कर रहे हैं।

यह भी पढ़ें
“सूचना आयोगों में रिक्त पदों से निष्प्रभावी हो जाता है कानून”
सूचना का अधिकार कानून के 20 साल: पारदर्शिता की लड़ाई में विधायी बाधाएं

आरटीआई अधिनियम की धारा 4 सार्वजनिक प्राधिकरणों को महत्वपूर्ण जानकारी को सक्रिय रूप से प्रकाशित करने का आदेश देती है। हालांकि इस प्रावधान को शुरू में कुछ कठोरता के साथ लागू किया गया था, लेकिन नौकरशाही के प्रतिरोध और संस्थागत जड़ता ने इसकी प्रभावशीलता को कमजोर कर दिया है। हालांकि, कुछ राज्य-स्तरीय पहल उल्लेखनीय हैं जैसे, महाराष्ट्र ने आरटीआई आवेदनों और प्रतिक्रियाओं का एक ऑनलाइन डेटाबेस स्थापित किया है, जिससे जानकारी कीवर्ड-खोजने योग्य हो गई है।

इसी तरह गुजरात ने उपयोगकर्ता-अनुकूल प्रथाओं की शुरुआत की है। इनमें मुफ्त प्रथम पृष्ठ, फाइलों तक फोटो पहुंच और कुशल शिकायत निवारण जैसे उपाय शामिल हैॅं। रिपोर्टों के अनुसार, इसके सूचना आयोग ने 2018 तक नगण्य लंबित मामलों के साथ लगभग 10,000 मामलों का निपटारा किया। अदालतों ने आरटीआई के व्यापक अधिदेश को लगातार बरकरार रखा है। उदाहरण के लिए, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि निर्मिति केंद्र (एक राज्य-वित्त पोषित संस्थान) आरटीआई के दायरे में आता है और सूचना का खुलासा करने से इनकार करने पर उसे दंडित किया। इस तरह के न्यायिक हस्तक्षेप आरटीआई व्यवस्था को मजबूत करते हैं और शासन में इसकी प्रासंगिकता की पुष्टि करते हैं।

विधायी बाधाएं

आरटीआई अधिनियम में 2019 के संशोधन ने केंद्र सरकार को सूचना आयुक्तों के कार्यकाल, वेतन और सेवा शर्तों को निर्धारित करने का अधिकार दिया, जिससे संस्थागत स्वतंत्रता के मूल स्वरूप को कमजोर किया गया। विद्वानों और नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं ने तर्क दिया है कि इससे कार्यपालिका के हस्तक्षेप और राजनीतिक नियुक्तियों का द्वार खुल जाता है, जिससे आरटीआई न्याय निर्णयन निकायों की विश्वसनीयता कमजोर होती है। ताजा हमला डेटा अधिनियम से हुआ। इसने आरटीआई में संशोधन करके सभी व्यक्तिगत डेटा के लिए एक व्यापक छूट प्रदान की और जनहित के प्रावधान को हटा दिया। इससे सरकारी अधिकारियों के आचरण, संपत्ति और योजना कार्यान्वयन से संबंधित आवश्यक जानकारी तक पहुंच बाधित होती है जो सोशल ऑडिट जैसे तंत्रों को पंगु बना देती है। इसने पारदर्शिता को लगभग खत्म कर दिया है। जनहित के प्रावधान को हटाने से आरटीआई का मूल सार ही सीमित हो जाता है जो सुनिश्चित करता है कि गोपनीयता सार्वजनिक कदाचार को न ढके।

संस्थागत जड़ता

अगला आघात कार्यपालिका की ओर से आया, जिसमें राजनीतिक सरकार और उसके समर्थक अधिकारी शामिल थे, जो भलीभांति जानते हैं कि आरटीआई जवाबदेही की नैतिकता के साथ मेल नहीं खाती। वे इस पर विश्वास नहीं करते। इससे आरटीआई के क्रियान्वयन को व्यापक संस्थागत देरी का सामना करना पड़ रहा है, जैसे:

  • 2022 के मध्य तक 3,14,000 से अधिक अपीलें लंबित थीं (केंद्रीय सूचना आयोग वार्षिक रिपोर्ट, 2022)

  • कई राज्य सूचना आयोग, विशेषकर झारखंड, त्रिपुरा, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना या तो निष्क्रिय या अक्षम हैं

  • 2015 से 2023 के बीच उल्लंघनों पर केवल 4 प्रतिशत जनसूचना अधिकारियों को ही दंडित किया गया।

इसके अतिरिक्त, तकनीकी आधारों पर उच्च दर से अस्वीकृति और मंत्रालयों द्वारा धारा 8 की छूट का अत्यधिक प्रयोग इस कानून की पहुंच और प्रभावशीलता को गंभीर रूप से प्रभावित कर रहा है।

सरकार जानकारी न देने में प्रसन्न है, जबकि विपक्ष भी इस स्थिति को जारी रखने में परवाह नहीं करता। अनुपालन न करने की संस्कृति आम है। 2015 से 2023 तक केवल 4 प्रतिशत जनसूचना अधिकारियों को दंडित किया गया। तमिलनाडु में 2024 में लगभग 14,000 मामलों में केवल 21 दंड ही लगाए गए। इसके अलावा, महत्वपूर्ण मंत्रालयों द्वारा धारा 8 की छूट का हवाला देकर आवेदनों को रणनीतिक रूप से अस्वीकार किया जाता है। स्वयं आरटीआई दाखिल करने की प्रक्रिया ही नौकरशाही अड़चनों से भरी हुई है। उदाहरण के लिए, दिल्ली में 60 प्रतिशत आरटीआई अपीलें तकनीकी आधारों जैसे गलत प्रारूप या भाषा के कारण खारिज कर दी जाती हैं। अधिकांश दाखिल आरटीआई आवेदन अंततः अस्वीकृत ही हो जाते हैं।

यह भी पढ़ें
सूचना का अधिकार कानून के 20 साल: पारदर्शिता की लड़ाई में नई चुनौतियां
सूचना का अधिकार कानून के 20 साल: पारदर्शिता की लड़ाई में विधायी बाधाएं

आरटीआई अधिनियम अपने प्रावधानों के अनुसार, चलता है और सरकार द्वारा इसके लिए धन भी आवंटित किया जाता है। उम्मीद थी कि आरटीआई का इस्तेमाल लोगों को जागरूक करने के लिए होगा। लेकिन जागरुकता का स्तर विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत कम है। लोकनीति-सीएसडीएस के अनुसार, ग्रामीण भारत में केवल 12 प्रतिशत और शहरी भारत में लगभग 30 प्रतिशत लोग ही आरटीआई के बारे में जानते हैं। आरटीआई आवेदनों के लिए आवश्यक ढांचा अक्सर अपर्याप्त होता है, जिससे असमानताएं और बढ़ जाती हैं। साथ ही, तुच्छ या दुर्भावनापूर्ण आरटीआई आवेदनों के माध्यम से कानून का दुरुपयोग भी बढ़ रहा है, जो प्रणाली पर अतिरिक्त बोझ डालता है और उसकी कार्यक्षमता को कम कर देता है।

कार्यकर्ताओं को खतरे

आप इसे व्हिसलब्लोइंग या कोई और सुंदर नाम दे सकते हैं, लेकिन यह “योद्धा” की हत्या है और उसे आरटीआई का उपयोग करने और उन्हें लागू करने वालों की तस्वीरों पर लटका दिया जाता है। ऐसा न करने पर आरटीआई कार्यकर्ताओं को नियमित रूप से हिंसक प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ता है। आरटीआई उपयोगकर्ताओं को अक्सर शारीरिक नुकसान, धमकी और झूठे कानूनी मामलों का सामना करना पड़ता है। कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव की 2023 की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2005 से अब तक 51 से ज्यादा आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है और 300 से ज्यादा को परेशान या हमला किया गया है (देखें, सूचना के खतरे, पेज 45)। व्हिसलब्लोअर संरक्षण अधिनियम (2014) का क्रियान्वयन ठीक से नहीं हो रहा है, जिससे व्यावहारिक सुरक्षा बहुत कम मिलती है।

आगे का रास्ता

अधिकांश सक्रिय लोगों ने कानून के माध्यम से सूचना आयुक्तों के लिए निश्चित कार्यकाल और वेतन बहाल करने की मांग की। चूंकि यूपीए ने कानून बनाया था, इसलिए एनडीए इससे सहमत नहीं होगा। इस लेखक और लेखक के दोस्तों सहित कई लेखों का मानना था कि इससे आयोगों को कार्यपालिका के हस्तक्षेप से बचाने और निष्पक्ष निगरानी सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी। इसके लिए जरूरी है कि 2019 के संशोधन को रद्द करें या सूचना आयुक्तों के लिए निश्चित कार्यकाल और सेवा शर्तें सुनिश्चित करने वाला नया कानून पारित करें। साथ ही पारदर्शी, द्विदलीय नियुक्ति प्रक्रिया स्थापित करें।

आरटीआई अधिनियम को मूल भावना और सिद्धांतों के साथ लागू किया जाना चाहिए था। अनुभव से अपवादों को समझकर भ्रष्टाचार को कम किया जा सकता है। ईमानदारी से कहें तो सरकार को धारा 8(1)(जे) को संशोधित या निरस्त करने पर सहमत होना चाहिए ताकि जनहित को प्राथमिकता दी जा सके, जिससे लोक सेवकों के आचरण या लाभार्थी आंकड़ों जैसे महत्वपूर्ण खुलासे संभव हों, विशेषकर सामाजिक लेखा-जोखा के लिए। लेकिन क्या ऐसा किया जा सकता है? खासकर तब जब राजनीतिक शासन चुनाव जीतने में ही रुचि रखता है और “शासन” को पूरी तरह भूल जाता है। वे चुनाव, चुनाव अधिकारी और आयुक्तों तक को मैनेज करते हैं, जहां सरकार में नियुक्तियों से पहले ही नींव रखी जाती है।

सरकारों को पहले से मालूम होता है कि रिक्तियां आने वाली हैं। वे यह भी जानती हैं कि नई नियुक्तियां सेवानिवृत्ति की तारीखों के साथ आती हैं। फिर भी वे नए चेहरों के चयन की चिंता नहीं करती। वे खामियां, अयोग्यता और कमियां पैदा करती हैं ताकि मुकदमेबाजी बढ़े, न्यायालयों के दरवाजे खटखटाए जाएं और मामले सुप्रीम कोर्ट तक जाएं। लंबित मामलों पर निर्भर रहते हुए नियुक्तियां होती हैं और किसी तरह कार्यकाल पूरा कर लिया जाता है। रिक्तियों को समय पर भरें, रिकॉर्ड प्रणाली का आधुनिकीकरण करें, अनुपालन न करने वालों को दंडित करें और अपील प्रक्रिया को सरल बनाकर लंबित मामलों को घटाएं, ये सब संभव है और वे इससे वाकिफ हैं। लेकिन इच्छा नहीं है, केवल रुचि का अभाव है। गुजरात और महाराष्ट्र जैसे सफल मॉडलों से सीखना इन सुधारों का मार्गदर्शन कर सकता है।

आरटीआई का इस्तेमाल करने वालों की सुरक्षा के लिए जरूरी है कि व्हिसलब्लोअर प्रोटेक्शन एक्ट (2014) को मजबूत करें और लागू करें, गवाह और आवेदक की सुरक्षा बढ़ाएं और पारदर्शिता चाहने वालों के लिए खतरों की सक्रिय निगरानी सुनिश्चित करें। ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष रूप से आरटीआई अधिकारों पर जनशिक्षा अभियान लागू करें। आवेदन प्रक्रियाओं को सरल बनाएं, बहुभाषी विकल्प दें, ऑफलाइन विकल्प उपलब्ध कराएं और डिजिटल साक्षरता उपकरणों को बढ़ावा दें। वास्तविक आरटीआई आवेदकों को जानकारी पाने का केवल नौ प्रतिशत अवसर मिलता है। अधिकांश जनसूचना अधिकारी तभी जानकारी देने में रुचि दिखाते हैं, जब कर्तव्य के प्रति सचेत हों। फिर सफलता इस पर निर्भर करती है कि प्रथम अपील निपटाने वाले अधिकारी किस प्रकार काम करते हैं। सार्वजनिक प्राधिकरणों के भीतर कार्य करने वाले प्रथम अपीलीय प्राधिकरण का सक्रिय सहयोग निश्चित रूप से वास्तविक आवेदक की मदद करेगा। दूसरी अपील तक पहुंचने वालों का प्रतिशत फिर से कानून के शासन और निहित स्वार्थों पर निर्भर करता है, जो सुशासन में मदद करने के लिए प्रतिबद्ध हों। दुर्भावनापूर्ण आरटीआई आवेदनों के लिए कुछ बुनियादी मानक या फिल्टर लागू किए जाएं, जैसे प्रासंगिकता की घोषणा आवश्यक करना या ऐसे बार-बार दाखिल किए गए आवेदनों को हतोत्साहित करना जो सिस्टम पर बोझ डालते हैं। अंत में कह सकते हैं आरटीआई गहरा प्रभाव डाल चुका है, चाहे वह भ्रष्टाचार उजागर करना हो, नागरिकों को सशक्त बनाना हो या फिर लोकतांत्रिक निगरानी को प्रोत्साहित करना। लेकिन बढ़ते संशोधन, संस्थागत कमजोरियां और नौकरशाही की जड़ता ने इसके वादे को संकट में डाल दिया है। हाल की उत्साहवर्धक और चिंताजनक घटनाएं पारदर्शिता और नियंत्रण के बीच चल रही जद्दोजहद को उजागर करती हैं।

आरटीआई की भावना को पुनर्जीवित करने के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इनमें कानूनी संशोधन, संस्थागत सुधार, जनशिक्षा और राजनीतिक प्रतिबद्धता शामिल है। यदि इसे फिर से सशक्त किया जाए तो आरटीआई लोकतांत्रिक कवच के रूप में अपनी भूमिका फिर से निभा सकती है, यह सुनिश्चित करते हुए कि शासन जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए बना रहे। सच्चे मतदान के बिना लोकतंत्र नहीं हो सकता। भ्रष्टाचार के साथ शासन करना असंभव है।

(डॉ. एम. श्रीधर आचार्युलू पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त हैं और वर्तमान में हैदराबाद स्थित महिंद्रा विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ लॉ में प्रोफेसर हैं)

Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in