उत्तराखंड: अभयारण्य से निकले, जंगलात में फंसे 3,000 से अधिक ग्रामीण

केंद्र सरकार के एक फैसले के बाद उत्तराखंड के कस्तूरा मृग अभयारण्य (सेंचुरी), अस्कोट के एक दर्जन से अधिक गांव के लोगों की मुसीबतें कम होने की बजाय बढ़ गई हैं
उत्तराखंड के कस्तूरा मृग अभयारण्य (सेंचुरी), अस्कोट से सटे कुरखेती गांव में महिलाओं को खेती के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। फोटो: पूरन बिष्ट
उत्तराखंड के कस्तूरा मृग अभयारण्य (सेंचुरी), अस्कोट से सटे कुरखेती गांव में महिलाओं को खेती के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। फोटो: पूरन बिष्ट
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आसमान से गिरे, खजूर पर अटके। उत्तराखंड के कस्तूरा मृग अभयारण्य (सेंचुरी), अस्कोट से सटे कनार क्षेत्र के गांवों का यही हाल है। साल 2021 में केंद्र सरकार के 700 गांवों को अभयारण्य से बाहर करने के फैसले के बाद ज्यादातर गांवों में विकास कार्य शुरू हो गए हैं। लेकिन कनार क्षेत्र के लोगों की मुसीबतें खत्म नहीं हुईं।

बरम से कनार के लिए 15 किलोमीटर की प्रस्तावित सड़क वन अधिनियम के नियमों में फंस गईं। इसलिए क्षेत्र की करीब तीन हजार की आबादी रोजमर्रा के कामों के लिए 15 से 25 किमी तक पहाड़ी और घने जंगलों वाले रास्तों पर पैदल चलने को मजबूर हैं।

सड़क नहीं होने से शिकारियों की मौज

सड़क नहीं होने का खामियाजा ग्रामीणों के अलावा अभयारण्य क्षेत्र की जैव विविधता और वन्यजीवन को भी भुगतना पड़ रहा है। तेजम गांव निवासी राम सिंह का कहना है कि सड़क बनाने से ही कस्तूरा मृग समेत सभी जीवों और जड़ी-बूटियों को बचाया जा सकता है।

वे कहते हैं- गांव तक सड़क बन जाती तो वन विभाग की गश्त होती। गाहे-बगाहे पुलिस-अफसर, भी यहां आते। इससे शिकारी गिरोहों और जड़ी-बूटी के तस्करों की लगाम कसती।

राम सिंह का आरोप है कि अभयारण्य के भीतर छिपला केदार में नेपाल, कुमाऊं से लेकर गढ़वाल तक के शिकारियों के झुंड कस्तूरा, भालू, गुलदार समेत कई वन्यजीवों का बेखौफ शिकार करते हैं। उन पर रोक लगाने वाला कोई नहीं है।

उत्तराखंड के कस्तूरा मृग अभयारण्य (सेंचुरी), अस्कोट से सटा दवलेख गांव। फोटो: पूरण बिष्ट
उत्तराखंड के कस्तूरा मृग अभयारण्य (सेंचुरी), अस्कोट से सटा दवलेख गांव। फोटो: पूरण बिष्ट

सरकार सुविधाएं दे या हमें विस्थापित करे

पूर्व जिला पंचायत सदस्य और कुरखेती गांव निवासी कुशल सिंह बिष्ट कहते हैं कि, अभयारण्य क्षेत्र होने के कारण 2021 से पहले कनार, मैतली, दवलेख, दोगड़ा, कुरखेती आदि दर्जन भर से अधिक छोटे-बड़े गांवों में प्रधानमंत्री आवास की योजनाएं तक नहीं मिली।

स्कूल, अस्पताल के भवन, मोबाइल टावर लगाने पर भी रोक थी। इसलिए यह क्षेत्र विकास में अन्य इलाकों से पिछड़ गया। अभयारण्य की सीमा में प्रवेश पर पाबंदी वन उत्पादों पर आधारित अर्थव्यवस्था खत्म हो गई। बिष्ट यह भी कहते हैं कि, सरकार सुविधाएं नहीं दे सकती तो क्षेत्र के तीन हजार लोगों को अन्यत्र विस्थापित कर दे।

रोड नहीं तो वोट नहीं

सड़क नहीं बनने के कारण नेताओं से नाराज कनार के लोगों ने 2019 के बाद से वोट देना बंद कर दिया है। गांव में 587 वोटर पंजीकृत है। गांव वालों ने 2019 के लोकसभा, 2022 के विधानसभा और इस बार के लोकसभा चुनाव का बहिष्कार किया। गांव वाले कहते हैं कि, विकास की बड़ी बड़ी बातें करने वाले यदि हमें एक सड़क नहीं दे सकते तो हमें भी उनकी जरूरत नहीं हैं। कनार की तरह मैतली गांव के लोग भी एक बार चुनाव का बहिष्कार कर चुके हैं।

बेमौत मरते लोग

खेतीखान गांव के एक बुजुर्ग ने कहा कि, अभयारण्य बनने से पहले लीसा का दोहन उनके रोजगार का मुख्य जरिया था, जो पूरी तरह खत्म हो गया है। जंगल में प्रवेश की इजाजत नहीं है, इसलिए पशुपालन भी नहीं कर सकते हैं।

उनका यह भी कहना था कि, अस्पताल नहीं होने के कारण बेमौत मरने की कई घटनाएं उनके गांव में हुईं हैं। गांव में किसी के बीमार पड़ने या प्रसव के लिए डोली से मरीज को बरम ले जाना पड़ता है।

ऐसे में कई महिलाओं की रास्ते में ही डिलीवरी हो जाती है। मौके पर किसी तरह स्वास्थ्य सहायता नहीं मिलने पर कभी नवजात तो कभी महिला की मौत हो जाती है।

धारचूला क्षेत्र के विधायक हरीश धामी का कहना है कि, कनार तक की सड़क को 2017 में तत्कालीन मुख्यमंत्री की घोषणा में भी शामिल कर लिया गया था। लेकिन वन भूमि हस्तातंरण की इजाजत नहीं मिलने से सड़क नहीं बन पा रही है।

धामी का कहना है कि उन्होंने वन निगम का अध्यक्ष रहने के दौरान सड़क निर्माण के लिए साढ़े तीन करोड़ रुपए की प्रारंभिक धनराशि स्वीकृत कर दी थी। आधा किमी सड़क का कटान भी कर दिया गया था। लेकिन 2022 में भाजपा की सरकार आते ही यह धनराशि वापस कर दी गई।

कीड़ा जड़ी छुड़ा रही खेती

कनार, मैतली, जारा-जिबली के अलावा धारचूला के जनजातीय क्षेत्र दारमा घाटी के लोग भी कीड़ा जड़ी लेने अभ्यारण्य के भीतरी क्षेत्र छिपला केदार जाते हैं। हालांकि, यहां कीड़ा जड़ी निकालने पर प्रतिबंध है, लेकिन इस दुर्गम हिमालयी क्षेत्र में कोई सरकारी नुमाइंदा नहीं होने के कारण अप्रैल आखिर से बरसात शुरू होने तक लोग कीड़ा जड़ी निकालने छिपला केदार जाते हैं।

तेजम गांव के राम सिंह कहते हैं कि, कीड़ा जड़ी लेने जाने वाले लोगों के साथ राशन, शराब आदि बेचने वाले भी छिपला केदार जाते हैं। छिपला केदार में कीड़ा जड़ी 800 रुपए प्रति पीस के हिसाब से बिक जाती है। वहां दो कीड़ा जड़ी के बदले एक बोतल शराब मिलती है।

कुरखेती गांव के मदन सिंह बिष्ट ने बताया कि जब तक कीड़ा जड़ी का प्रचलन नहीं था तो गांव में लोग खेती-बाड़ी करते थे। अब कीड़ा-जड़ी और अन्य जड़ी बूटियों के दोहन से अच्छा पैसा मिल जाता है, इसलिए गांव में खेती बहुत कम रह गई है।

मुफ्त के राशन के लिए मशक्कत

दवलेख गांव की एक महिला ने बताया कि, सरकार की ओर से दिए जाने वाले मुफ्त राशन को लेने के लिए वह लोग आठ किमी पैदल चलकर लुम्ती जाती हैं। यह राशन उन्हें पीठ पर ढोकर लाना पड़ता है। उन्होंने कहा कि, यदि घोड़े से यह राशन मंगाएं तो चार सौ रुपए भाड़ा चुकाना पड़ता है। मुफ्त राशन भी यहां के लोगों के लिए मुफ्त नहीं है।

कार्बेट पार्क में सफारी, हमको सड़क तक नहीं

पूर्व जिला पंचायत सदस्य कुशल बिष्ट नेशनल पार्क और अभ्यारण्यों के कायदों पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि, कार्बेट नेशनल पार्क में टाइगर सफारी चलती है। पार्क के कोर जोन में तक ठहरने की इजाजत है। पार्क क्षेत्र में बड़े-बड़े होटल, रिजॉर्ट बने हुए हैं। सड़कें बन रही हैं। यदि कार्बेट पार्क और राजाजी नेशनल पार्क में इन गतिविधियों की इजाजत है तो केवल हमारे साथ सौतेला व्यवहार क्यों किया जा रहा है।

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