इलेस्ट्रेशन: विक्रम नायक
इलेस्ट्रेशन: विक्रम नायक

प्रतिरोध की संस्कृति और आदिवासियों का रचना संसार

हमें मानना होगा कि उम्मीदों की पगडंडियां आदिवासियों-मूलनिवासियों के सृजनात्मक रचना संसार से गुजरती हैं - आइए, हम उन पगडंडियों पर कदम बढ़ाएं
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समय के सतत परिवर्तनशील बिंदु पर जहां मानवीय और नैसर्गिक मूल्यों का तेजी से अवमूल्यन जारी है – हम आदिवासी रचना संसार से, सामयिक प्रतिरोध की संस्कृति का व्याकरण सीख सकते हैं।

वह व्याकरण जो अपने अस्तित्व और अधिकार को जिलाये रखने की जिजीविषा से जनमा, और समय के साथ - साथ और अधिक सशक्त होता गया।

लेकिन, जिसे न समझ पाने की अवसरवादी बौद्धिक जिद ने आज दुनिया को उस मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया - जहां आगे, ‘जल, जंगल और जमीन’ को आक्रामक तरीके से समाप्त करने पर आमादा, बहुसंख्यक समाज के आत्मघाती आर्थिक स्वार्थ हैं - और पीछे, धरती को सजीव बनाये रखने की मानवीय जद्दोजहद के साथ खड़े, प्रतिरोध की सृजनात्मक शक्ति से सम्पन्न संघर्षरत आदिवासी समाज।

वास्तव में यही सृजनात्मक प्रतिरोध, पूरी दुनिया के देशान्तरों तक फलता – फूलता, आदिवासियों-मूलनिवासियों का अपना रचना संसार है - जिसे जानना, पढ़ना, समझना और स्वीकार करना आज केवल विकल्प नहीं, बल्कि हम सबके लिए मूल्यों पर केंद्रित कल का संसार है। 

अमरीकी मूल निवासियों की प्रतिनिधि रचनाकार जोय हर्जो को कवि राजदूत कहा जाता रहा - वह मस्कोगी समुदाय से थीं। जोय हर्जो अपने कालखंड की विलक्षण रचनाकार रहीं, जिनकी रचनाओं में पुरातन संस्कृति से लेकर, भूमि और कल के सपने तक के विषय थे। उनकी ऐतिहासिक कृति 'कल की दुनिया का मानचित्र' मानो भविष्य के साथ उनका संवाद है …

कल की दुनिया का मानचित्र है - हमारे भीतर 

भूली-बिसरी भाषा में लिखा हुआ 

जिसे अब कोई बोलता और बूझता नहीं 

जिसे जंगल के आदि वृक्ष संवारते हैं 

हरे लौ से दिपदिपाते पत्तों पर दर्ज़ यह ज़िंदा मानचित्र 

प्रमाण है - पुरखों की मौन प्रार्थनाओं और 

देवताओं के आशीर्वादों का

जब, तुम कल की दुनिया की ओर बढ़ो 

तो याद रखना प्रियतम - 

तुम्हारे कदमों के नीचे जमीन बोलती है 

वह जानती है - तुम कहां जा रहे हो …

जोय कहती थीं कि जमीन की भाषा और उसके स्पंदन के स्वर को आत्मसात करना, हमारी विरासत रही और शायद इसी विरासत को सहेजकर हमें नयी दुनिया गढ़नी होगी।     

मूल अमरीकियों की भूमि और भाषा से हजाजारों मील सुदूर मध्य-पूर्व के प्राचीन मिस्र में, नील नदी घाटी सभ्यता के वंशजों को ‘नूबियन’ कहा जाता है, जिनकी अपनी भूमि सूडान से लेकर दक्षिणी भू-भाग तक फ़ैली थी। मूलनिवासी नूबियन की अपनी भाषा नील-सहारन, हज़ारों बरसों से एक समृद्ध संवाद का माध्यम तो रही, साथ ही समस्त मध्य-पूर्व और विशेष रूप से मिस्र की पहचान भी बनी रही।

पहली बार वर्ष 1898 में ब्रिटिशों द्वारा नील नदी में निर्मित अस्वान बांध परियोजना के चलते न केवल नूबियन लोगों को हमेशा के लिये उनकी अपनी मूलभूमि से विस्थापित कर दिया गया बल्कि बाद के बरसों 1912, 1931 और फ़िर 1960 में विस्तारित बांध परियोजनों के चलते नूबियन समुदाय को पूरी तरह से जड़हीन कर दिया गया। राज्य ने विस्थापितों को 'नये नूबिया' का नया नाम तो दिया लेकिन, नूबियन सभ्यता को लगभग खंडित करके।  एक अज्ञात नूबियन महिला रचनाकार कहतीं हैं…

मैं हाड़-मांस का केवल कतरा भर नहीं 

मैं तो खुद ही उर्वरा भूमि हूं 

मेरे कोख़ से जनमीं थी, नूबियन संस्कृति और सम्पन्नता 

मेरे ही धमनियों में बहती थी, अमर नील की विमुक्त धाराएं 

फिर एक अंधेरी रात, धमनियों पर आघात किया तुमनें 

सदानीरा नील का मार्ग रोके यह बांध - भरा है मेरे पुरखों के गरम लहू से  

लेकिन - मैं नूबियन की बेटी मौन नहीं रहूंगी 

मैं चीखूंगी हर पल - हर उस बेटी, मां और बहन की आवाज बनकर 

जो लौट रही है अपनी जमीन, अपनी ममतामयी नील के ख़ातिर   

सुन रहे हो ना, हमारे कदमों की आहट ?  

 आज एक ओर नूबियन भाषा, शनैः शनैः संवादों से समाप्त हो रही है और एक लुप्त होती भाषा बनकर संघर्षरत है - तो दूसरी ओर, एक भरी -पूरी नूबियन सभ्यता ग़रीबी के गर्त में धकेल दी गयी है। ऐसे में नूबियन रचनाकारों के आदि गीत एक बार फिर प्रतिरोध के स्वर रचने में लगे हुए हैं।  

आज आधुनिकता का नया इतिहास नहीं बताता कि ‘अदिस-अबाबा’ मूलतः एथोपिआ  के मूलनिवासी ओरोमो की अपनी मातृभूमि रही। मूलनिवासी ओरोमो की इसी मातृभूमि को अधिग्रहित करते हुये - 19 वीं और 20 वीं सदी मे पहले एथोपियन साम्राज्य और फ़िर इतालियन-ब्रिटिश उपनिवेश का विस्तार हुआ। 

लेकिन जिन लाखों ओरोमो का विस्थापन हुआ - जिनकी जमीनों और चारागाहों को बलपूर्वक छीन लिया गया, उसका इतिहास किसी ने नहीं लिखा। या ऐसा भी कहा जा सकता है कि औपनिवेशिक कालखंड का इतिहास, ओरोमो के बेजमीन होने की कहानियों पर मौन ही रह गया।

आज ओरोमो समुदाय की प्रखर युवा रचनाकार एस्टर गन्नो, पिछली सदी के उनके अपने पूर्वजों के प्रतिरोधों की नयी प्रवक्ता है। एक अनाम ओरोमो महिला की रचना 'मैं ही भूमि हूँ' के गीतों को दुहराते हुये एस्टर कहतीं हैं कि…

मेरी आवाज में पुरखा पहाड़ों का नाद है 

मेरे पदचिन्हों में माता नदियों का कलकल 

मेरे गीतों के सदाबहार शब्द हैं - जंगलों के फ़ल फूल 

लेकिन, एक भयावह रात 

जब उन्होंनें मेरे कदमों तले जमीन छीन ली 

तब मैंने नदी - पहाड़ - चारागाह और सब,

सब कुछ छुपा लिया अपने गीतों में 

....... ओ मेरे पूर्वजों 

मैं एक दिन लौटूंगी 

अपने हाथों में लहलहाते क्रांति गीतों का बीज लिये 

और बिखेर दूंगी उसे 

ओरोमो की प्रतीक्षारत मातृभूमि में.......

एथोपिया से हज़ारों मील सुदूर पूर्व में फिलीपींस, वास्तव में मूलनिवासियों की अपनी संपन्न भूमि रही। फिलीपींस के मूलवासियों के गीतों में भूमि, पुरखों की स्मृतियाँ, औपनिवौशिक दमन और दरकते वक़्त के साथ संवाद प्रमुख विषय रहे हैं। 

‘बाई बिबयाओं’ जिन्हें लुमाद समुदाय की मां भी कहा जाता है, ने बिसायन बोली में रचनायें कहीं हैं। विख्यात बाई बिबयाओं, स्वयं प्रथम महिला मूलनिवासी मुखिया रहीं। वर्ष 1994 से वह समस्त मूलनिवासियों के अधिकारों की प्रमुख प्रतिनिधि आवाज बनी रहीं।

पांतरों पहाड़ियों पर अवैध उत्खनन, जंगलों के विनाश और भूमि अधिग्रहण के खिलाफ, उनके नेतृत्व में प्रारंभ हुआ सशक्त आंदोलन आज सम्पूर्ण दुनिया मे एक मौलिक प्रतिरोध का पर्याय बन चुका है। एक आदिवासी गीत जो बाई बिबयानों ने अपने पूर्वजों से सुना था दुहराती हैं…

फ़िर एक दिन उन परदेसियों ने 

जंगलों को व्यापार बना दिया 

लूटने लगे सब - बियाबान हो गयी पुरखों की भूमि 

नदी - पहाड़ के सौदे में सब कुछ समाप्त होता रहा हर रोज 

फ़िर एक दिन बूढ़ी माँ नें 

शब्दों को समेटकर बीज बना दिया 

आओ साथियों - अपनी मुट्ठियों में वह बीज लिये

खड़े हो जायें हम समय के विरुद्ध 

हम लौटेंगे संघर्षों का आदिम बीज लिये 

अपने गीतों - सपनों और - जंगलों के रास्ते 

अपने वतन, अपनी मातृभूमि की ओर…

विख्यात आदिवासी चिंतक, रचनाकार और सर्वमान्य नेता डॉ रामदयाल मुंडा आदिवासी अस्मिता, संस्कृति, सृजन और प्रतिरोध को आदिवासियत का मूल्यवान धरोहर मानते थे।

अपनी कालजयी रचना 'आदि धरम' में वे कहते हैं कि "हम आदिवासी संघर्ष करते हैं, क्यूंकि हम सम्मान से अपनी आदिवासियत के साथ जीना चाहते हैं - अपनी धरती में, अपने गीतों में, अपने देवताओं के साथ.... ।"

उनकी ही तरह तमाम आदिवासी - मूलनिवासी रचनाकारों के सृजन में अपने आदिवासियत के अहसास और मानवीय दायित्वों के प्रति नैसर्गिंक सजगता दिखाई देती है।

सभ्यताओं के इस संक्रमणकाल में जब एक-एक कर सभ्य होने के सारे प्रयास, सायास असफल साबित हो रहे हैं, तब अपने जड़ों से जुड़ी ये तमाम अभिव्यक्तियाँ कल के लिये मानो पूरी मानवता को सजीव संदेश है। 

आज प्रतिरोध की संस्कृति के ये अमर स्वर, नयी पीढ़ी के लिये नयी उम्मीदें हैं - दुनिया को बचाने, सजाने, संवारने और सहेजकर अगली पीढ़ी को सौपनें की सृजनात्मक जवाबदेही के साथ।

इसीलिये शेष समाज को मूलनिवासियों-आदिवासियों के साथ खड़े होने का साहस और सामर्थ्य जुटाना ही होगा, जिसकी नियति एक मुमकिन मानवीय दुनिया हो सकती है। हमें मानना ही होगा कि उम्मीदों की पगडंडियां आदिवासियों-मूलनिवासियों के सृजनात्मक रचना संसार से गुजरती हैं - आइये हम उन पगडंडियों पर कदम बढ़ायें।  

 

(लेखक रमेश शर्मा – एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक हैं)

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