
जहां भी मजबूत और टिकाऊ लकड़ी की बात होती है, सागौन उस सूची में सबसे ऊपर रहता है। इमारती लकड़ी का “राजा” कहा जाने वाला सागौन (टेक्टोना ग्रैंडिस) दुनिया के सबसे मूल्यवान उष्णकटिबंधीय हार्डवुड में से एक है और इसका उपयोग जहाज निर्माण से लेकर भवन निर्माण और महंगे फर्नीचर इत्यादि के लिए होता है। दुनिया भर के 95 प्रतिशत से अधिक सागौन संसाधन एशिया में हैं और उनमें से 35 प्रतिशत सागौन के बाग (प्लांटेड फाॅरेस्ट) केवल भारत में हैं।
संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा प्रकाशित “ग्लोबल टीक रिसोर्सेज एंड मार्केट असेसमेंट 2022” के अनुसार प्राकृतिक देसी सागौन के जंगलों का सबसे बड़ा हिस्सा मध्य प्रदेश एवं महाराष्ट्र में है।
अधिकांश क्षेत्रों में औसत वार्षिक वृद्धि (मीन एनुअल इंक्रीमेंट यानी पेड़ों के स्टैंड की औसत वार्षिक वृद्धि) 12 घन मीटर प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष (मी3/हेक्टेयर/वर्ष) से कम है। वृद्धि के लिए अनुकूल परिस्थितियों में 10-12 मी3/हेक्टेयर/वर्ष की उपज आदर्श मानी जाती है। लेकिन चूंकि वन संरक्षण अधिनियम,1980 और राष्ट्रीय वन नीति, 1988 के तहत सरकारी स्वामित्व वाले वनों से लकड़ी की कटाई प्रतिबंधित है इसलिए इस बेशकीमती लकड़ी की बढ़ती घरेलू और अंतरराष्ट्रीय मांग को पूरा करने के लिए निजी बागानों का सहारा लिया जाता है। हालांकि “प्लांटेड” सागौन की कम उत्पादकता इस बेशकीमती कृषि वानिकी सेक्टर को पंगु बना देती है।
एफएओ द्वारा 2024 में प्रकाशित पुस्तक के एक अध्याय में भारत में सागौन की कम उत्पादकता जैसे मुद्दों पर प्रकाश डाला गया है। कोयंबटूर स्थित वन आनुवंशिकी एवं वृक्ष प्रजनन संस्थान (आईएफजीटीबी) के शोधकर्ता इस अध्याय में कहते हैं, “सागौन का प्राकृतिक पुनर्जनन काफी हद तक बीजों पर निर्भर करता है लेकिन ऐसे कई कारक हैं जो इस तरीके से वृक्षों के व्यापक प्रसार को प्रभावित करते हैं। कम फल उत्पादन, खराब बीज व्यवहार्यता और निम्न अंकुरण दर ऐसे कुछ कारक हैं।”
इसी अध्याय में आगे कहा गया है, “पारंपरिक वानस्पतिक प्रसार विधियों जैसे कटिंग रोपना, ग्राफ्टिंग और बडिंग इत्यादि की भी अपनी सीमाएं हैं। जैसे निम्न सफलता दर और पुराने पेड़ों में जड़ें कमजोर होना इत्यादि।”
इन मुद्दों को ध्यान में रखकर शोधकर्ता और निजी व्यवसायी सागौन के ऊतक संवर्धन (टिशू कल्चर) प्रसार को बढ़ावा देते हैं और दावा करते हैं कि इससे 8 से 12 वर्षों में अधिक लाभ और रिटर्न मिल सकता है। इसके अलावा आईएफजीटीबी के शोधपत्र के अनुसार ऊतक संवर्धन आनुवंशिक रूप से बेहतर एवं रोग मुक्त पौधे तैयार करता है।
भारत में सागौन के ऊतक संवर्धन अनुसंधान की शुरुआत 1970 के दशक में हुई जिसके बाद 1980-90 के दशक में राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला (एनसीएल), पुणे द्वारा इस दिशा में व्यापक प्रयास किए गए। इस दिशा में कई प्रोटोकॉल मौजूद हैं। उदाहरण के लिए 2005 में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, केंद्रीय शुष्क भूमि कृषि अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद ने परिपक्व पेड़ों की नई टहनियों से नोडल एक्सप्लांट्स (ऊतकों) को विकसित करने की एक विधि स्थापित की। इस प्रोटोकॉल के चार चरण हैं, प्राथमिक एक्सप्लांट्स की स्थापना, इन विट्रो मल्टीप्लिकेशन (गुणन), जड़ें बनना और पौधों में मजबूती आना (अनुकूलन)।
वर्तमान में भारत में 200 से अधिक ऊतक संवर्धन प्रयोगशालाएं सागौन के पौधे तैयार करती हैं। लेकिन क्या ऊतक संवर्धन वास्तव में त्वरित विकास और उच्च उत्पादकता की गारंटी देता है? दीर्घकालिक क्षेत्रीय अध्ययनों का अभाव होने के कारण इस प्रश्न का उत्तर देना संभव नहीं है। व्यापक वानिकी अनुसंधान के बावजूद ऊतक-संवर्धित सागौन की वृद्धि, गुणवत्ता और आर्थिक लाभ पर 25 वर्ष से अधिक समय तक का कोई तुलनात्मक अध्ययन नहीं हुआ है।
परीक्षणों से निकले निष्कर्षों और उनके विश्लेषण से हमें कुछ अंतर्दृष्टि मिलती है। सर्वप्रथम, सफलता की ऐसी कहानियां व्यक्तिपरक होती हैं और उन्हें सामान्यीकृत नहीं किया जा सकता है। एनसीएल के एक शोधकर्ता द्वारा 2011 में लिखे गए एक पेपर में महाराष्ट्र के सांगली के पास एक किसान के खेत में ऊतक-संवर्धित सागौन की उत्कृष्ट वृद्धि रिपोर्ट की गई है। 8 वर्षों में इन पेड़ों में एक समान वृद्धि हुई और ये वृक्ष 8-10 मीटर ऊंचाई और 60-70 सेमी परिधि तक पहुंच गए। हालांकि पेपर में कहा गया है कि दक्षिण भारत में एक निजी कंपनी से प्राप्त ऊतक-संवर्धित सागौन में अल्प वृद्धि, उच्च परिवर्तनशीलता और उच्च मृत्यु दर दिखाई दी।
दूसरा, वृक्षारोपण का प्रकार आर्थिक क्षमता निर्धारित कर सकता है। इंडियन जर्नल ऑफ एग्रोफॉरेस्ट्री में 2021 के एक अध्ययन में कर्नाटक में तीन अलग-अलग सागौन रोपण प्रणालियों का विश्लेषण किया गया है। गहन रूप से प्रबंधित 4x4 मीटर की दूरी पर रोपे गए, लाइन या रेखा 4 मीटर की दूरी और अप्रबंधित 2x2 मीटर की दूरी पर रोपे गए। गहन रूप से प्रबंधित पेड़ों को उचित सिंचाई, उर्वरक और अच्छी कृषि पद्धतियां मिलीं वहीं जबकि लाइन वृक्षारोपण में न्यूनतम रखरखाव किया गया।
अप्रबंधित वृक्षों को स्वाभाविक रूप से बढ़ने के लिए छोड़ दिया गया था। 24-25 साल की उम्र में प्रति पेड़ उपयोग योग्य लकड़ी की मात्रा अप्रबंधित वृक्षारोपण में 0.22³, लाइन वृक्षारोपण में 0.54 और गहन रूप से प्रबंधित वृक्षारोपण में 0.85 मी³टर थी। अप्रबंधित वृक्षारोपण के लिए लाभ-लागत अनुपात (3.73) सर्वाधिक था क्योंकि उनकी लागत कम थी। गहन रूप से प्रबंधित (2.56) और लाइन वृक्षारोपण (1.59) का स्थान क्रमशः दूसरा और तीसरा था।
लेकिन शुद्ध वर्तमान मूल्य (8 प्रतिशत छूट दर पर) गहन रूप से प्रबंधित पेड़ों के लिए सबसे अधिक 9.38 लाख रुपए था, उसके बाद अप्रबंधित वृक्षों के लिए 5.5 लाख रुपए और लाइन वृक्षारोपण के लिए 1.71 लाख रुपए थे। इससे पता चलता है कि उचित अंतराल पर सागौन लगाने एवं अच्छी कृषि प्रथाओं से उचित रखरखाव करने पर सघन अंतराल पर सागौन लगाने की तुलना में अधिक आर्थिक लाभ मिलता है।
अध्ययन से यह भी पता चलता है कि 20 वर्षों के बाद गहन प्रबंधन के साथ भी सागौन की उपज 5-10 मी3 प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष थी। यह ऊतक-संवर्धित सागौन द्वारा छोटे चक्रों में अधिक उपज देने के दावों पर सवाल उठाता है। उदाहरण के लिए कर्नाटक के चिक्काबल्लापुर की एक कंपनी मदर एग्री बायोटेक प्रति हेक्टेयर 440 पेड़ लगाने की सलाह देती है। कंपनी का कहना है कि सागौन आठ, 12 और 18 साल में उपज देना शुरू कर देता है और एक वृक्ष क्रमशः 0.7 मी3, 2.12 मी3 और 4.24 मी3 लकड़ी प्रति पेड़ पैदा करता है।
एक अन्य कंपनी नेशनल ग्रीन बायोटेक का दावा है कि प्रति एकड़ (0.4 हेक्टेयर) 600 पेड़ लगाने के 8 साल के भीतर प्रत्येक पेड़ 0.76 मी 3 लकड़ी का उत्पादन कर सकता है। इन दावों को सत्यापन और प्रमाणन की आवश्यकता है क्योंकि भारत में कोई भी वानिकी अनुसंधान संस्थान सागौन के लिए 10 या 15 वर्ष की रोटेशन अवधि की सिफारिश नहीं करता है। हालांकि ऊतक संवर्धन निश्चित रूप से आशाजनक है लेकिन विभिन्न परिस्थितियों के तहत इसकी दीर्घकालिक प्रभावशीलता का मूल्यांकन करने के लिए आगे अनुसंधान की आवश्यकता है।
(एसबी चव्हाण, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एबाओटिक स्ट्रेस मैनेजमेंट में वानिकी/कृषि वानिकी के वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं, एआर उथप्पा आईसीएआर-केंद्रीय तटीय कृषि अनुसंधान संस्थान, गोवा में कृषि वानिकी वैज्ञानिक हैं व कीर्तिका ए , आईसीएआर-केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, जोधपुर में कृषि वानिकी वैज्ञानिक हैं)