
मंडला के आदिवासी गांवों में पारंपरिक खानपान की ओर लौटने का रुझान बढ़ रहा है
कोविड के दौरान जंगल से सब्जियां एकत्र कर ग्रामीणों ने बाजार पर निर्भरता कम की
'अपना खानपान, अपना सम्मान' अभियान ने पारंपरिक भोजन की अहमियत को पुनर्जीवित किया
इससे आदिवासियों व ग्रामीणें के स्वास्थ्य और आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ
पूना यादव का परिवार और उनका गांव पिछले तीन से चार साल से एक ऐसे बदलाव से गुजर रहा है जिसने उनके किचन का खर्च काफी कम कर दिया है। मंडला जिले के बरखेड़ा गांव में रहने वाली 42 वर्षीय पूना ने चेच भाजी, सुरन कांदा और छोटे टमाटर सुखाकर रख लिए हैं जो आने वाले कुछ महीनों में काम आएंगे। ये सब्जियां और भाजी उन्होंने मॉनसून सीजन में जंगल से एकत्र की हैं। बरखेड़ा की अधिकांश महिलाएं पूना की तरह नियमित रूप से जंगल से एकत्र सब्जियों और भाजियों को तुरंत पकाकर खाने के साथ ही सुखाकर भंडारित भी कर रही हैं।
पूना ने डाउन टू अर्थ को बताया कि 2020-21 तक वह सब्जियों और भाजियों के लिए पूरी तरह बाजार पर आश्रित हो गई थीं। कोविड के दौरान जब बाजार बंद हो गए और सब्जियों के दाम आसमान पर थे, तब उन्हें जंगल की याद आई जो उन्हें प्रचुर मात्रा में सब्जियां और भाजियां उपलब्ध करा सकता था। कोविड के दौरान उन्होंने जंगल का रुख किया और सब्जियों के लिए बाजार पर निर्भरता से धीरे-धीरे मुक्ति पा ली। इस अवधि में जंगल से बना उनका मजबूत संबंध साल दर साल मजबूत हो रहा है।
भोजन के लिए जंगल का रुख करने वाली पूना को इसका दोहरा लाभ मिला। पहला घर में सब्जियों पर होने वाला करीब 500 रुपए का साप्ताहिक बजट कम हो गया और दूसरा पोषक तत्वों से भरपूर भोजन ने उनके किचन में जगह बना ली, जिससे उनके घर की खाद्य सुरक्षा बढ़ गई। उनका अनुमान है कि मुफ्त में मिलने वाली जंगली सब्जियों की वजह से करीब 25,000 रुपए की सालाना बचत हो रही है। उनके घर में अब सप्ताह में मुश्किल से 50-100 रुपए की सब्जी ही बाजार से आती है, वह भी उन मौकों पर जब जंगल से सब्जियों का आपूर्ति कम हो जाती है।
बरखेड़ा गांव के नजदीक ही शाहपुर गांव में रहने वाली गायत्री वरकड़े कहती हैं कि उनके परिवार ने कुछ साल पहले जंगल से प्राप्त होने वाली कुचई भाजी, पखरी भाजी, लसरे भाजी और मेनहर का उपयोग शुरू किया है। उन्होंने अपनी जेठानी से इन भाजियों का बनाने की विधि सीखी है। वह बताती हैं कि सिवनी जिले में उनका मायका है जहां उन्होंने कभी इनका सेवन नहीं किया था लेकिन मंडला के शाहपुर गांव में लोगों को इनका सेवन करते देख उनका भी इन जंगली भाजियों के प्रति झुकाव हुआ।
मध्य प्रदेश के मंडला जिले में आदिवासी बहुल गांवों में जंगली और पारंपरिक खानपान के प्रति यह झुकाव हालिया वर्षों में जोर पकड़ रहा है। बहुत से आदिवासी परिवार जो शहरी प्रभाव और बाजार के दबाव से अपने खानपान से दूर हो गए थे, अब वापस अपनी जड़ों की ओर लौटने लगे हैं। उदाहरण के लिए 100 प्रतिशत बैगा आदिवासियों वाले गदिया गांव के लोगों का पारंपरिक भोजन कोदा और कुटकी की तरफ तेजी से झुकाव बढ़ा है। 116 बैगा परिवारों और 450 की आबादी वाले इस गांव में रहने वाले सोनूलाल धुर्वे मानते हैं कि बैगा आदिवासी शहरी खानपान से आकर्षित होकर 10-12 साल कोदो, कुटकी और मक्का से दूर रहे। उन्होंने ये फसलें उगानी लगभग बंद कर दी थीं और बाजार व राशन से मिलने वाले चावल को खाना शुरू कर दिया था।
गदिया के बैगा आदिवासी मानते हैं कि पारंपरिक भोजन का त्याग और बाजार के भोजन पर निर्भरता का एक दुष्प्रभाव यह पड़ा कि वे बीमारियों की जद में आ गए। सोनूलाल कहते हैं कि बाजार और राशन से मिलने वाला राशन केमिकल युक्त रहता है, जिसके लगातार इस्तेमाल से आदिवासियों को कमजोरी, पेट में खराबी, शरीर में दर्द जैसी दिक्कतें महसूस होने लगीं। उनका कहना है कि आदिवासी सीमित मात्रा में उगाई कई कोदो, कुटकी जैसी फसल को बाजार में बेच देते थे और खुद राशन का चावल इस्तेमाल करने लगे थे। शहरी लोगों के खानपान से आकर्षित होकर वे अपने पुश्तैनी भोजन को हीन भाव से देखने लगे थे।
2022 से जिले में चल रहे “अपना खानपान, अपना सम्मान” अभियान ने लोगों को इस हीन भावना से निकालने में मदद की। सामुदायिक संसाधनों के संरक्षण पर काम कर रहे गैर लाभकारी संगठन फाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी (एफईएस) ने अभियान के तहत ग्रामीणों के साथ बैठक की, जिसमें उन्हें पांरपरिक भोजन की अहमियत बताई गई। सोनूलाल के अनुसार, मीटिंग में आए विशेषज्ञों ने हर्रा, बहेरा, चार, चिरौंजी, ककोड़ा, मेनहर, पिहरी (जंगली मशरूम) और बांस पिहरी को भोजन में शामिल करने की जरूरत समझाई। उन्होंने जंगल से मिलने वाले भोजन के स्वास्थ्य और चिकित्सीय लाभ बताए, जैसे करूआ कांदा से पेट दर्द में आराम मिलता है और शरीर को ताकत मिलती है। धीरे-धीरे ग्रामीणों को उनकी बात समझ में आई क्योंकि वे खुद महसूस करने लगे थे कि शहरी खानपान उनके स्वास्थ्य के लिए अनुकूल नहीं हैं। फिर उनका झुकाव त्याग दिए गए पारंपरिक भोजन की ओर बढ़ा। सोनूलाल के अनुसार, 3-4 साल पहले तक बाजार और राशन का चावल पूरे साल खाया जाता था, लेकिन अब ग्रामीण चावल के स्थान पर कम से कम छह महीने कोदो-कुटकी खाने लगे हैं। ग्रामीण स्वीकार करते हैं कि कोदो-कुटकी को भोजन में शामिल करने से राशन में मिलने वाला अनाज बच रहा है, जिसे बाजार में बेच रहे हैं। गदिया गांव की सुशीला इस बदलाव के पीछे की एक महत्वपूर्ण वजह समझाते हुए कहती हैं कि गांव के बैगा समाज इलाज के लिए डॉक्टर के पास बहुत कम जाता है। उनका इलाज स्थानीय जड़ी बूटियों से ही होता है। उनका मानना है कि बाजार का भोजन खाने से बैगा समाज पर स्थानीय जड़ी बूटियों पर असर कम होने लगा था। इस कारण भी समुदाय का वापस पारंपरिक भोजन की ओर रुझान बढ़ा।
भानपुर गांव में रहने वाली बैजयंती मानती हैं कि उनकी जैसी युवा महिलाओं के लिए पुराने खानपान की ओर लौटने में बड़ी दिक्कत ये थी कि उन्हें अपने दादा-दादी के जमाने के भोजन को बनाना नहीं आता था। वह मानती हैं कि नई पीढ़ी को न तो उस जंगली भोजन का स्वाद पता था और न ही इससे बनाने की विधि। बैजयंती के अनुसार, हमने गांव की बुजुर्ग महिलाओं से उनके जमाने के खानपान की जानकारी जुटाई और उन्हें बनाने की विधि समझी। बुजुर्ग महिलाओं से सीखकर उन्होंने महुआ के बहुत से व्यंजन बनाने सीख लिए। उन्होंने अपने गांव में पारंपरिक भोजन के प्रति जागरुकता के लिए रैली भी निकाली और दीवार लेखन भी किया। साथ ही ग्रामसभा में भी यह बात रखी।
कटंगारैयत गांव में रहने वाली प्रीति मरकाम के अनुसार, उन्होंने पिछले साल अपनी मां से बांस की सब्जी बनाने की विधि सीखी और उसका सेवन शुरू किया है। बांस में जहर के डर और इसे बनाने में जटिलता के कारण उन्होंने इसका सेवन बंद कर दिया था। उनकी मां ने समझाया है कि बांस को रातभर पानी में भिगोकर रखने में जहरीले तत्व निकल जाते हैं। फिर अगले दिन उबालने के बाद बांस को तलकर सब्जी बनाई जा सकती है। प्रीति ने अपनी नानी से महुआ से मीठी कढ़ी, चीला, लपसी, लड्डू जैसे व्यंजन बनाने भी सीखे हैं।
वर्तमान में मंडला के जंगलों से ग्रामीणों को पूरे साल 32 प्रकार की भाजियों की उपलब्धता सुनिश्चित हो रही है। इनमें चकौड़ा, पकरी, अमटा, दोबे, रेला फूल, कोयलार, मुनगा, चेंच, खुटना, चना जीलो, भतरी, लाल, घुईयां, पिचकुरिया, लभेर, राई, कछार भाजी, सकला कांदा भाजी, बिरोहली भाजी, बटरी भाजी, तिवरा भाजी, पलकी भाजी, भतुआ भाजी, मुनिया भाजी, कजेरा भाजी, चेमुल भाजी और कनकौवा जैसी भाजी शामिल हैं। एफईएस के प्रोग्राम मैनेजर प्रधुम्न आचार्य कहते हैं कि आदिवासियों का केवल भोजन ही नहीं, उनकी संस्कृति, वेशभूषा, भाषा पर बाहरी छाप हावी हो रही है। इसी को ध्यान में रखते हुए हमने जागरुकता कार्यक्रम की शुरुआत की। 2022 में 65 गांवों से शुरू हुआ यह कार्यक्रम अब 200 गांवों में चल रहा है। आचार्य के अनुसार, “हम पिछले 10-12 साल से पारंपरिक खानपान की उपेक्षा देख रहे थे। हमने यह भी अनुभव किया कि पारंपरिक भोजन की जानकारी का भावी पीढ़ियों में स्थानांतरण कम हो रहा है। कार्यक्रम के तहत हमने हर गांव में लोगों से मीटिंग कर यह समझने की कोशिश की कि उनका पारंपरिक खानपान के प्रति कितना सम्मान है और उपेक्षा के क्या कारण हैं।”
आचार्य कहते हैं कि हम बिछिया विचार मंच, नदी घाटी मंच जैसे विभिन्न मंचों से यह सहमति बनाने में कामयाब रहे है कि हर सामुदायिक कार्यक्रम में साल, पलाश या सागौल के पत्तों में भोजन करेंगे। इन कार्यक्रमों में बाजार से मिलने वाली प्लास्टिक की थालियों का उपयोग रोक दिया गया। यह भी तय हुआ कि ऐसे कार्यक्रमों में एक स्थानीय भाजी बनेगी। मौजूदा समय में स्थानीय भोजन को मिड डे मील में शामिल करने की भी बात चल रही है। चंगरिया गांव के केशुलाल गोप कहते हैं कि हम ग्रामसभाओं से मांग कर रहे हैं कि आदिवासी इलाकों में मिड डे मील में कोदा और कुटकी को शामिल किया जाए। आचार्य के अनुसार, हम ढाबा व होटलों को भी स्थानीय भोजन को मैन्यू में शामिल करने को कह रहे हैं। बहुत से होटलों और ढाबों में यह शुरू हो गया है।
खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के कम्यूनिटी फॉरेस्ट्री ऑफिसर एम हॉस्किंस के अनुसार, वनों के भीतर या आसपास रहने वाली आबादी प्रायः किसी देश की सबसे गरीब जनसंख्या होती है और उनके आय के अवसरों का विस्तार किया जाना आवश्यक है। भारत में हाल के विश्लेषणों से पता चला है कि लाखों आदिवासी और भूमिहीन लोग भोजन और अन्य आवश्यक उत्पादों की खरीद के लिए नकद आय हेतु वनों से उत्पाद एकत्रित करने और बेचने पर अत्यधिक निर्भर हैं। फलदार वृक्ष नकद फसल का एक व्यवहार्य विकल्प हो सकते हैं।
उदाहरण के लिए, भारत में केवल एक इमली का पेड़ इतना फल दे सकता है कि पूरे परिवार का भरण-पोषण हो सके। वन पौधों और पशुओं का स्रोत हैं, जिन्हें स्वाभाविक रूप से लेकर, प्रसंस्करित कर और नकद आय हेतु बेचा जा सकता है। मंडला में वनोपज के रूप में महुआ का विशेष महत्व है जो आदिवासियों के पोषण के साथ ही आजीविका को मजबूती प्रदान करता है।
एफएओ के खाद्य सुरक्षा विशेषज्ञ सूयिओन लौरा जिन ने 21 मार्च 2025 को अंतरराष्ट्रीय वन दिवस पर लिखा, “विश्व की एक-तिहाई आबादी आजीविका, खाद्य सुरक्षा और पोषण के लिए वनों से प्राप्त वस्तुओं और सेवाओं पर निर्भर है। वनों में पाई जाने वाली वनस्पतियां और जीव अरबों लोगों के आहार में अहम भूमिका निभाते हैं। कुछ देशों और क्षेत्रों में वन और वृक्ष ग्रामीण परिवारों की आय का लगभग 20 प्रतिशत तक योगदान करते हैं।” उनके अनुसार, जंगली पत्तियां सबसे व्यापक रूप से खाई जाने वाली वन उपजों में शामिल हैं। जंगली मांस आदिवासी और ग्रामीण समुदायों, विशेष रूप से उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में प्रोटीन का महत्वपूर्ण स्रोत है। 3,200 से अधिक प्रजातियों के जंगली जानवर भोजन के रूप में उपयोग किए जाते हैं। वह आगे लिखते हैं कि 2013 में रोम में आयोजित वनों पर आधारित खाद्य सुरक्षा और पोषण के लिए प्रथम अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन ने खाद्य सुरक्षा और पोषण में वनों के महत्वपूर्ण योगदान को मान्यता दी। तब से अब तक वन विशेषज्ञों, देशों और वैश्विक समुदाय की जागरुकता और क्षमता बढ़ाने के लिए लगातार प्रयास किए गए हैं, ताकि वन से संबंधित लक्ष्यों और सतत विकास लक्ष्यों, विशेषकर लक्ष्य 1 (गरीबी उन्मूलन) को प्राप्त किया जा सके।
(यह स्टोरी प्रॉमिस ऑफ काॅमन्स मीडिया फैलोशिप 2024 के तहत प्रकाशित की गई है)
वनों से समृद्ध मंडला जिले में पूरे साल जंगल से कुछ न कुछ खाद्य सामग्री हासिल होती है। बरसात के मौसम में भाजियां की बड़े पैमाने पर आपूर्ति होती है
जनवरी: मैनार, भिलवा, आंवला
फरवरी: भिलवा, बेर, बेल, लभेरभाजी, पकरी भाजी
मार्च: महुआ, चार चिरौंजी, हर्रा, बहेरा, लाख, लभेरभाजी, मुनगा फल एवं भाजी
अप्रैल: महुआ, चार चिरौंजी, बहेरा, उमर, कचनार, छिल्का हर्रा
मई: तेंदु पत्ता, तेंदु फल, हर्रा, बहेरा, सगड़ा, कोइलार, उमर, कचनार, छिल्का हर्रा, सागौन बीज, खमेर
जून: कोसुम, जामुन, आम, खजूर, गुल्ली, अंमटा, कोइलाजर भाजी, उमर, रेला भाजी, छिल्का हर्रा, खमेर
जुलाई: चकौड़ा भाजी, दोबे भाजी, जामुन, आम, अंमटा भाजी, भड़री, मैनार
अगस्त: पिहरी (मशरूम), भड़रा, मैनार, कांदा गिरची, पडोरा, बांस का करील
सितंबर: पिहरी, राज भौड़, कंदमूल, अघीटा, गिरची कांदा, कनिया कांदा, सूगरा कांदा, उरदा कांदा, बल्चादी कांदा
अक्टूबर: कमटी, करौंदा, ओरांगुल, कंदमूल
नवंबर: ढोतो, मुनगा, राज भौड़
दिसंबर: सुरतेजी, जिलरा