उत्तराखंड में वनाग्नि: समुदाय और तकनीक की साझेदारी ने दिलाई जंगलों को राहत

उत्तराखंड में महिला मंगल दल वनों की निगरानी से लेकर आग बुझाने तक अहम जिम्मेदारी निभा रहे हैं
कठूड़ महिला मंगल दल की अध्यक्ष उषा कनवासी बताती हैं कि व्हाट्सएप ग्रुप के ज़रिए वन में लगी आग की सूचनाएं तुरंत साझा की जाती हैं। फोटो: वर्षा सिंह
कठूड़ महिला मंगल दल की अध्यक्ष उषा कनवासी बताती हैं कि व्हाट्सएप ग्रुप के ज़रिए वन में लगी आग की सूचनाएं तुरंत साझा की जाती हैं। फोटो: वर्षा सिंह
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चमोली, उत्तराखंड। गांव से लगे जंगल से आग की लपटें उठती देख महिला मंगल दल की महिलाएं समझ जाती हैं, जरूर गांव के ही किसी व्यक्ति ने हरे चारे की उम्मीद में जंगल में उगी सूखी झाड़ियों में आग लगाई है। किसी ने खेतों में आड़ा फुकान किया और जलता हुआ छोड़ कर चला गया, जिसकी एक चिंगारी से जंगल में गिरी सूखी पत्तियां सुलग उठीं। जरूर किसी ने सिगरेट-बीड़ी पीकर जलती हुई छोड़ दी और चीड़ की सूखी पत्तियों के जल उठने के लिए इतना ही काफी था।

“ऐ दीदी, ऐ भुली, सब सुणी ल्यावा, जंगलों में आग न कोई लगावा,

सरपंच भुला कौं सब साथ द्यावा, जंगलात वालौं को सब साथ द्यावा”

 “हमारे जंगल में आग लगी दिखती है तो गांव की महिला मंगल दल की हम सभी महिलाएं एक-दूसरे को बुलाती हैं और सभी एकजुट होकर आग बुझाने दौड़ती हैं। कई बार हम अपने छोटे बच्चों को सोता हुआ छोड़कर, उनका दूध-भात छोड़कर आग बुझाने भागे। जंगल को हम अपने बच्चे जैसे पालते हैं। आखिर वहां भी नन्हे पौधे हैं। चिड़ियों के घोंसले हैं। काकड़, भालू, बाघ, सभी के बच्चे होते हैं वहां। जैसे हमारे बच्चे वैसे जंगल के बच्चे”।

चमोली जिले के दशोली ब्लॉक के कठूड़ गांव का महिला मंगल दल अपने गांव से लगे वनों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी निभाता है। दल की वरिष्ठ सदस्य गंगोत्री देवी बताती हैं, “जंगलात (वन विभाग) वाले हमारे गांव में बैठक करते हैं। वे हमसे कहते हैं कि तुम आग मत लगने देना। हमने आग पर अंकुश पाया तभी तो हमारे वन में खूब काफल उगते  हैं।  हमारे जंगलों में बांज, बुरांश, भमौरा (हिमालयन स्ट्रॉबेरी) सब तरह के पेड़ हैं।”

कठूड़ महिला मंगल दल की महिलाएं अपने गांव से सटे वनों की निगरानी करती हैं।गंगोत्री देवी और गांव की अन्य महिलाएं अप्रैल की धूप में खेतों से काटकर लाई गई गेहूं की बालियां साफ़ कर रही थीं। पहाड़ की ढलान पर बसे ज्यादातर घरों से गांव का जंगल सामने ही दिखाई देता है। फोटो: वर्षा सिंह
कठूड़ महिला मंगल दल की महिलाएं अपने गांव से सटे वनों की निगरानी करती हैं।गंगोत्री देवी और गांव की अन्य महिलाएं अप्रैल की धूप में खेतों से काटकर लाई गई गेहूं की बालियां साफ़ कर रही थीं। पहाड़ की ढलान पर बसे ज्यादातर घरों से गांव का जंगल सामने ही दिखाई देता है। फोटो: वर्षा सिंह

दल की अध्यक्ष उषा कनवासी कहती हैं “जंगल में आग अपने आप नहीं लगती। लापरवाही या फिर शरारती लोग जानबूझकर आग लगा देते हैं। महिला मंगल दल से जुड़ी गांव की महिलाएं वनों की निगरानी करती हैं। हर महीने की 15 तारीख को हम बैठक करते हैं कि वनों में आग मत लगने देना है। खेतों में आड़ा-फुकान (फसल का अवशेष) जलता हुआ छोड़कर मत जाना। बीड़ी पीने वाले लोगों पर निगाह रखना। जंगल की आग बुझाने में अगर कोई ग्रामीण हमारा सहयोग नहीं करता तो महिला मंगल दल उन पर ज़ुर्माना लगाता है।” महिलाएं गर्व से बताती हैं कि हमारे जंगलों में आग लगने की घटनाएं बहुत कम हुई हैं।

महिला मंगल दल गांव स्तर पर गठित अनौपचारिक संगठन हैं, जिनमें 12 महिलाओं की एक दल चुना जाता है और गांव की सभी महिलाएं इसकी सदस्य होती हैं। ये दल स्वच्छता, वन संरक्षण जैसे सामुदायिक कार्यों में सक्रिय रहते हैं। राज्य सरकार की ओर से इन्हें 4,000 रुपये की प्रोत्साहन राशि भी दी जाती रही है।

मई 2025 में देहरादून में एक कार्यक्रम में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने महिला और युवा मंगल दलों की भूमिका की सराहना करते हुए कहा कि आपदा की स्थिति में ये दल गांवों में फर्स्ट रिस्पॉन्डर की तरह कार्य कर रहे हैं। उन्होंने घोषणा की, इन दलों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए सरकार जल्द ही ऋण सहायता नीति लागू करेगी।

वहीं, बीते वर्षों में आग का बढ़ता दायरा और कहर देखते हुए उत्तराखंड वन विभाग ने इस साल फायर सीजन शुरू होने से पहले तैयारी के तौर-तरीकों में बदलाव किया है। विभाग ने न केवल तकनीक को अपनाया, बल्कि गांवों और स्थानीय संस्थाओं की भागीदारी को भी मज़बूती दी ताकि वनाग्नि नियंत्रण को साझी ज़िम्मेदारी बने।

चमोली में सड़क से लगे एक ढाबे के बाहर जलाये जा रहे कचरे की लपट और चिंगारी दूर तक जा रही थी। वन विभाग के मुताबिक ज्यादातर मामलों में जंगलों में आग मानवीय कारणों से ही लगती है।  
चमोली में सड़क से लगे एक ढाबे के बाहर जलाये जा रहे कचरे की लपट और चिंगारी दूर तक जा रही थी। वन विभाग के मुताबिक ज्यादातर मामलों में जंगलों में आग मानवीय कारणों से ही लगती है।  

वर्ष 2024 में वनाग्नि के मामले में देश में शीर्ष पर रहा उत्तराखंड

गर्मी बढ़ने के साथ ही जंगलों में आग का संकट बढ़ रहा है। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (एफएसआई) ने उत्तराखंड के लिए वर्ष 2019-20 में नवंबर से जून तक वनाग्नि के 750 से अधिक अलर्ट जारी किए थे। लेकिन 2023-24 में ये संख्या 21,000 के पार पहुंच गई। यानी 5 वर्षों में वनाग्नि अलर्ट 28 गुना बढ़ गए।

पिछला दशक धरती का अब तक का सबसे गर्म दशक है। वर्ष 2024 में पहली बार वैश्विक तापमान प्री-इंडस्ट्रियल स्तर से 1.5 डिग्री अधिक दर्ज हुआ। हिमालयी राज्य इसका असर स्पष्ट तौर पर महसूस कर रहे हैं। एफएसआई की इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2023 में वनाग्नि के लिहाज से देश में 13वें पायदान से, वर्ष 2024 में उत्तराखंड पहले पायदान पर आ गया। हिमाचल प्रदेश भी 24वें से 8वें स्थान पर आ गया। उत्तराखंड के 13 में से 5 जिले इस दौरान वनाग्नि की घटनाओं के लिहाज से देश के शीर्ष 20 जिलों में शामिल रहे।

वर्ष 2024 में उत्तराखंड के धधकते वनों में झुलसकर अब तक सर्वाधिक 12 मौतें हुईं। इनमें वन विभाग के छह कर्मचारी थे।

वनाग्नि का संकट समूची जैव-विविधता का संकट है। जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आइपीसीसी ) की पांचवीं मूल्यांकन रिपोर्ट में दर्ज किया गया है कि जंगल की आग सहित धरती पर लगने वाली आग के धुएं के संपर्क में आने से दुनियाभर में हर साल अनुमानित 2,60,000 से 6,00,000 मनुष्यों और वन्यजीवों की समय से पहले मौत हो जाती है। वनाग्नि से 2.0 से 4.0 बिलियन टन तक कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है जो वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों में भारी इजाफा करता है।

वनाग्नि और कृषि अवशेषों के जलने से निकला ब्लैक कार्बन हिमालयी ग्लेशियरों के लिए भी एक गंभीर चुनौती है। वाडिया हिमालयन भूविज्ञान संस्थान द्वारा गंगोत्री ग्लेशियर के पास स्थित चिरबासा स्टेशन पर 2016 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि गर्मियों में ब्लैक कार्बन की मात्रा सर्दियों की तुलना में लगभग 400 गुना अधिक हो जाती है। ब्लैक कार्बन सूर्य की किरणों को अवशोषित कर ग्लेशियरों की सतह को गर्म करता है, जिससे उनके पिघलने की रफ़्तार तेज हो जाती है। 

जैव-विविधता से लेकर ग्लेशियर तक वनाग्नि घातक नतीजे लाती है। चमोली के कुल भूभाग के 66% वन क्षेत्र में चीड़, बुरांस, देवदार कैल, अंगु, पांगर समेत विविध प्रजातियों के वन हैं। नंदादेवी, सतोपंथ और चौखंबा समेत कई बड़े ग्लेशियर हैं।

वर्ष 2024 का वनाग्नि संकट उत्तराखंड सरकार  के लिए टर्निंग प्वाइंट था। जंगल की बेकाबू आग बुझाने के लिए ग्रामीणों से लेकर सेना तक की मदद ली गई। हेलिकॉप्टर से पानी छिड़काव से लेकर नेशनल डिजास्टर रिलीफ फोर्स, स्टेट डिजास्टर रिलीफ फोर्स सभी आग बुझाने के लिए जूझते रहे।

वन विभाग ने नवंबर से फरवरी तक वनाग्नि से जुड़ी गोष्ठियां और प्रशिक्षण बड़े पैमाने पर किए। फोटो: फॉरेस्ट गार्ड राजेंद्र रावत
वन विभाग ने नवंबर से फरवरी तक वनाग्नि से जुड़ी गोष्ठियां और प्रशिक्षण बड़े पैमाने पर किए। फोटो: फॉरेस्ट गार्ड राजेंद्र रावत

जागरुकता और प्रशिक्षण

चमोली में बद्रीनाथ वन प्रभाग के प्रभारी वनाधिकारी (डीएफओ) सर्वेश दुबे कहते हैं “वन विभाग के पास सीमित संसाधन हैं। एक वन आरक्षी के ज़िम्मे करीब 2-2.5 हजार हेक्टेअर वन क्षेत्र होता है। ऐसे में ग्रामीणों का सहयोग बहुत जरूरी है। इस साल हमने जनवरी से ही जागरुकता के लिए गांव-गांव में वन गोष्ठियां कीं। पहली बार ग्रामीणों को जिला मुख्यालय गोपेश्वर के पुलिस मैदान में वनाग्नि नियंत्रण का प्रशिक्षण दिया गया। वनाग्नि के लिहाज से बेहद संवेदनशील जिले के 45 वन पंचायतों को चिन्हित कर फायर किट दी गई। इसके अलावा अपने वनों की आग से सुरक्षा करने वाले 50 वन पंचायतों को 30,000 रुपएरुपए की प्रोत्साहन राशि इनाम के तौर पर दी जाएगी”। 

“हम पेड़ों की हरी डालियों का गुच्छा बनाकर उसे आग पर पटक-पटकर बुझाते हैं। प्रशिक्षण कार्यक्रम में हमें सूखी पत्तियों, लकड़ियों को एक तरफ इकट्ठा कर फायर लाइन बनाना सिखाया गया ताकि आग को फैलने का कोई ज़रिया न मिले। हमें एक फायर किट भी दी गई है। इसमें सूखी पत्तियों-लकड़ियों को इकट्ठा करने की रेक, पानी की बोतल, टॉर्च, आग से बचाव के लिए जैकेट हैं”, कठूड़ गांव के वन पंचायत सरपंच धर्मेश सैलानी भी वन विभाग के प्रशिक्षण कार्यक्रम का हिस्सा रहे। 

उनकी वन पंचायत के वन इस वर्ष मार्च और अप्रैल में दो बार आग की चपेट में आए। ग्रामीणों के साथ आग बुझाने की कोशिश में घायल हुए सैलानी को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा।

ग्रामीणों को साथ लेने की वन विभाग की पहल से गांव भी सचेत हो गए हैं। दशोली ब्लॉक के ग्वाड गांव की महिला मंगल दल की अध्यक्ष सुनीता देवी भी गोपेश्वर के प्रशिक्षण कार्यक्रम में शामिल हुई। जहां उन्हें पिछले वर्ष आग बुझाने के लिए सम्मानित भी किया। “पहले 3-4 दिनों तक जंगल जलते रहते थे कोई आग बुझाने नहीं जाता था। इस साल जिनके भी घर या खेत के पास आग दिखती है हम उन्हें तत्काल सूचना देते हैं और समय रहते आग बुझा ली जाती है”।

ग्वाड गांव की महिलाएं भी हर महीने 15 तारीख को बैठक कर गांव और जंगल पर चर्चा करती हैं। सुनीता उम्मीद जताती हैं कि इससे ग्रामीणों की आमदनी भी होती तो अच्छा रहता।

“ज्यादातर गांव या सड़क से लगे वनों में ही आग की घटनाएं होती हैं”, दशोली ब्लॉक के फॉरेस्ट गार्ड राजेंद्र रावत कहते हैं “ग्रामीणों की जागरुकता और सहयोग से ही जंगल बच सकते हैं। अकेला फॉरेस्ट गार्ड विशाल वनों की आग नहीं बुझा सकता”।

“जिन गांवों में महिला मंगल दल जागरुक हैं, वहां आग की घटनाएं कम होती हैं और आग लगी तो उस पर जल्दी काबू पा लिया जाता है। इस साल गांव-गांव में वन गोष्ठियां करवाईं गई हैं। ग्रामीणों को आग न लगाने की शपथ दिलाई है। गांववालों को प्रोत्साहित करना बहुत जरूरी है”, कठूड़ गांव का उदाहरण देते हुए राजेंद्र कहते हैं।

कठूड़ वन पंचायत सरपंच धर्मेश सैलानी अपने फोन पर फॉरेस्ट फायर ऐप दिखाते हैं। फोटो: वर्षा सिंह
कठूड़ वन पंचायत सरपंच धर्मेश सैलानी अपने फोन पर फॉरेस्ट फायर ऐप दिखाते हैं। फोटो: वर्षा सिंह

तकनीक की मदद

वनाग्नि प्रबंधन के लिए ग्रामीणों को प्रशिक्षण के साथ वन विभाग तकनीक का सहारा भी ले रहा है। ताकि आग  की सूचना संबंधित क्षेत्र के लोगों तक तत्काल पहुंचे और कार्रवाई की जा सके। इसके लिए गांव स्तर पर व्हाट्सएप फायर ग्रुप बनाए गए हैं। इनमें प्रधान, वन पंचायत सरपंच, महिला मंगल दल और क्षेत्र के सक्रिय लोग समेत वन विभाग के कर्मचारी जुड़े हुए हैं। इन्हें साथ लेकर वन प्रबंधन से जुड़े सुझावों और कार्यों के लिए ग्राम पंचायत स्तरीय वनाग्नि सुरक्षा समितियां बनाई गई हैं। 

स्थानीय स्तर पर मिल रही वनाग्नि की सूचना को एक केंद्रीयकृत प्लेटफॉर्म पर लाने और सभी को इससे जोड़ने के लिए उत्तराखंड वन विभाग ने इस साल ही “फॉरेस्ट फायर उत्तराखंड” ऐप लॉन्च किया। साल 2020 और 2021 के फायर सीजन में रुद्रप्रयाग जिले में इस ऐप का पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर इस्तेमाल किया जा चुका था।

इस ऐप को डेवलप करने से लेकर लागू करने की जिम्मेदारी निभा रहे आईएफएस अधिकारी वैभव सिंह बताते हैं “ फॉरेस्ट फायर ऐप से सूचना के प्रवाह को तेज़ किया गया है। ऐप पर राज्यभर के 10 हज़ार से अधिक लोग रजिस्टर्ड हैं, इनमें 5 हज़ार से अधिक वन कर्मचारी और 2 हज़ार से अधिक वालंटियर्स हैं। कहीं आग लगी दिखे तो आम लोग भी इसमें वनाग्नि की तस्वीर अपलोड कर सकते हैं”।

“ऐप के इस्तेमाल से रिस्पॉन्स टाइम कम हुआ है”, सिंह बताते हैं “ पहले हम वनाग्नि सूचना के लिए  स्थानीय लोग या एफएसआई के अलर्ट पर ही निर्भर थे। सेटेलाइट द्वारा आग का पता लगने से लेकर वन क्षेत्र, रेंज और बीट की जानकारी निकालने, और पूरी सूचना को प्रॉसेस कर बल्क एसएमएस भेजने तक अलर्ट हम तक पहुंचने में 1 से 7 घंटे का समय लग जाता था। लेकिन इस साल कई वनाग्नि घटनाओं में हमने देखा कि एफएसआई अलर्ट आने से पहले ही  फॉरेस्ट फायर ऐप के जरिये हमें  सूचना मिल चुकी थी और आग बुझाई जा चुकी थी”।

सिंह बताते हैं कि जल्द ही एफएसआई के प्री-फायर अलर्ट और भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के प्री-फायर अलर्ट भी ऐप के जरिये भेजे जाएंगे। “उत्तराखंड वन विभाग ने देहरादून आईएमडी के साथ समझौता किया है। गर्मी और सूखा बढ़ने के आधार पर आईएमडी हमें वनाग्नि के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्रों को लेकर अलर्ट जारी करेगा। ये मानसून में तेज बारिश की चेतावनी सरीखा होगा। जल्द ही हम फॉरेस्ट फायर एप के ज़रिये इन चेतावनी को बीट लेवल के वन कर्मचारी, ग्राम प्रधान, सरपंच समेत ऐप से जुड़े लोगों तक भेजना शुरू कर देंगे”। 

उत्तराखंड वन विभाग का आईटी सेल ऐप से जुड़े डेटा का मैनेजमेंट करता है।

कठूड़ वन पंचायत सरपंच धर्मेश सैलानी भी अपने मोबाइल पर इस ऐप को दिखाते हैं। हालांकि उनके मुताबिक वे वनाग्नि सूचना के लिए व्हाट्सएप ग्रुप का इस्तेमाल ज्यादा करते हैं।

आर्थिक प्रोत्साहन

जंगल की आग बुझाने में ग्रामीणों को भागीदार बनाने के लिए आर्थिक तौर पर भी प्रोत्साहित किया गया है। 

उत्तराखंड वन विभाग के प्रमुख वन संरक्षक डॉ धनंजय मोहन बताते हैं, वनाग्नि प्रबंधन के लिए स्टेट फॉरेस्ट प्लान, प्रतिपूरक वनरोपण निधि प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण यानी कैंपा और केंद्र सरकार की वन अग्नि निवारण एवं प्रबंधन योजना से बजट मिलता है। इस वर्ष ग्रामीणों को वनाग्नि प्रबंधन से जोड़ने के लिए दो महत्वपूर्ण फैसले लिए गए। फरवरी में ग्राम प्रधान की अध्यक्षता में बनाई गई वनाग्नि सुरक्षा समितियों को 30 हजार रुपए सालाना प्रोत्साहन राशि देने का सरकारी आदेश जारी किया गया। साथ ही जंगल से चीड़ की सूखी पत्तियां इकट्ठा करने के लिए पीरूल लाओ पैसे पाओ अभियान के तहत इसका मूल्य 3 से बढ़ाकर 10 रुपए प्रति किलो किया गया। इसके लिए पिछले वर्ष 1.5 करोड़ रुपए की तुलना में इस वर्ष का बजट 50 करोड़ रुपए किया गया।

डॉ मोहन के मुताबिक मूल्य बढ़ने से ग्रामीणों में  पीरूल इकट्ठा करने का उत्साह बढ़ा और जंगल की ज़मीन से ज्वलनशील पीरूल कम हुआ। वन विभाग के आंकड़ों के अनुसार पिछले 3 वर्षों में वनों से 7,471 टन चीड़ पिरूल इकट्ठा किया गया था। जबकि इस वनाग्नि सत्र (15 फरवरी से 15 जून) में ही 7,500 टन लक्ष्य रखा गया है।

इसके साथ ही राज्य के 4800 ग्रामीणों को फायर वाचर्स के तौर पर फायर सीजन के चार महीने कार्य दिया जाता है। डॉ मोहन कहते हैं, “इस साल हमने जंगल को आग से बचाने के लिए कई प्रयास किए हैं जिनके बेहतर नतीजे देखने को मिले। सरकारी आदेशों के ज़रिये ग्रामीणों को आर्थिक तौर पर वनों से जोड़ा गया। आगे भी ये प्रयास जारी रहेंगे।”

राहत में वन

ग्रामीणों का साथ और तकनीक का इस्तेमाल इस साल वनों और वन्यजीवों के लिए भारी राहत लेकर आया। उत्तराखंड वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक 15 फरवरी से 31 मई तक इस साल वनाग्नि की 200 घटनाएं हुईं और करीब 223 हेक्टेअर वन क्षेत्र आग की चपेट में आए। जबकि वर्ष 2024 में इस समय तक 1175 दर्ज घटनाओं में 1614 हेक्टेअर क्षेत्र प्रभावित हुए थे। वहीं, 2023 में 464 घटनाओं में 536 हेक्टेअर में वन जले थे।

यानी 2024 की तुलना में इस साल अब तक आग की घटनाओं में लगभग पाँच गुना और प्रभावित क्षेत्र में तीन गुना तक की गिरावट दर्ज की गई है। इस साल मौसम ने भी साथ निभाया और राज्य में अप्रैल-मई में बारिश की बौछारें गिरती रहीं।

राज्य के अपर प्रमुख वन संरक्षक, वनाग्नि एवं आपदा प्रबंधन, निशांत वर्मा के मुताबिक वनाग्नि सत्र शुरू होने से पहले की गई तैयारियों से इस साल बड़ा फायदा मिला। “नवंबर से फरवरी तक हमने वन पंचायतों और महिला मंगल दल जैसे सामुदायिक संस्थाओं का सहयोग हासिल करने के लिए 5 हज़ार से अधिक जागरुकता कार्यक्रम किए। इस साल अन्य विभागों का भी सहयोग लिया गया। जिलाधिकारी वनाग्नि प्रबंधन समिति के अध्यक्ष होते हैं। उन्होंने इस साल सभी विभागों को निर्देश दिए कि जरूरत पड़ने पर वन विभाग को सहयोग करना होगा। फायर सीजन शुरू होने से पहले सभी विभागों के साथ मॉक ड्रिल कर तैयारियों को भी परखा। वनाग्नि पर नियंत्रण फायर एंड इमरजेंसी सर्विसेज़, पीडब्ल्यूडी, एसडीआरएफ, आपदा त्वरित रिस्पॉन्स टीम सभी की साझा जिम्मेदारी हुई। ”

जंगल पर बात करते हुए ग्वाड गांव के ग्रामीण। फोटो: वर्षा सिह
जंगल पर बात करते हुए ग्वाड गांव के ग्रामीण। फोटो: वर्षा सिह

वन साझी जिम्मेदारी

दशोली ब्लॉक के कुजोम गांव के वन पंचायत सरपंच और दशोली के वनाग्नि परामर्श दात्री समिति के अध्यक्ष किशन सिंह बिष्ट ग्रामीणों को साथ लेने के वन विभाग की पहल का स्वागत करते हैं। “इस साल जनवरी-फरवरी में ही ऐसी स्थिति बन गई थी कि चारों तरफ जंगल जल रहे थे। लेकिन जब भी जंगल जलते दिख रहे थे, हम सभी वनाग्नि की सूचना ग्रुप में शेयर कर रहे थे। वन विभाग के कर्मचारियों को तत्काल खबर कर रहे थे। ग्रामीण सजग थे। इसलिए आग पर जल्दी काबू पाया जा रहा था। हालांकि इस साल मौसम भी मेहरबान रहा। फरवरी से कुछ-कुछ दिनों के अंतराल पर बारिश मिलती रही जिससे जंगलों में नमी बनी रही”। 

बिष्ट सुझाव देते हैं, “गांव-गांव जाकर लोगों को वनाग्नि नियंत्रण का प्रशिक्षण देना होगा। ये भी जरूरी है कि हर गांव में एक से अधिक फायर किट और जरूरी संसाधन हो। और ये सब नियमित तौर पर किया जाए”। 

दशोली के ही एक अन्य गांव सोनला के वन पंचायत सरपंच राकेश मैठाणी भी संसाधनों को बढ़ाने की जरूरत पर बल देते हैं। “चाहे ग्रामीण हो या वन विभाग के कर्मचारी, आग पर काबू पाने के उपकरण किसी के पास नहीं होते। विभागीय कर्मचारी भी पेड़ की दो टहनियां तोड़कर उसी से आग बुझाता है”।

मैठाणी उम्मीद जताते हैं, “वन हमारे जीवन से तो जुड़े ही हैं, यदि आजीविका से भी जुड़े रहें तो ग्रामीण अधिक ज़िम्मेदारी से कार्य करेंगे।"

“चिपको के बाद यही पुकार जंगल नहीं जलेंगे अबकी बार”। चिपको वन आंदोलन से जुड़ी संस्था दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल वनाग्नि के लिहाज से संवेदनशील गांवों की यात्रा कर लोगों को जागरुक करती है। संस्था के संयुक्त मंत्री विनय सेमवाल इन यात्राओं के दौरान लिए गए ग्रामीणों के सुझाव साझा करते हैं, “वन विभाग को लोगों के साथ खड़े होना होगा। ग्रामीणों को लगता है कि जंगल सरकार के हैं और उनका अधिकार सीमित हो गया है। वे अपनी जरूरत के लिए वन के संसाधनों का इस्तेमाल कर सकें और वन पंचायतों की जमीन पर चारा प्रजाति समेत ऐसे वृक्ष उगाए जिससे उनकी जरूरत पूरी हो सके”।

वहीं, उत्तराखंड वन विभाग द्वारा वनाग्नि प्रबंधन के लिए ग्राम पंचायत स्तर पर समितियां बनाने की पहल पर कुछ संशय भी हैं। हिमालयन आर्क की संस्थापक और सिरमौली वन पंचायत की पूर्व सरपंच, मल्लिका विर्दी कहती हैं कि जब वन पंचायतें सदियों से वनों की देखरेख करती आ रही हैं तो उन्हें यह जिम्मेदारी न देकर नई समितियां बनाने की क्या आवश्यकता है? विर्दी का तर्क है कि ये कदम वन पंचायतों की स्थापित प्रणाली को कमजोर कर रहा है। वह कहती हैं, "जंगलों से भावनात्मक रूप से जुड़े लोग अब भी वनों को बचाएंगे। समितियों के माध्यम से पैसे देकर और ग्राम पंचायतों को जिम्मेदारी सौंपकर, आप इस प्रक्रिया को केवल 'प्रोजेक्टाइज' कर रहे हैं, जिसकी सफलता पर मुझे संदेह है।"

विर्दी कहती हैं कि वन विभाग को लोगों का भरोसा जीतना होगा ताकि किसी भी विपदा में वे साथ खड़े हों।

पशुओं के लिए हरी घास, खेतों के लिए खाद जैसी आवश्यकताओं के साथ पर्वतीय समुदाय वन और वनाग्नि का परंपरागत तौर पर प्रबंधन करता आ रहा है। चमोली के ही रैणी गांव के महिला मंगल दल की अध्यक्ष गौरा देवी और उनकी साथियों ने चिपको आंदोलन का नेतृत्व किया था। ये आंदोलन जंगल और समुदाय के रिश्ते की ताकत का प्रतीक बना। उत्तराखंड के लोगों को वनों से ये रिश्ता विरासत में मिला है। कठूड़ गांव का महिला मंगल दल इसी विरासत को आगे बढ़ा रहा है। यहां की महिलाएं याद करती हैं कि ये चिपको आंदोलन की धरती है।

तपती धूप में ठंडक के लिए बुरांस का शर्बत गिलास में उड़ेलते हुए अध्यक्ष उषा मुस्कुराती हैं- “हमने अपने जंगल पाले हैं तभी तो वहां से बुरांस के फूल चुनकर लाते हैं और ठंडा शर्बत बनाते हैं।”

( यह स्टोरी इंटरन्यूज के अर्थ जर्नलिज्म नेटवर्क के सहयोग से प्रकाशित की गई है )

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