फोटो : विकास चौधरी
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विकास को जनजातीय दृष्टिकोण की आवश्यकता

सच्चाई यह है कि जिसे "मुख्यधारा" विकास मानती है, वह अक्सर जनजातीय जीवन शैली को बाधित करती है
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Summary
  • विकास को जनजातीय दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है ताकि आदिवासी समुदायों की संस्कृति और पारंपरिक ज्ञान को संरक्षित किया जा सके।

  • सरकार द्वारा चलाए जा रहे अभियानों का उद्देश्य आदिवासी समुदायों को बुनियादी सुविधाएं और आजीविका के अवसर प्रदान करना है।

  • मुख्यधारा की नीतियों को आदिवासी जीवनशैली के साथ समन्वयित करना आवश्यक है ताकि विकास समावेशी और टिकाऊ हो सके।

भारत की 2011 की जनगणना के अनुसार, अनुसूचित जनजातियों (एसटी) की जनसंख्या लगभग 10.45 करोड़ थी, जो कुल भारतीय जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत थी। मध्य प्रदेश में भारत की सबसे बड़ी जनजातीय आबादी  रहती है, जिसमें 1.5 करोड़ से अधिक अनुसूचित जनजातियाँ  हैं, जो राज्य की कुल जनसंख्या का लगभग 21.1 प्रतिशत है।

जो सदियों से चली आ रही बुद्धिमत्ता, संस्कृति और स्थायी जीवन पद्धतियों को अपने साथ समेटे हुए हैं। फिर भी, विकास नीतियां अक्सर उन्हें निष्क्रिय प्राप्तकर्ता के रूप में देखती हैं, और बिना यह साधारण प्रश्न पूछे योजनाओं और बुनियादी ढाँचे को आगे बढ़ाती हैं कि क्या यह उनकी संस्कृति, पहचान और जीवनशैली के अनुरूप है?

भारत में जनजातीय अधिकारों की रक्षा संविधान और वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) जैसे कानूनों द्वारा की जाती है, जो आदिवासी समुदायों के लिए भूमि और संसाधन अधिकारों को सुरक्षित करते हैं, जिनमें निवास, स्व-कृषि और वन उपज के अधिकार शामिल हैं।

पांचवीं और छठी अनुसूचियां जनजातीय क्षेत्रों को प्रशासनिक स्वायत्तता प्रदान करती हैं, जबकि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम भेदभाव और हिंसा के विरुद्ध विशेष सुरक्षा प्रदान करता है।

अनुच्छेद 46 और अनुच्छेद 335 जैसे अन्य प्रावधान अनुसूचित जनजातियों के आर्थिक और सामाजिक हितों की रक्षा में राज्य की भूमिका पर ज़ोर देते हैं। पेसा (1996) को पूर्ण रूप से क्रियान्वित करना, अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभाओं को भूमि, वन और संसाधनों पर निर्णय लेने का अधिकार देना।पिछले दो साल में सरकार अलग अलग अभियान और योजना चला रही है, जैसे प्रधानमंत्री जनजातीय आदिवासी न्याय महाअभियान (पीएम जनमन)

वित्त वर्ष 2023-24 के दौरान, माननीय प्रधानमंत्री ने 18 राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में रहने वाले 75 विशेष पिछड़ी जनजाति (पीवीटीजी) समुदायों के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए प्रधानमंत्री जनजातीय आदिवासी न्याय महाअभियान (पीएम जनमन) का शुभारंभ किया।

इस मिशन का उद्देश्य 3 वर्षों में सुरक्षित आवास, स्वच्छ पेयजल, शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण तक बेहतर पहुँच, सड़क और दूरसंचार संपर्क, अविद्युतीकृत घरों का विद्युतीकरण और स्थायी आजीविका के अवसर जैसी बुनियादी सुविधाएँ प्रदान करना है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2 अक्टूबर, 2024 को धरती आबा जनजातीय ग्राम उत्कर्ष अभियान का शुभारंभ किया। इस अभियान में 17 संबंधित मंत्रालयों द्वारा कार्यान्वित 25 कार्य योजना शामिल हैं और इसका उद्देश्य 63,843 गांवों में बुनियादी ढांचे की कमियों को दूर करना, स्वास्थ्य, शिक्षा, आंगनवाड़ी सुविधाओं तक पहुंच में सुधार करना और 5 वर्षों में 30 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के 549 जिलों और 2,911 ब्लॉकों में 5 करोड़ से अधिक आदिवासियों को लाभान्वित करते हुए आजीविका के अवसर प्रदान करना है।

प्रत्येक मंत्रालय को अभियान के तहत बजट और लक्ष्य आवंटित किए गए हैं और उन्हें सौंपे गए हस्तक्षेपों को लागू करने की जिम्मेदारी दी गई है। अभियान का उद्देश्य अभिसरण और आउटरीच के माध्यम से संतृप्ति प्राप्त करना है और आदि कर्मयोगी अभियान एक विकेन्द्रीकृत आदिवासी नेतृत्व और शासन पारिस्थितिकी तंत्र के निर्माण हेतु एक राष्ट्रीय आंदोलन है।

जनजातीय कार्य मंत्रालय के नेतृत्व में यह अभियान क्षमता निर्माण, अभिसरण और सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से 550 आदिवासी बहुल जिलों के 1 लाख गांवों के 20 लाख आदिवासी परिवर्तनकर्ताओं को सशक्त बनाता है।

सच्चाई यह है कि जिसे "मुख्यधारा" विकास मानती है, वह अक्सर जनजातीय जीवन शैली को बाधित करती है। खनन, औद्योगिक परियोजनाएँ और यहाँ तक कि नेकनीयती से बनाई गई कल्याणकारी योजनाएँ भी सांस्कृतिक पहचान को नष्ट कर सकती हैं, समुदायों को विस्थापित कर सकती हैं और पारंपरिक आजीविका को कमज़ोर कर सकती हैं।

इसे सुधारने के लिए हमें विकास को जनजातीय दृष्टिकोण से देखने की तत्काल आवश्यकता है। यह अभियान और योजना बहुत अच्छा है, विकास को समावेशी और टिकाऊ बनाने के लिए, मुख्यधारा की नीतियों को आदिवासी दृष्टिकोण के साथ पुनर्निर्देशित किया जाये तो परिणाम और अच्छे आ सकते है

आदिवासी समुदायों के विकास को केवल सड़कों, इमारतों या योजनाओं से नहीं मापा जा सकता—इसे आदिवासी नज़रिए से देखा जाना चाहिए। सदियों से, आदिवासी समाज अपनी ज़मीन और जंगलों में गहराई से निहित संस्कृति, पहचान और पारंपरिक ज्ञान के अनूठे संतुलन के साथ खुद को बनाए रखते आए हैं। दुर्भाग्य से, मुख्यधारा के दृष्टिकोण अक्सर इन बुनियादों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं और विकास के ऐसे मॉडल थोपते हैं जो न तो आदिवासी जीवनशैली के अनुरूप होते हैं और न ही उनकी भलाई सुनिश्चित करते हैं।

विकास को सार्थक बनाने के लिए, मुख्यधारा की योजना को आदिवासी संस्कृति और आकांक्षाओं के अनुरूप होना चाहिए। इसके लिए समावेशन से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है—इसके लिए सम्मान की आवश्यकता है। नीतियों और परियोजनाओं को आदिवासी पहचान, भाषाओं और प्रथाओं को विस्थापित या कमज़ोर करने के बजाय संरक्षित करना चाहिए। उनकी पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियाँ और जैव विविधता का ज्ञान ऐसी धरोहर हैं जिन्हें पहचाना, संरक्षित और आधुनिक स्वास्थ्य एवं संरक्षण ढाँचों में एकीकृत किया जाना चाहिए।

आदिवासी जीवन शैली प्रकृति के साथ अपने सामंजस्य में "पिछड़ी" नहीं, बल्कि दूरदर्शी है। उनकी सामूहिक निर्णय-प्रक्रिया, सामुदायिक एकजुटता और प्राकृतिक संसाधनों के प्रति सम्मान, जलवायु परिवर्तन और सामाजिक विखंडन से जूझ रही हमारी धरती के लिए कई सबक हैं। जनजातीय दृष्टिकोण अपनाकर, हम विकास को मुख्यधारा में शामिल होने के रूप में नहीं, बल्कि स्वास्थ्य, शिक्षा और आजीविका में आवश्यक कमियों का निवारण करते हुए स्वदेशी शक्तियों को मजबूत करने की एक प्रक्रिया के रूप में देखना शुरू करते हैं।

इसलिए, जनजातीय विभागों की भूमिका इस दृष्टिकोण के संरक्षक के रूप में कार्य करना है। उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि हस्तक्षेप सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील, सहभागी और जनजातीय संदर्भों में निहित हों। विकास को पहचान को नष्ट नहीं करना चाहिए; इसे समुदायों को अपनी परंपराओं और भूमि से जुड़े रहते हुए सम्मान के साथ फलने-फूलने का अधिकार देना चाहिए।

यदि भारत को सच्चा समावेशी विकास हासिल करना है, तो मुख्यधारा को जनजातीय समुदायों के साथ चलना सीखना होगा—उनके आगे नहीं, उनके पीछे नहीं, बल्कि उनके साथ। तभी विकास न्यायसंगत, टिकाऊ और पीढ़ियों से चली आ रही बुद्धिमत्ता का सम्मान करने वाला हो सकता है।

ऐसा दृष्टिकोण प्रश्न को "हम आदिवासियों को मुख्यधारा में कैसे लाएँ?" से बदलकर "मुख्यधारा जनजातीय जीवन शैली से कैसे सीख सकती है और उसके साथ कैसे जुड़ सकती है?" कर देता है।

विकास पहचान की कीमत पर नहीं होना चाहिए। जनजातीय भाषाएं, त्यौहार, संगीत और रीति-रिवाज़ केवल परंपराएँ नहीं हैं; वे सामूहिक बुद्धिमत्ता की जीवंत अभिव्यक्तियां हैं। इनका संरक्षण दान नहीं है। यह भारत की विविधता और लोकतंत्र के लिए आवश्यक है। इसलिए, शिक्षा मातृभाषाओं में शुरू होनी चाहिए, और पाठ्यक्रम में आधुनिक विषयों के साथ-साथ आदिवासी ज्ञान को भी महत्व दिया जाना चाहिए।

मिश्रित फसल और मोटी अनाज की खेती जैसी आदिवासी कृषि,  जैव विविधता को बढ़ावा देती है। वन-आधारित ज्ञान प्राकृतिक औषधियाँ और संसाधनों का सतत उपयोग प्रदान करता है। ये प्रथाएँ "पिछड़ी" नहीं हैं।

ये जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिक क्षरण से जूझ रहे विश्व के लिए दूरदर्शी समाधान हैं। मुख्यधारा की नीतियों को ऐसे ज्ञान को एकीकृत करना चाहिए। जैसे की कहावत है, आदिवासी है तो जंगल है , जंगल है तो पानी| यहां देश की प्रमुख नदियों का उद्गम  है। ये नदियां नर्मदा , ताप्ती , माही , गोदावरी (वैनगंगा) , साथ में बेतवा , केन, तवा नदियों  के साथ सैकड़ों झील और झरने भी है|

यह इसीलिए संभव है की आदिवासी की जीवनशैली प्रकृति की संरक्षण की संस्कृति रही है और यह  इनके गीत, कला, नृत्य और चित्रकारी में बख़ूबी झलकता है| आज अनेक प्रकार की आदिवासी चित्रकलाए जैसे वरली , भील और  गोंड ने वैश्विक स्तर के ख्याति अर्जित की है ।

कुपोषण से लेकर विस्थापन तक, आदिवासी असमान रूप से असुरक्षित परिस्थितियों का सामना करते हैं। समाधान उनके संदर्भों में निहित होने चाहिए: पोषण वाटिका, कोदो कुटकी या अन्य मोटे अनाज, वनोपज ,जैसे अकृषित स्थानीय खाद्य पदार्थ, सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता जो आधुनिक चिकित्सा को पारंपरिक उपचार से जोड़ते हैं।

जानकारी के अनुसार आजादी के बाद से आज तक लगभग  2.4  करोड़ आदिवासी विस्थापित हुए है, कभी बांध तो कभी खादान तो कभी राष्ट्रीय उद्यान या विकास के परियोजना के नाम पर।

क्या हमने कभी सोचा है, विस्थापन के बाद जिंदगी कैसी होगी। कभी अपने को रख कर सोच के देखिएगा। इससे निजात पाने के लिए पारदर्शी नियम व कानून हो उनके हितों के संरक्षण हेतु । ताकि भविष्य में ये समुदाय जो सदियों से प्राकृतिक धरोहर को संजोते आए है उनका अस्तित्व खतरे में न पड़ जाए।

इसी प्रकार, वन अधिकार अधिनियम के तहत सामुदायिक वन अधिकारों को मान्यता देना और पेसा के तहत ग्राम सभाओं को सशक्त बनाना आजीविका को सुरक्षित कर सकता है और पारिस्थितिक संसाधनों की रक्षा कर सकता है।

मध्य प्रदेश में संभावित सामुदायिक वन अधिकार क्षेत्र 143.19 लाख एकड का है, इसमें मात्र 10 प्रतिशत 14.64 लाख एकड सामुदायिक वन अधिकारों के अंतर्गत  मान्यता दी गई। वन अधिकार के कुल दावे की स्थिति देखे तो 51.38 प्रतिशत अस्वीकृत दावा है ।

भारत में कुल 4,500 से अधिक वन ग्राम है, मध्य प्रदेश में 925 है, अप्रैल 2022 में, मध्य प्रदेश सरकार ने घोषणा की कि वन ग्रामों को राजस्व ग्रामों में परिवर्तित किया जाएगा, लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया कि यह कैसे किया जाएगा।

वन अधिकार अधिनियम कहता है कि इस तरह के परिवर्तन से पहले अधिकारों का निपटारा किया जाना चाहिए।  मध्य प्रदेश में प्रदेश में तीन विशेष पिछड़ी जनजाति यथा भारिया, बैगा एवं सहरिया निवासरत हैं। यह 2314 ग्रामों में विशेष पिछड़ी जनजाति के 5.51 लाख व्यक्ति निवास करते हैं।

एफआरए ने 2012 में एक संशोधन के माध्यम से "विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों" के लिए पर्यावास अधिकारों को मान्यता दी, जिसमें आजीविका और सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक मामलों में सुरक्षा प्रदान की गई। लेकिन  2024 के अंत तक 21 बैगा आदिवासी बस्तियों और 12 भारिया आदिवासी गांवों को पर्यावास अधिकार प्राप्त होआ हैं| आदिवासी क्षेत्र का नारंगी क्षेत्रों का मुद्दा और चिंतित करता है समुदाय को , वह भूमि जहाँ वन और राजस्व विभागों के बीच अधिकार क्षेत्र विवादित है ।

आगे नहीं, बल्कि साथ-साथ चलना, आदिवासी दृष्टिकोण का विचार समुदायों को अलग-थलग करने के बारे में नहीं है। यह विकास के सह-निर्माण के बारे में है—जहाँ बुनियादी ढाँचा, स्वास्थ्य और शिक्षा ऐसे तरीकों से प्रदान की जाए जो उन्हें सशक्त बनाएँ, न कि उन्हें आत्मसात करें। मुख्यधारा के भारत को अपने आदिवासी नागरिकों के साथ चलना चाहिए, उनकी गति, प्राथमिकताओं और दृष्टिकोणों का सम्मान करना चाहिए।

यदि हम ऐसा करने में विफल रहते हैं, तो हम न केवल लाखों लोगों को अलग-थलग करने का जोखिम उठाते हैं, बल्कि उन ज्ञान प्रणालियों को भी खो देते हैं जो हमारे सबसे ज़रूरी संकटों—जलवायु परिवर्तन, खाद्य असुरक्षा और सामाजिक विखंडन—का समाधान प्रस्तुत करती हैं। यदि हम सफल होते हैं, तो हम न केवल आदिवासी समुदायों को सशक्त बनाएंगे; बल्कि हम सभी के लिए सतत विकास की नींव को भी मजबूत करेंगे।

आदिवासी दृष्टिकोण विकास का "विकल्प" नहीं है; यह एक आवश्यक सुधारात्मक उपाय है। यह हमें याद दिलाता है कि विकास का अर्थ पहचान का लोप या समुदायों का विस्थापन नहीं होना चाहिए। इसके बजाय, इसका अर्थ उन चीज़ों को मज़बूत करना होना चाहिए जो आदिवासी समाज पहले से ही अच्छी तरह से कर रहे हैं - प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाना, व्यक्तिवाद की तुलना में समुदाय को महत्व देना, और पारंपरिक ज्ञान के माध्यम से लचीलेपन का पोषण करना।

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