आदिवासी स्वशासन की मांग: झारखंड में पेसा कानून लागू करने में देरी पर सवाल

झारखंड अलग राज्य गठन के 25 साल बाद भी शेड्यूल एरिया के आदिवासी समुदायों को स्वशासन का अधिकार नहीं मिल पाया है
झारखंड में आदिवासी बहुल खूंटी के एक गांव जटुआ में विकास की राह देखते आदिवासी परिवारों के लोगः फोटो नीरज सिन्हा
झारखंड में आदिवासी बहुल खूंटी के एक गांव जटुआ में विकास की राह देखते आदिवासी परिवारों के लोगः फोटो नीरज सिन्हा
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Summary
  • झारखंड में पेसा कानून लागू करने में देरी पर आदिवासी समुदायों की नाराजगी बढ़ रही है

  • हाईकोर्ट ने रेत घाटों और लघु खनिजों के आवंटन पर रोक लगाई है, जिससे सरकार पर दबाव बढ़ा है

  • आदिवासी समुदायों को स्वशासन का अधिकार देने वाला यह कानून 1996 में लागू हुआ था,

  • झारखंड में अब तक इसे पूरी तरह से लागू नहीं किया गया है

लंबे समय से पेसा (प्रोविजन ऑफ द पंचायत एक्सटेंशन टू द शेड्यूल एरिया एक्ट 1996) कानून लागू करने की मांग के बीच आदिवासी समुदायों की नजर हालिया झारखंड हाईकोर्ट के एक आदेश पर जा टिकी है, जबकि इस आदेश से सरकार घिरी नजर आ रही है। कोर्ट ने पेसा के तहत नियमावली को लेकर अवमानना से जुड़े एक याचिका में सुनवाई करते हुए रेत घाटों और लघु खनिजों के आवंटन पर अगले आदेश तक रोक लगा दी है।

दरअसल, झारखंड अलग राज्य गठन के 25 साल बाद भी शेड्यूल एरिया के आदिवासी समुदायों को स्वशासन का अधिकार नहीं मिल पाया है। अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभाओं के माध्यम से आदिवासी समुदायों को स्वशासन का अधिकार देने वाला यह अधिनियम (पेसा कानून) 1996 में लागू किया गया था। यह अधिनियम है- पेसा कानून (प्रोविजन ऑफ द पंचायत एक्सटेंशन टू द शेड्यूल एरिया एक्ट 1996) । यह कानून देश भर के पांचवी अनुसूची वाले  आठ  राज्यों में लागू हो चुका है।

राज्य में पेसा को लागू करने को लेकर दायर एक जनहित याचिका (पीआईएल) में हाईकोर्ट ने 29 जुलाई 2024 को दो महीने में राज्य सरकार को नियमावली लागू करने का आदेश दिया था। राज्य सरकार ने इसे अब तक लागू नहीं किया है। इस बाबत आदिवासी  बुद्धिजीवी मंच और अन्य के द्वारा अवमानना याचिका दायर किया गया है।

बीते 5 सितंबर 2025 को इस याचिका पर चीफ जस्टिस तरलोक सिंह चौहान और जस्टिस राजेश शंकर की खंडपीठ में अहम सुनवाई  हुई। सुनवाई में राज्य सरकार में पंचायती राज विभाग के सचिव मनोज कुमार व्यक्तिगत रूप से उपस्थित हुए।

प्रार्थी और राज्य सरकार का पक्ष सुनने के बाद खंडपीठ ने मामले को गंभीरता से लेते हुए रेत घाटों और लघु खनिज के आवंटन पर रोक का आदेश दिया। अगली सुनवाई में सरकार के सचिव को फिर से हाजिर रहने को कहा गया है। 

वरिष्ठ अधिवक्ता अजित कुमार ने बताया कि प्रार्थी की ओर से खंडपीठ को बताया गया कि पेसा नियमावली लागू करने से पहले राज्य सरकार जानबूझकर रेत घाटों की नीलामी और आवंटन की प्रक्रिया में जुटी है। पांच सालों के लिए बालू घाटों के आवंटन के पीछे सरकार की मंशा है कि ग्राम सभाओं का स्वशासन और पारंपरिक अधिकार नहीं मिले। सरकार की ओर से बताया गया है कि नियमावली को लेकर अलग-अलग विभागों से मंतव्य मांगे गए हैं। जब वे विभाग सरकार के ही हैं, तो मंतव्य लेने में देरी क्यों।

गौरतलब है कि राज्य सरकार 444 रेत घाटों की नीलामी और आवंटन की प्रक्रिया में जुटी है। जबकि पेसा के तहत लघु खनिज जैसे बालू, पत्थर के अलावा वनोपज आदि की बिक्री और इस्तेमाल पर ग्राम सभा का अधिकार होगा।

उठते सवाल

पेसा नियमावली मसौदा (ड्राफ्ट) को अंतिम रूप देने, रूल्स ऑफ बिजनेस के तहत दूसरे विभागों से मंतव्य लेने और कैबिनेट की मंजूरी के लिए भेजने की जिम्मेदारी पंचायती राज विभाग पर है।

ग्रामीण विकास और पंचायती राज विभाग की मंत्री दीपिका सिंह पांडेय ने डाउन टू अर्थ को बताया कि 11 विभागों से मंतव्य प्राप्त हो गए हैं। बाकी आठ विभागों से भी मंतव्य प्राप्त करने के लिए समन्वय जारी है। हमारी कोशिश है कि इसे जल्दी कैबिनेट की मंजूरी के लिए भेजा जाए।

नियमावली के मसौदे को लेकर आदिवासी समुदायों और संगठनों के बीच से कई मौके पर सवाल भी उठते रहे हैं। इस सवाल पर मंत्री कहती हैं, “सरकार इसकी पक्षधर है कि पेसा की नियमावली स्पष्ट और स्वशासन के हित अधिकार में हो।” 

उल्लेखनीय है कि लंबे इंतजार के बाद पिछले साल सितंबर में सरकार ने सभी आपत्तियों व सुझावों पर तर्कसंगत निर्णय के साथ पेसा नियमावली  मसौदे को अंतिम रूप दिया था। लेकिन इसके बाद भी सरकारी स्तर पर विमर्श होते रहे। 

सोमवार, 15 सिंतबर 2025 को मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने राज्य के महाधिवक्ता और आला अफसरों के साथ बैठक कर पेसा नियमावली लागू करने और इसके प्रभावों के बारे में जानकारी ली।

दूसरी तरफ पूर्व मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन, रघुवर दास, बाबूलाल मरांडी पेसा को लेकर सरकार की नीति और नीयत पर लगातार सवाल खड़े करते रहे हैं।

14 सितंबर को जमशेदपुर में आदिवासी सांवता सुसार अखड़ा द्वारा आयोजित आदिवासी महादरबार में आदिवासी समाज के अगुआ, बुद्धिजीवी, स्वशासन व्यवस्था के प्रमुख माझी बाबा व परगना का जुटान हुआ था। इसमें आदिवासी अधिकारों, प्रथागत कानून तथा पेसा नियमावली पर गहन चर्चा हुई।

14 सितंबर को ही आदिवासी बहुल खूंटी जिला मुख्यालय में ‘रूढ़िजन्य जनजाति आदिवासी महासभा’ का आयोजन किया गया। महासभा में कई जिले के आदिवासी प्रतिनिधि और पारंपरिक व्यवस्था के अगुआ शामिल थे।

इस महासभा में भी पांचवीं अनुसूची के तहत संवैधानिक अधिकार, स्वशासन व्यवस्था, ग्रामसभा को संपूर्ण अधिकार और पेसा कानून 1996 के प्रावधान के तहत अधिकार पर चर्चा की गई।

शेड्यूल एरिया और आबादी, पारंपरिक व्यवस्था

पांचवी अनुसूची के तहत अनुसूचित क्षेत्र में झारखंड के 14 जिले शामिल 2011 की जनगणना के मुताबिक झारखंड में आदिवासियों की जनसंख्या कुल आबादी लगभग 3.29 करोड़ की 26.3 प्रतिशत है। इनमें से आधे से ज़्यादा लोग 12,164 गांवों में रहते हैं। 

81 सदस्यीय झारखंड विधानसभा में आदिवासियों के लिए 28 सीटें आरक्षित हैं। अनुसूचित क्षेत्रों में  मानकी मुंडा व्यवस्था और माझी परगना व्यवस्था (पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था/ शासन प्रणाली)  के 28,550 पदाधिकारियों को राज्य सरकार हर महीने सम्मान राशि देती है।

पश्चिम सिंहभूम जिला मानकी मानकी मुंडा संघ के अध्यक्ष गणेश पाठ पिंगुआ डाउन टू अर्थ से कहते हैं, “आदिवासियों की अपनी शासन प्रणाली के बाद भी आदिवासी स्वशासन और परंपरा कई दबाव और प्रशासनिक हस्तक्षेप से गुजर रहा है। पेसा में ग्राम सभाओं को शक्तिशाली और अधिकार संपन्न बनाने का प्रावधान है। स्वशासन का अधिकार देने में कोताही और विलंब अफसोसजनक है।”

मौजूदा पेसा नियमावली मसौदे में पंचायतों के संचालन, ग्राम सभाओं के अधिकार के बारे में विस्तार से नियम बताए गए हैं। सामुदायिक संसाधन के प्रबंधन, परंपराओं का दस्तावेजीकरण- यथा रूढ़िवादी विधि, सामाजिक, धार्मिक प्रथाओं का संधारण, ग्राम सभा कोष, जमीन अधिग्रहण से पूर्व अनुमति, विवादों की सुनवाई समेत अन्य मामलों में पंचायतों और ग्राम सभाओं को अधिकार दिए जाने हैं।

पंचायती राज अधिनियम के रास्ते स्वीकार नहीं

हालांकि पेसा कानून के लागू करने के रास्ते चुनौती भी है। दरअसल, आदिवासियों का एक वर्ग पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में झारखंड में पंचायती राज अधिनियम (जेपीआरए) 2001 के रास्ते पेसा को लागू करने के आरोपों के साथ विरोध करते रहे हैं।

इसी सिलसिले में झारखंड उलगुलान संघ के बैनर तले पिछले 19 मार्च को खूंटी के डोंबारी बुरू से एक पद यात्रा निकाली गई थी। इस आंदोलन को कई आदिवासी संगठनों का समर्थन हासिल था। इस पद यात्रा के जरिए आदिवासियों का जोर था कि हुबहू पेसा कानून 1996 लागू किया जाए।

आदिवासी क्षेत्रीय सुरक्षा परिषद के अगुआ और सामाजिक कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग कहते हैं, “पंचायत व्यवस्था सामान्य क्षेत्रों में शक्ति का विकेन्द्रीकरण के लिए है, जबकि पेसा कानून 1996 देश के अनुसूचित क्षेत्रों के लिए है, जिसकी मूल भावना आदिवासियों की पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था को शासन की शक्ति और अधिकार प्रदान करना है।  झारखंड पंचायत राज एक्ट-2001 को झारखंड के अनुसूचित क्षेत्रों में अधिनियमित करते समय संविधान के अनुच्छेद  243(एम), 244(1) और 254 का उल्लंघन हुआ है। 

डुंगडुंग कहते हैं, “अनुसूचित क्षेत्रों में पारंपरिक स्वशासी व्यवस्था लागू करने के लिए लगातार सभा, बैठक करने के साथ पेसा की मूल भावना को सरल ढंग से समझाने के लिए एक पुस्तिका भी तैयार कर आदिवासी समुदायों, संगठनों के बीच बांटे गए हैं। आगे सरकार किस तरीके से नियमावली लागू करती है, इसका इंतजार है। वैसे हाईकोर्ट के आदेश से सरकार साफ घिरी नजर आ रही है।” 

आदिवासी मामलों के जानकार और ‘शून्यकाल में आदिवासी’ के लेखक अश्विनी कुमार पंकज कहते हैं, “पेसा के केंद्र में अहम है पारंपरिक आदिवासी स्वशासन व्यवस्था को लागू करना। इसे लटकाए रखने के पीछे की मंशा सरकारी मशीनरी को ज्यादा शक्तियां देना और पांचवी अनुसूची क्षेत्र में पंचायती राज व्यवस्था थोपना है।”

दूसरी तरफ ‘ग्राम सभा नये लोकतंत्र की दस्तक’ के लेखक और पेसा नियमावली मसौदा समिति (ड्राफ्ट कमेटी) के सदस्य रहे सुधीर पाल उपरोक्त तर्कों और तथ्यों से इत्तेफाक नहीं रखते।। वे डाउन टू अर्थ से कहते हैं, “ये बातें भावनात्मक व व्यक्तिगत हो सकती हैं, वैधानिक कतई नहीं. पेसा के लागू होने में अनिवार्य शर्त है- पंचायत राज की व्यवस्था। पेसा के तहत कुछ अधिकार कुछ अधिकार ग्राम सभाओं को है दिए गए हैं। कुछ अधिकार पंचायतों को। और कुछ अधिकार दोनों को।”

सुधीर पाल  हालिया हाईकोर्ट के आदेश को ठोस बताते हुए कहते हैं कि सरकार की सैंड पॉलिसी में ग्राम सभाओं की अनदेखी की गई है। जबकि पेसा में यह प्रावधान है कि लघु खनिज और लघु वनोपज पर निर्णय लेने का अधिकार ग्राम सभा का होगा। जबकि सरकार रेत घाटों की नीलामी और आवंटन में जुटी है।

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