छत्तीसगढ़ रिपोर्टर डायरी-8: अबूझमाड़ की अमील मंडावी: पैदल सफर कर आदिवासी गांवों में प्राकृतिक चिकित्सा की मिसाल

अबूझमाड़ के गांवों की यात्रा के दौरान डाउन टू अर्थ की मुलाकात 70 वर्षीय अमील मांडवी से हुई
एक बच्चे का इलाज करती अमील। फोटो: अनिल अश्चिनी शर्मा
एक बच्चे का इलाज करती अमील। फोटो: अनिल अश्चिनी शर्मा
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शिक्षा और स्वास्थ्य किसी भी समाज के अहम आधार स्तंभ होते हैं । हालांकि अबूझमाड़ के गांवों में निवास करने वाले आदिवासी समाज ने इन दोनों महत्वूपर्ण आधार स्तंभों को अपने पारंपरिक ज्ञान से हासिल कर रखा है। शिक्षा के लिए उनके पास घोटुल (सांस्कृतिक केंद्र) जैसी परंपरा अब भी जीवित है तो स्वास्थ्य क्षेत्र में उनकी अपनी प्राकृतिक चिकित्ससा पद्धति आज भी उतनी ही कारगर साबित हो रही है, जितनी सदियों से होती आई है।

अबूझमाड़ के आमाटोला गांव की 70 वर्षीय अमील मंडावी घर के आंगन में एक नवजात को अपने दोनों पैरों पर लिटा कर उसके शरीर के हिस्सों को हौले-हौले दबा रही हैं। पूछने पर उन्होंने बताया कि बच्चा दो दिन से ठीक से खाना नहीं खा पा रहा है। इसकी पाचन क्रिया ठीक से काम नहीं कर रही है, इसलिए मैं यह जानने की कोशिश कर रही हूं कि इसे क्या खिलाया जाए ताकि इसका पाचन तंत्र ठीक से काम कर सके।

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एक बच्चे का इलाज करती अमील। फोटो: अनिल अश्चिनी शर्मा

अमील आसपास की अकेली ऐसी महिला हैं जो प्राकृतिक चिकित्सा में निपुण हैं। ऐसे हालात में वह अकेली ही अबूझमाड़ के 20 से 22 गांवों तक के मरीजों को देखने आती-जाती हैं।

ध्यान रहे कि आदिवासी गांवों में एक घर से दूसरे घर की दूरी ही आठ से दस किलोमीटर तक की होती है। ऐसे में यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह लगभग दो दर्जन के करीब गांवों में वह कैसी आती-जाती होंगी। पूछने पर उन्होंने बताया कि ऊपर वाले ने जब मुझे शक्ति दी है तो मेरा नैतिक दायित्व बनता है कि मैं हर उस मरीज तक पहुंच सकूं जिसे तनिक भी बीमारी है। इतनी दूरी आप कैसे तय करती हैं? इस सवाल के जवाब में कहती हैं, बस अपने पैरों पर मुझे बहुत भरोसा है और ऊपर वाला मुझे जैसे-तैसे पहुंचा ही देता है।

ध्यान रहे कि इस गांव से पखांजूर तहसील (कांकेर जिला) की दूरी लगभग 58 किलोमीटर है।  यह दूरी किसी साइकिल, बाइक या किसी मोटर गाड़ी से तय नहीं होती है बल्कि जंगल की पगडंडियां इस दूरी को पूरा करती हैं।

ऐसे में यदि कोई आदिवासी चाहे कि वह शहरी दवाखाना में जाकर किसी डॉक्टर से अपना इलाज कराए तो उसके लिए पगडंडी की दूरी तय करना तो आसान है, लेकिन उसे यह भरोसा नहीं है कि जब वह किसी अस्पताल तो दूर किसी प्राथमिक स्वास्थ केंद्र पर पहुंचेगा तो वहां डॉक्टर, नर्स या दवाई आदि मिल ही जाएंगे। डाउन टू अर्थ की टीम ने इन इलाकों में बने कई प्राथमिक केंद्रों को देखा जहां जंगली घासों के बीच बिल्डिंग तो खड़ी है लेकिन दूर से ही पता चल जाता है कि वहां चिकित्सा जैसी कोई व्यवस्था नहीं है।

इन विपरीत हालात में भी अमील अपने काम के प्रति इतनी कर्तव्यनिष्ठ हैं कि वे कई बार दूर-दराज के गांव में जब इलाज के लिए जाती हैं तो कई दिनों बाद ही अपने घर लौट पाती हैं। इस संबंध में उन्होंने बताया कि इलाज में तो इतना वक्त नहीं लगता, लेकिन पैदल यात्रा में ही अधिकतर समय जाया होता है। कहने का अर्थ कि वे दो से तीन दिन तक पैदल चल कर दूर-दराज के गांवों में इलाज करने आती-जाती रहती हैं।

उनका कहना है कि इस इलाके में मेरी सबसे अधिक जरूरत गर्भवती महिलाओं को होती है। वह बताती हैं कि युवा महिलाओं को अपने गर्भ में पल रहे शिशु को स्वस्थ कैसे रखना है और क्या खाना-पीना है आदि के बारे में समुचित जानकारी का आभाव होता है। इस हालत में मुझे उनको सही समय पर खाना और क्या खाना है आदि की जानकारी देनी होती है। साथ ही बाद में समय-समय पर उनकी जांच भी करनी होती है कि वे मेरे निर्देशों का ठीक से पालन कर पा रही हैं कि नहीं।

अमील इतनी दौड़-धूप करती हैं कि उन्हें खुद आराम करने के लिए वक्त नहीं मिलता। इन तमाम कामों के लिए वह किसी प्रकार का शुल्क या किसी प्रकार का सामान आदि नहीं स्वीकार करती हैं। हालांकि उनका भी एक भरापूरा परिवार है, लेकिन उनके परिवार ने आज तक उनके इस काम में किसी प्रकार की रोकटोक नहीं की है।

उनके पति मंगूडू कहते हैं कि हम कौन होते हैं उनको रोकटोक करने वाले, हम तो हमेशा चाहते हैं कि वह अपने ज्ञान से जितना अधिक से अधिक हो उतना अपने आदिवासी भाई-बहनों की आजीवन सेवा करती रहें। वह बताते हैं कि मेरे भी कई नाती-पोते हैं लेकिन मजाल कि हमारे घर में कभी इस बात की शिकायत सुनने को मिली हो कि वह तो हमेशा बाहर ही रहती हैं, घर के कामों में हाथ नहीं बंटाती हैं।

अमील कहती हैं कि मुझे लोगों को स्वास्थ्य संबंधी जानकारी देना अच्छा लगता है लेकिन मैं जब घर पर होती हूं तो घर के कामों को भी उतनी ही सहजता से लेती हूं जितनी लोगों की सेवा को लेती हूं। वह कहती हैं कि मुझे इस बात बात की भी फिक्र सताए रहती है कि मैं तो इस गांव से दूसरे गांव आ-जा रही हूं लेकिन मेरी जरूरत मेरे नाती-पोतों को भी है। लेकिन मैं अपनी निजी भावना को अपने चिकित्सकीय कार्य के ऊपर हावी नहीं होने देती हूं।

वह बताती हैं कि हमारे इलाकें में मैं प्राकृतिक दवा आदि अवश्य देती हूं लेकिन इसके पहले हमारे यहां कई ऐसे स्वास्थ संबंधी जानकार होते हैं जो अपने पारंपरिक ज्ञान से पहले इस बात की जानकारी देते हैं कि इस क्षेत्र में कौन सी बीमारी फैलने वाली है या फैल गई है। अमील का कहना है कि ऐसी जानकारी होने के बाद मेरे लिए किसी का इलाज करना और आसान हो जाता है।

अमील के ही आंगन के एक कोने में दो लोग बैठे हैं। इनमें एक प्राकृतिक चिकित्सक हैं जो पत्थरों की गोल-गोल गोटियों को अपने सामने रखे लकड़ी के पटे पर रख रहे थे। साथ ही उस पर चौकोर आकार में कई खाने बना रहे थे। इसे समझने के लिए यह कहना सही होगा कि जैसे कोई लूडो खेल रहा हो। पटे के एक ओर चिकित्सक बैठे हुए हैं और उनके सामने वह व्यक्ति जिसके घर में कोई बीमार है।

दोनों इस पटे पर बने खानों पर पत्थर की गोटियां इधर-इधर खिसका रहे थे। पूछने पर अमील ने बताया कि इसके माध्यम से वे मुझे यह बता सकने की स्थिति में होंगे कि इनके घर के साथ-साथ इनके गांव या इलाके में कौन सी बीमारी फैल रही है या फैल चुकी है।

जारी

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