फोटो: शिवानी पांडेय
फोटो: शिवानी पांडेय

तिलाड़ी नरसंहार के 95 वर्ष

30 मई, 1930 को तिलाड़ी के मैदान में आयोजित आजाद पंचायत में जो हुआ, उसे आज तक याद किया जाता है
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वन लंबे समय से हिमालयी समुदायों की जीवनरेखा रहे हैं, जो भोजन, ईंधन और आश्रय जैसे आवश्यक संसाधन प्रदान करते हैं और साथ ही उनकी सांस्कृतिक और आर्थिक पहचान को भी आकार देते हैं। उत्तराखंड की टिहरी रियासत में 95 साल पहले हुए तिलाड़ी (रवाईं) वन आंदोलन स्थानीय समुदायों और उनके प्राकृतिक पर्यावरण के बीच गहरे संबंध का प्रमाण है। यह आंदोलन औपनिवेशिक शासन से प्रेरित, टिहरी रियासत की वन नीतियों के खिलाफ एक शक्तिशाली प्रतिक्रिया के रूप में उभरा, जिसने पारंपरिक वन अधिकारों को प्रतिबंधित किया और ग्रामीणों की आजीविका को खतरे में डाला।

तिलाड़ी आंदोलन की शुरुआत 1929-1930 की वन बंदोबस्त नीतियों से हुई थी, जिसे ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के प्रभाव में, टिहरी रियासत द्वारा लागू किया गया था। रियासत के जंगल की लकड़ियों का दोहन कर राजस्व को अधिकतम करने के उद्देश्य से बनाई गई इन नीतियों ने चराई, जलाऊ लकड़ी और अन्य आवश्यक वस्तुओं के लिए ग्रामीणों की जंगलों तक पहुंच को सीमित कर दिया गया।

टिहरी रियासत ने डीएफओ पदम दत्त रतूड़ी के माध्यम से रवाई-जौनपुर के ग्रामीणों पर कई कर और प्रतिबंध लगाए गए, जिससे उनके वन संसाधनों के दैनिक उपयोग पर असर पड़ा और व्यापक प्रतिरोध भड़क उठा। इन नए नियमों में प्रत्येक खाना पकाने के चूल्हे के लिए एक रुपये का चूल्हा कर, आलू उत्पादन के लिए प्रति व्यक्ति एक रुपये का कर शामिल था।

इसके अतिरिक्त, महिलाओं को घास इकट्ठा करने के लिए भेदभावपूर्ण करों का सामना करना पड़ा: बांझ महिलाओं के लिए एक रुपया और जन्म देने वाली महिलाओं के लिए आठ आने। पशुधन कर भी लागू किए गए, जिसमें पाँच से अधिक बकरी रखने वाले परिवारों के लिए चार आने प्रति बकरी, दो से अधिक गाय और एक जोड़ी बैल रखने वालों के लिए प्रति पशु एक रुपये का वार्षिक पुच्छी कर और कई भैंसों के लिए प्रति भैंस दो रुपये का पुच्छी कर शामिल था।

झूम खेती (कट-कुराली), शिकार, मछली पकड़ने (मौन त्यौहार सहित) और शराब के उत्पादन पर प्रतिबंध लगाकर पारंपरिक प्रथाओं को और कम कर दिया गया| लकड़ी का मुफ्त आवंटन वार्षिक रमना तक सीमित था, अतिरिक्त लकड़ी केवल आवेदन प्रक्रिया के माध्यम से एक निश्चित मूल्य पर उपलब्ध थी। इन नीतियों के उल्लंघन को गंभीर अपराध माना गया। इन दमनकारी नीतियों ने, ग्रामीणों की पारंपरिक आजीविका और जंगल तक पहुँच को बाधित किया, और अंततः तिलाड़ी आंदोलन के उग्र विरोध की नींव रखी।

आंदोलन की विशेषता जमीनी स्तर पर की गयी लामबंदी थी, जिसे ग्रामीणों ने आज़ाद पंचायत माध्यम से किया| आज़ाद पंचायत, रवाई के ग्रामीणों द्वारा संचालित एक समानांतर शासन संरचना थी जिसने टिहरी रियासत के अधिकार को चुनौती दी। “आजाद पंचायत” की ओर से घोषणा की गयी कि वनों के बीच रहने वाली प्रजा का वन सम्पदा के उपभोग का सबसे अधिक अधिकार है। आजाद पंचायत ने वनों की नई सीमाओं को मानने से अस्वीकार कर दिया।

नए वन कानूनों ने उन्हें नैसर्गिक अधिकारों से वंचित कर दिया था, जिसने उन्हें बगावत करने पर मजबूर किया। ये बगावतें ढंडक कही गईं। उन्नीसवीं तथा बीसवीं शताब्दी की अधिकांश ढंडकें नयी भू-व्यवस्था व वन्य व्यवस्था से उपजे असंतोष का परिणाम थीं। प्राचीन काल से ही टिहरी रियासत के ग्रामीण इलाकों में जंगल की भूमि व उत्पादों के उपभोग पर स्थानीय निवासियों का निर्बाध अधिकार था।

वनों पर अपने पारम्परिक अधिकारों के लिए 1930 के शुरुआती महीनों में टिहरी रियासत में कई घटनाएं हो रही थी, जो कि रियासत और जनता के बीच की दूरियों को बढ़ाने का काम कर रही थी। जनता के विरोध को कम करने के बजाय रियासत का प्रशासन, आन्दोलन की इस आग को कभी आन्दोलनकारियों पर गोली चला कर आगे बढ़ा रहे थे तो कभी आन्दोलनकारियों पर मुकदमें चला कर। प्रशासन की इन कार्रवाईयों ने आन्दोलन को और भड़काने का काम किया। जिसका असर 30 मई, 1930 को तिलाड़ी के मैदान में आयोजित आजाद पंचायत की सभा में दिखा।

इस पंचायत में हजारों की संख्या में बच्चे, बूढ़े, जवान, महिला-पुरुष बड़ी संख्या में स्थानीय लोगों पर हुई दमनात्मक कार्रवाई और जंगल के रियासती नियमों के विरोध में एकत्र हुए| ग्रामीणों ने शोषणकारी करों को समाप्त करने, चराई के अधिकारों की बहाली, कुली बेगार की समाप्ति और मछली पकड़ने जैसी पारंपरिक गतिविधियों का अभ्यास करने की स्वतंत्रता की मांग की। ये मांगें न केवल आर्थिक अस्तित्व के लिए संघर्ष को दर्शाती थीं, बल्कि सांस्कृतिक और पर्यावरणीय स्वायत्तता के लिए भी एक व्यापक लड़ाई थीं।

प्रतिरोध 30 मई, 1930 को तिलाड़ी के मैदान में हो रही आजाद पंचायत की शांतिपूर्ण सभा का अंत एक दुखद घटना के साथ समाप्त हुआ| रियासत के अधिकारीयों दीवान चक्रधर जुयाल और डी०एफ०ओ० पद्म दत्त रतूड़ी ने जनता की समस्याओं को न सुन कर, दमन का रास्ता ही अपनाया| मैदान के एक तरफ यमुना नदी के अलावा, तीनों क्षेत्रों से घेरकर सेना की गोलियों की बौछार कर दी| गोलियों से बचने के लिए कुछ लोग भागे तो कुछ लोग जान बचाने के लिए नदी में कूद पड़े| और कई लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी। घटना में मरने वालों की संख्या पर अलग अलग विचार है| जो कि चार (जैसा कि राज्य द्वारा रिपोर्ट किया गया है) से लेकर उत्तर प्रदेश सूचना विभाग द्वारा 200 तक बतायी जाती रही है। गढ़वाली साप्ताहिक के अनुसार कुल 600 से अधिक गोलियाँ चलीं और घायलों की संख्या सैकड़ों में थी। "उत्तराखंड का जलियांवाला बाग" कहे जाने वाले इस जनसंहार ने टिहरी रियासत की दमनकारी नीति और शांतिपूर्ण आन्दोलन पर राज्य की हिंसा के विनाशकारी प्रभाव को उजागर किया।

स्थानीय समाचार पत्र गढ़वाली साप्ताहिक ने तिलाड़ी आंदोलन का दस्तावेजीकरण करने और जन आक्रोश को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गढ़वाल संघ द्वारा प्रकाशित इस अख़बार ने सेंसरशिप और संपादक विश्वंभर दत्त चंदोला के कारावास का सामना करने के बावजूद ग्रामीणों की शिकायतों और राज्य के दमन की निडरता से रिपोर्टिंग की। रवाई के लोगों को आवाज़ देकर, गढ़वाली साप्ताहिक ने न केवल तिलाड़ी घटना की स्मृति को संरक्षित किया, बल्कि रियासत की दमनकारी नीतियों के खिलाफ़ प्रतिरोध को भी प्रेरित किया।

आंदोलन के परिणाम महत्वपूर्ण थे, क्योंकि निरंतर प्रतिरोध ने टिहरी रियासत को रियायतें देने के लिए मजबूर किया। अक्टूबर 1930 में, महाराजा नरेंद्र शाह ने स्टोव टैक्स और चराई शुल्क सहित कई करों को समाप्त करने की घोषणा की, और लकड़ी और चारे जैसे वन संसाधनों तक पहुँच बहाल की। ​​राज्य ने ग्रामीणों की प्रमुख माँगों को संबोधित करते हुए सीमित शिकार और शराब उत्पादन की भी अनुमति दी। इन रियायतों ने रवाई-जौनपुर के लोगों की जीत को चिह्नित किया, जो दमनकारी नीतियों को चुनौती देने में सामूहिक कार्रवाई की शक्ति का प्रदर्शन करता है। इसके अलावा, आंदोलन की विरासत ने आज़ाद पंचायत के माध्यम से 1949 में टिहरी राजशाही के अंतिम विघटन में योगदान दिया, क्योंकि जमीनी स्तर पर प्रतिरोध बढ़ता रहा।

तिलाड़ी की तुलना जलियांवाला बाग से करने पर राज्य की हिंसा और प्रतिरोध के साझा विषय सामने आते हैं। दोनों घटनाओं में शांतिपूर्ण सभाओं का सामना अलग अलग सत्ताओं के सुरक्षा बलों से किया गया, जिसमें सीमित स्थान - जलियांवाला का चारदीवारी वाला बगीचा और तिलाड़ी का नदी तट - त्रासदी को और बढ़ा देते हैं। जहाँ जलियांवाला बाग ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को बढ़ावा दिया, वहीं तिलाड़ी के स्थानीय संघर्ष ने ठोस नीतिगत बदलाव सुनिश्चित किए और बाद में चिपको जैसे पर्यावरण आंदोलनों को प्रेरित किया। दोनों नरसंहारों ने औपनिवेशिक और राजसी शासनों की सत्तावादी नीतियों को उजागर किया| और साथ ही स्वायत्तता और न्याय के लिए सार्वभौमिक लड़ाई को रेखांकित किया। तिलाड़ी आंदोलन की विरासत समकालीन पर्यावरण न्याय के संघर्षों में गूंजती है। दमनकारी वन नीतियों को चुनौती देने में इसकी सफलता चिपको और हसदेव अरण्य में आदिवासी प्रतिरोध जैसे आधुनिक आंदोलनों के समानांतर है, जो वाणिज्यिक शोषण के खिलाफ सामुदायिक अधिकारों की वकालत करते हैं।

तिलाड़ी आंदोलन का महत्व इसके तत्काल परिणामों से परे है, जो समकालीन पर्यावरण न्याय के लिए मूल्यवान सबक प्रदान करता है। यह संसाधन प्रबंधन में स्थानीय समुदायों को प्राथमिकता देने के महत्व को रेखांकित करता है, विशेष रूप से हिमालय जैसे पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में। आज़ाद पंचायत की स्थापना, विकेंद्रीकृत शासन की प्रभावकारिता को भी दर्शाती है, जो आज के सतत विकास पर बहस के लिए एक प्रासंगिक मॉडल है।

 तिलाड़ी आंदोलन और उसका दुखद नरसंहार भारत के हिमालयी क्षेत्रों में पर्यावरण और सामाजिक न्याय के लिए स्थायी संघर्ष को उजागर करता है। टिहरी रियासत की शोषणकारी नीतियों को चुनौती देकर, रवाई-जौनपुर के लोगों ने महत्वपूर्ण रियायतें हासिल कीं, जिसने वन प्रशासन को नया रूप दिया और भविष्य के प्रतिरोध को प्रेरित किया। आज, जब वनों की कटाई और जलवायु परिवर्तन हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को खतरे में डाल रहे हैं, तिलाड़ी के सबक नीति निर्माताओं से स्वदेशी ज्ञान और संसाधनों तक समान पहुंच को प्राथमिकता देने का आग्रह करते हैं। जैसे-जैसे हम जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय गिरावट की जटिलताओं की ओर बढ़ रहे है, तिलाड़ी के सबक हमें याद दिलाते हैं कि भूमि से सबसे अधिक जुड़े लोगों की आवाज को एक न्यायपूर्ण और टिकाऊ भविष्य की ओर पूरी दुनिया का मार्गदर्शन करना चाहिए।

लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय में पोस्ट डॉक्टोरल फेलो हैं और लेख में व्यक्त उनके व्यक्तिगत विचार हैं  

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