भूख से होने वाली मौतों को स्वीकार क्यों नहीं करते 'हम'

सरकार पहले तो मौत को भूख के बजाय किसी दूसरी तकनीकी वजह से बताती है, बाद में भूख से लड़ने के लिए चलाई जा रह योजनाओं की सूची पेश कर देती है
फोटो: विकास चौधरी
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भूख, आदमी की जान ले लेती है। क्या हम यह कह सकते हैं कि देश में भूख से मौतें नहीं होती? देश में भुखमरी से होने वाली मौतों पर हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने आदेशात्मक लहजे में सरकार से यह सवाल पूछा। सामुदायिक रसोई को पूरे देश के स्तर पर लागू करने की नीति से जुड़ी एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान शीर्ष कोर्ट के जस्टिस एएस बोपन्ना और हिमा कोहली ने सरकार को फटकार लगाई।

इस पर केंद्र सरकार ने कहा कि देश में भूख से कोई मौत नहीं हुई। इस जवाब के बाद मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना की अगुवाई वाली बेंच ने सरकार से पूछा कि क्या सरकार के पास भूख से होने वाली मौतों से संबंधित किसी तरह के आकड़े हैं ?

भारत अपने यहां बड़े स्तर पर गरीबी और भूख की मौजूदगी को स्वीकारने से कतराता नहीं है। हालांकि जब भी भूख से कोई मौत होती है, तो पहली प्रतिक्रिया उसे नकारने की होती है। बहुत ज्यादा पुरानी बात नहीं है, जब 1970 और 1980 के दशक में पूरे देश में भूख से मौते होती थीं और शीर्ष स्तर की राजनीति उन पर अपनी प्रतिक्रिया देती थी।
उस दौरान भूख से मौतों वाले इलाके में कई बार प्रधानमंत्रियों को दौरे करने पड़ते थे, लेकिन हाल के सालों में सरकार की पहली प्रतिक्रिया भूख से होने वाली मौत को नकारने की होती है। इसके साथ ही सरकार उस मौत को किसी दूसरे तकनीकी कारण से बता देती है और उन कल्याणकारी योजनाओं की सूची पेश कर देती है, जो वह भूख से लड़ने के चला रही होती है।

1990 के दशक के मध्य से जब ओडिशा के कालाहांडी-बलांगिर-कोरापुट क्षेत्र में भुखमरी से सैकड़ों लोगों की मौत हुई, तो इस पर कई बार शीर्ष अदालत में बहस हुइ। यहां तक कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) भी नियमित रूप से ऐसे मामलों की निगरानी कर रहा है।
उदाहरण के लिए फिलहाल इस मामले में चल रहे केस में याचिकाकर्ता ने सरकार से कहा है कि भूख से होने वाली मौत को प्रमाणित करने के लिए एक छानबीन वाली प्रणाली की जरूरत है। इसलिए उनकी मांग है कि इस तरह के निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए एक सक्रिय तंत्र होना चाहिए।
जनवरी 2011 में एनएचआरसी के पास दिल्ली से बाहर भूख से होने वाली मौतों के परीक्षण और उसकी रिपोर्ट की जांच करने के लिए अपनी पूर्ण पीठ थी। इस तरह की कई रिपोर्टों के साथ उसने ओडिशा में एक बैठक की। बैठक में यह फैसला लिया गया कि चूंकि सरकार भूख से 12 बच्चों की मौत को नकार रही है, इसलिए इस मामले के साथ ही इस पर बहस शुरू होनी चाहिए।
एनएचआरसी ने कहा कि इन बच्चों की मौत की तात्कालिक वजह भूख नहीं हो सकती है, लेकिन अगर संबंधित जिले में पोषण के पैटर्न को देखें तो हम समझ सकते हैं कि भूख की उनकी मौत में कितनी बड़ी भूमिका थी। एनएचआरसी ने इससे पहले भी कालाहांडी-बलांगिर-कोरापुट क्षेत्र में भुखमरी से मौतों पर यही राय रखी थी- अभाव, भूख और गरीबी तीनों मिलकर एक आदमी को उस स्तर तक पहुंचने के लिए मजबूर करते हैं, जो अंततः उसकी जान ले लेता है। इसीलिए एनएचआरसी ने कई उपायों की सिफारिश की जिसमें मुफ्त रसोई, मिट्टी और नमी संरक्षण कार्यक्रम, रोजगार आश्वासन की योजनाएं और स्वास्थ्य के विस्तृत बुनियादी ढाँचे शामिल थे।

भारत, भुखमरी या भूख को स्पष्ट शब्दों में स्वीकार करता है।  यहां उच्च स्तर की गरीबी, भूख और कुपोषण है। ये तीन संकेतक आपस में जुड़े हुए हैं और अक्सर एक दूसरे की ओर ले जाते हैं। पिछले साल दिसंबर में नीति आयोग ने राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक रिपोर्ट जारी की थी। यह रिपोर्ट दर्शाती है कि देश की 25.01 फीसदी आबादी बहुआयामी तौर पर गरीब है।
सूचकांक ने गरीबी के स्तर और इसकी तीव्रता को मापने के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन-स्तर के संकेतकों का इस्तेमाल किया। स्वास्थ्य- संकेतक के तहत इसमें पोषण, बाल-मृत्यु दर और महिला-स्वास्थ्य को शामिल किया गया था। इन तीनों उप-संकेतकों का भूख और गरीबी के स्तर के साथ नाभि और नाल जैसा संबंध है।

2013 में, राष्ट्रीय सर्वेक्षण नमूना संगठन द्वारा सर्वेक्षण के 66 वें दौर में पाया गया कि ग्रामीण क्षेत्रों के खेतिहर मजदूर देश में भोजन से सबसे अधिक वंचित हैं। सर्वेक्षण में पाया गया कि ग्रामीण परिवारों के लगभग एक फीसदी लोागों को पूरे साल पर्याप्त भेजन नहीं मिलता।
उन खेतिहर मजदूरों का प्रतिशत, जिन्हें साल में कुछ महीनों के दौरान एक दिन में दो वक्त का भोजन भी नहीं मिलता था, ग्रामीण परिवारों की तुलना में दोगुने से भी अधिक था। जब ग्रामीण परिवारों को साल भर भोजन न मिलने के आंकड़ों पर विचार किया गया तो यह प्रतिशत तीन गुना ज्यादा था।
देश में गरीबी और भूख का यह स्तर देखकर सवाल यह है कि हम वास्तव में यह मानने को तैयार क्यों नहीं होते कि लोग सचमुच भूख से मर रहे हैं। इसलिए क्योंकि ऐसी हर मौत पर अंतिम फैसला सरकार का होता है, जिसका बुनियादी कर्तव्य है कि वह लोगों के जीने के अधिकार को सुनिश्चित कराए।
इसमें नाकामी, दरअसल उसकी कल्याणकारी योजनाओं की नाकामी है, जिन्हें सरकार गरीबी, भूख और कुपोषण हटाने के लिए लागू करती है। सरकार इन योजनाओं का मूल्यांकन इसी आधार पर करती है के भले ही देश में गरीबी आौर भूख की मौजूदगी हो लेकिन उनकी वजह से किसी की जान नही जा रही।
इस तरह भूख से मौत की स्वीकारोक्ति, सरकार के लिए ऐसी चीज होगी, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। भारत में सूखे और अकाल के चलते लाखों लोगों की भूख से मौतें हुई हैं। इन मौतों के लिए हर बार वे औपनिवेशिक शासक जिम्मेदार थे, जिनके खिलाफ हमने संसाधनों के शोषण को लेकर लंबी लड़ाई लड़ी।
ऐसा कहा जाता है कि लोकतंत्र के पतन के साथ ही अकाल भी गायब हो गए और यह दुनिया भर में देखा गया। इसीलिए भुखमरी से होने वाली कुछ मौतों में भी एक निर्वाचित सरकार को उन औपनिवेशिक रंगों में चित्रित करने की ताकत होती है।

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