ट्रांसफैट पर संयुक्त राष्ट्र की नीति: विकासशील देशों के लिए चिंता का विषय

ट्रांसफैट को खत्म करने के मसौदे में एक बड़ी खामी ने गरीब देशों में पोषण का खतरा पैदा कर दिया है। मसौदे में औद्योगिक और प्राकृतिक स्रोतों के ट्रांसफैट में अंतर नहीं किया गया
ट्रांसफैट पर संयुक्त राष्ट्र की नीति: विकासशील देशों के लिए चिंता का विषय
इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसई
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दुनिया के कई हिस्सों में दूध का एक गिलास या मांस का एक टुकड़ा यह तय कर सकता है कि कोई बच्चा स्वस्थ तरीके से बड़ा होगा या कुपोषित रह जाएगा। यही वजह है कि भले ही संयुक्त राष्ट्र ने नेक इरादों से अपने ताजा मसौदे में ट्रांसफैट को खत्म करने का संकल्प लिया है लेकिन यह कदम फायदे से ज्यादा बड़ी आबादी को नुकसान पहुंचा सकता है।

इस साल सितंबर में वैश्विक नेता गैर-संक्रामक बीमारियों (एनसीडी) की रोकथाम और नियंत्रण पर राजनीतिक घोषणा को अपनाने वाले हैं। यह एक रोडमैप है जो हृदय रोग, मधुमेह, मोटापा और कैंसर जैसे बढ़ते बोझ से निपटने के लिए तैयार किया जा रहा है। इस साल मई में इसका एक मसौदा जारी किया गया था, जिस पर सदस्य देश फिलहाल विचार कर रहे हैं। साल के अंत तक इसके अंतिम संस्करण के आने की उम्मीद है।

फिलहाल मसौदे में शराब, तंबाकू, प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ और शक्करयुक्त पेय पदार्थों से जुड़ी कई कार्रवाइयों का प्रस्ताव रखा गया है। इनमें से ज्यादातर प्रतिबद्धताओं को व्यापक समर्थन मिला है। लेकिन 10 पन्नों के इस दस्तावेज में एक प्रावधान छिपा हुआ है जिसमें प्रसंस्कृत खाद्य और पेय पदार्थों से “ट्रांस-फैटी एसिड (ट्रांसफैट) को खत्म करने” की बात कही गई है। यही बिंदु कई देशों के कृषि और पशुधन विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों और पशु स्वास्थ्य अधिकारियों के लिए चिंता का कारण बना हुआ है। इस लक्ष्य का मकसद सेहत को नुकसान पहुंचाने वाले आहार, ज्यादा वजन और मोटापे की समस्या को कम करना है। लेकिन यह साफ नहीं है कि यह कदम सिर्फ औद्योगिक ट्रांस-फैट को खत्म करने के लिए है या फिर उन प्राकृतिक ट्रांस-फैट को भी शामिल करता है, जो दूध, मांस और पनीर जैसे पशु-आधारित खाद्य पदार्थों में पाए जाते हैं। यह अंतर इसलिए जरूरी है क्योंकि दूसरी श्रेणी के खाद्य पदार्थ खासकर कमजोर आबादी के लिए पोषण के भरोसेमंद स्रोत माने जाते हैं और इन्हें हानिकारक नहीं माना जाता।

डाउन टू अर्थ से बात करने वाले विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि अगर इस भाषा में संशोधन या स्पष्टीकरण नहीं किया गया तो इसके असर दूरगामी और संभावित रूप से नुकसानदेह हो सकते हैं, खासकर निम्न और मध्यम आय वाले देशों (एलएमआईसी) में जहां बच्चों में बौनापन, कुपोषण और सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी व्यापक है।

आयरलैंड स्थित रॉयल कॉलेज ऑफ सर्जन्स में हृदय रोग चिकित्सा की प्रोफेसर और क्लिनिकल वैज्ञानिक एलिस स्टैंटन कहती हैं कि यह अस्पष्टता इस गलतफहमी को भी बढ़ावा दे सकती है कि मांस और डेयरी उत्पादों का कम या मध्यम सेवन भी स्वास्थ्य के लिए खतरा है जबकि मौजूदा वैज्ञानिक साक्ष्य इस दावे का समर्थन नहीं करते। स्टैंटन कहती हैं, “अगर इसमें स्पष्टता नहीं लाई गई तो यह घोषणा पशुधन के खिलाफ मानी जा सकती है।” वह टिकाऊ खाद्य प्रणालियों से जुड़ी साक्ष्य-आधारित स्वस्थ आहार पर भी काम करती हैं।

स्पष्ट भेद जरूरी

स्टैंटन उन 117 विशेषज्ञों में से एक हैं जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों के वार्ताकारों को संबोधित एक संयुक्त पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं। इस पत्र में चेतावनी दी गई है कि प्रस्तावित प्रतिबद्धता विकासशील देशों में पोषण को कमजोर कर सकती है। 10 जुलाई, 2025 को लिखे गए खुले पत्र में हस्ताक्षरकर्ताओं ने वार्ताकारों से मसौदा घोषणा में संशोधन करने और औद्योगिक ट्रांस-फैट तथा दूध, मांस, दही और पनीर जैसे पशु-आधारित खाद्य पदार्थों में पाए जाने वाले प्राकृतिक ट्रांस-फैट के बीच स्पष्ट भेद करने की अपील की है।

स्विट्जरलैंड स्थित गैर-लाभकारी संस्था ग्लोबल एलायंस फॉर इम्प्रूव्ड न्यूट्रिशन (जीएआईएन) में सीनियर टेक्निकल स्पेशलिस्ट और वैश्विक पोषण वैज्ञानिक टाई बील का कहना है, “अफ्रीका और दक्षिण एशिया के निम्न-आय वाले देशों में पशु आधारित उत्पादों का उपभोग पहले से ही बहुत कम है और कुपोषण की समस्या ज्यादा है। ऐसी कोई भी नीति जो इन उत्पादों की उपलब्धता को और कम करेगी, उन जरूरी पोषक तत्वों के सेवन को भी घटा सकती है जो इन क्षेत्रों में स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य हैं।” संयुक्त राष्ट्र के मसौदा प्रस्ताव में यह अस्पष्टता नई बात नहीं है। मई 2025 में संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने अपने बयान में कहा कि “औद्योगिक रूप से तैयार और प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले दोनों प्रकार के ट्रांसफैट समान रूप से हानिकारक हैं।”

यह रुख उसके पहले के बयान से उलट है क्योंकि 2018 में डब्ल्यूएचओ ने 2023 तक वैश्विक खाद्य आपूर्ति से ट्रांसफैट को खत्म करने का लक्ष्य तय किया था और तब उसने “रीप्लेस एक्शन फ्रेमवर्क” पेश किया था, जिसमें खास तौर पर औद्योगिक ट्रांसफैट को निशाना बनाया गया था। अब यह बदलाव क्यों हुआ है, यह साफ नहीं है। वहीं, बाद में 2024 की एक रिपोर्ट में डब्ल्यूएचओ ने माना कि महत्वपूर्ण प्रगति के बावजूद दुनिया मूल समय सीमा के भीतर ट्रांसफैट के उन्मूलन के लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाई।

जानी-पहचानी चिंता

औद्योगिक ट्रांसफैट आंशिक हाइड्रोजनेशन के जरिए बनाए जाते हैं। यह एक रासायनिक प्रक्रिया है जिसमें वनस्पति तेलों में हाइड्रोजन मिलाई जाती है, जिससे वे तरल से ठोस में बदल जाते हैं। इस प्रक्रिया से वसा स्थिर हो जाती है और स्वाद और गंध लंबे समय तक बनी रहती है। इससे प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों की उपयोग करने की अवधि बढ़ जाती है। मिसाल के तौर पर भारत में वनस्पति उद्योग ज्यादातर पाम ऑयल से हाइड्रोजनेटेड वेजिटेबल ऑयल बनाता है, जिसे आमतौर पर वनस्पति घी कहा जाता है।

फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एफएसएसएआई) के मुताबिक जब खाना बनाने का तेल बार-बार उपयोग किया जाता है, चाहे वह व्यावसायिक रसोईघर हो या घर तो ट्रांसफैट बनता है। स्टैंटन के मुताबिक उच्च तापमान पर पकाने की विधियां खासकर डीप फ्राई भी ट्रांसफैट बनने में योगदान देती हैं। औद्योगिक ट्रांसफैट खाद्य उद्योग के लिए इसलिए आकर्षक हैं क्योंकि वे सस्ते होते हैं, कमरे के तापमान पर अर्ध ठोस रहते हैं, प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों की उपयोग की अवधि बढ़ाते हैं और बार-बार गर्म करने को सहन करते हैं। ऐसे कृत्रिम ट्रांसफैट आमतौर पर बेक और फ्राई किए गए प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों में पाए जाते हैं, जैसे बिस्कुट, कुकीज, केक, क्रैकर, रस्क, नमकीन (स्नैक्स), आलू चिप्स और वसा-आधारित बेकिंग सामग्री जैसे मार्जरीन यानी मक्खन जैसा फैलाने वाला फैट और शॉर्टनिंग यानी बेकिंग में कुरकुरापन लाने वाला ठोस फैट।

हालांकि, एफएसएसएआई के मुताबिक, ट्रांसफैट के संभावित स्वास्थ्य प्रभावों को लेकर चिंता बढ़ रही है, खासकर वनस्पति से बनने वाले ट्रांसफैट को लेकर यह चिंता और ज्यादा है। इनमें पोषण का लाभ बहुत कम है, यह खराब कोलेस्ट्रॉल (एलडीएल) बढ़ाते हैं और अच्छे कोलेस्ट्रॉल (एचडीएल) को घटाते हैं। ट्रांसफैट का ज्यादा सेवन कोरोनरी हृदय रोग यानी हृदय की धमनियों में रुकावट संबंधी बीमारी, हृदय संबंधी अन्य रोग, मोटापा, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, कैंसर और संबंधित मौतों से जुड़ा हुआ है।

इसके अलावा, डब्ल्यूएचओ का कहना है कि हर साल दुनिया में औद्योगिक ट्रांसफैट के सेवन से 2,78,000 से ज्यादा लोगों की मौतें होती हैं और यह इसकी सीमा तय करने की सिफारिश करता है। ट्रांसफैट के सेवन को कुल दैनिक ऊर्जा का एक प्रतिशत तक सीमित करने की सिफारिश की गई है। लेकिन जैसा कि एफएसएसएआई और 2011 में जर्नल ऑफ फूड साइंस एंड टेक्नोलॉजी में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि जुगाली करने वाले पशुओं जैसे गाय, भेड़ और बकरियों में प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले ट्रांसफैट का नकारात्मक प्रभाव बहुत कम होता है। जहां औद्योगिक खाद्य पदार्थों में ट्रांसफैट कुल वसा का 50-60 प्रतिशत तक हो सकता है, वहीं बीफ और डेयरी उत्पादों में यह काफी कम यानी सामान्य तौर पर दो से पांच प्रतिशत तक होता है।

साल 2015 में में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि जहां औद्योगिक ट्रांसफैट सभी कारणों से होने वाली मौतों, हृदय रोग, कोरोनरी हृदय रोग, इस्केमिक स्ट्रोक और टाइप-2 डायबिटीज के बढ़ते खतरे से जुड़े थे, वहीं जुगाली करने वाले (रुमिनेंट) ट्रांसफैट से ऐसा संबंध नहीं पाया गया। असलियत में अध्ययन यह भी सुझाता है कि कुछ डेयरी वसा टाइप-2 डायबिटीज से बचाव में मददगार हो सकती है।

रुमिनेंट उत्पादों के पोषण संबंधी लाभ सिर्फ डेयरी ही नहीं, मांस में भी अच्छी तरह से स्थापित हैं। ये उच्च गुणवत्ता वाले प्रोटीन, आयरन, जिंक, आयोडीन, कैल्शियम, विटामिन डी, बी 12, ए और राइबोफ्लेविन के समृद्ध स्रोत हैं। जो बच्चे रोजाना एक गिलास दूध पीते हैं, वे औसतन उन बच्चों की तुलना में तीन प्रतिशत ज्यादा बढ़ते हैं जो दूध नहीं पीते।

फिर भी कुछ देशों में औसत वार्षिक दूध खपत प्रति व्यक्ति सिर्फ एक किलो तक है जो कुपोषण का कारण बन सकता है। यह बात 10 जुलाई को संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों के वार्ताकारों को लिखे गए पत्र में कही गई है, जिस पर 117 विशेषज्ञों ने हस्ताक्षर किए हैं।

इस पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में जीएआईएन के अधिकारी, नाइजीरिया के चरवाहा और घुमंतू समुदायों के समूह फेडरल मिनिस्ट्री ऑफ लाइवस्टॉक डेवलपमेंट, वर्ल्ड एलायंस ऑफ मोबाइल इंडिजिनस पीपल्स और यूनाइटेड किंगडम स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ ग्रीनविच के नेचुरल रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट के विशेषज्ञ शामिल हैं।

संयुक्त राष्ट्र की विश्व खाद्य सुरक्षा समिति को सलाह देने वाले वाली हाई लेवल पैनल ऑफ एक्सपर्ट्स ऑन फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रिशन (एचएलपीई-एफएसएन) के वाइस चेयरपर्सन आइएन राइट ने डाउन टू अर्थ से कहा, “हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि एक महत्वपूर्ण लक्ष्य की प्राप्ति के प्रयास में हम कहीं जरूरी चीज को ही न नष्ट कर दें ।” राइट आगे कहते हैं, “हम आहार से औद्योगिक ट्रांस फैटी एसिड को खत्म करने के संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव का समर्थन करते हैं। इनके हानिकारक प्रभावों के पर्याप्त साक्ष्य मौजूद हैं। हालांकि, मौजूदा मसौदे में जिस तरह से बातें लिखी गई हैं, उससे यह चिंता है कि इसे सभी ट्रांसफैट खत्म करने की अपील के रूप में गलत समझा जा सकता है।”

विशेषज्ञ यह भी सुझाव देते हैं कि ट्रांसफैट खत्म करने से जुड़ी व्यापक भाषा का फायदा प्लांट प्रोटीन उद्योग उठा सकता है। टाई बील कहते हैं, “प्लांट प्रोटीन उद्योग अवसरवादी हो सकता है और नीतिगत बदलाव का उपयोग अपने बाजार को आगे बढ़ाने के लिए कर सकता है। हालांकि पौधों पर आधारित विकल्पों में पशु-आधारित खाद्य पदार्थों की तुलना में पोषक तत्वों का घनत्व कम हो सकता है लेकिन वे गैर-संक्रामक बीमारियों से अधिक सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं।”

नैरोबी में इंटरनेशनल लाइव स्टॉक रिसर्च इंस्टीट्यूट के सीनियर न्यूट्रिशन स्पेशलिस्ट एस्थर ओमोसा कहती हैं, “कुछ सूक्ष्म पोषक तत्व ऐसे हैं जो पौधों पर आधारित विकल्पों में नहीं होते। उदाहरण के लिए विटामिन बी12, यह केवल पशु-आधारित खाद्य पदार्थों में पाया जाता है।” ओमोसा यह भी कहती हैं कि अफ्रीका में पौधों पर आधारित खाद्य पदार्थ महंगे हैं इसलिए उनकी ओर जोर देना बड़ी आबादी के लिए वहन करना मुश्किल साबित हो सकता है।

वहीं, स्टैंटन कहती हैं, “पशु-आधारित और वनस्पति आधारित खाद्य पदार्थों पर पूरी बहस जटिल है।” उनका मानना है कि ध्यान टिकाऊ और स्वस्थ आहार बनाए रखने पर होना चाहिए जो अलग-अलग हो सकते हैं। लोग सावधानी बरतते हुए वनस्पति आधारित भोजन अपनाकर भी स्वस्थ रह सकते हैं।

लक्षित कदम

स्टैंटन के मुताबकि एक सचमुच स्वस्थ आहार का उद्देश्य दोहरा होना चाहिए। यह न केवल सभी प्रकार के कुपोषण जैसे अल्पपोषण, मोटापा और सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी को रोकने में सक्षम हो बल्कि साथ ही गैर-संक्रामक बीमारियों के खतरे को भी कम करें।

बील यह भी जोड़ते हैं कि पोषण की पर्याप्तता और रोगों की रोकथाम में कोई टकराव नहीं होना चाहिए। पौष्टिक भोजन एक संतुलित आहार का हिस्सा बनकर दोनों लक्ष्य हासिल कर सकते हैं।

वह जोर देते हैं कि वैश्विक नीतिगत घोषणाओं में यह सूक्ष्मता झलकनी चाहिए ताकि अनजाने में नुकसान न हो।

अहम बात यह है कि जिन देशों ने ट्रांसफैट से प्रभावी ढंग से निपटा है, उन्होंने केवल औद्योगिक ट्रांसफैट को ही निशाना बनाया। डेनमार्क ने 2003 में इसकी शुरुआत की, जब उसने सभी खाद्य उत्पादों में औद्योगिक ट्रांस-फैटी एसिड को प्रति 100 ग्राम वसा या तेल में दो ग्राम तक सीमित कर दिया। 2007 में न्यूयॉर्क सिटी ने भी इसी राह पर चलते हुए रेस्तरां में औद्योगिक ट्रांसफैट पर प्रतिबंध लगाया, वह भी यह साबित करते हुए कि इन्हें स्वाद, कीमत या उपलब्धता से समझौता किए बिना स्वस्थ विकल्पों से सफलतापूर्वक बदला जा सकता है।

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