भोजन कैसे उगाया जाए, इस पर फिर से सोचने की जरूरत
बात चाहे यूरोप के अमीर किसानों की हो या भारत में उनके गरीब भाइयों की, हम अक्सर ऐसी तस्वीरें देखते हैं जिनमें वे अपना गुस्सा जाहिर करने के लिए ट्रैक्टरों पर सवार होकर राजमार्गों को अवरुद्ध कर रहे होते हैं और यह इस बात का साफ संकेत है कि वैश्विक कृषि बुरे दौर से गुजर रही है। जलवायु जोखिम और घाटे के युग में कृषि उत्पादन की बढ़ती लागत की गंभीर समस्या से सभी महाद्वीपों के किसान एक कड़ी में जुड़े हुए हैं।
इसे विडंबना ही कहेंगे कि यूरोप में इस समस्या की शुरुआत जलवायु विनियमन (क्लाइमेट रेगुलेशन) से हुई, जिसके तहत खेतों में कीटनाशकों का उपयोग आधा करना, उर्वरक उपयोग में 20 प्रतिशत की कटौती, दोगुना जैविक उत्पादन और जैव विविधता संरक्षण की दृष्टि से गैर-कृषि उपयोग के लिए अधिक भूमि छोड़ना शामिल है।
इसके अलावा, नीदरलैंड ने नाइट्रोजन प्रदूषण में कटौती करने के लिए अपने पशुओं की संख्या कम करने का प्रस्ताव दिया था और जर्मनी ने डीजल, जोकि एक जीवाश्म ईंधन है, पर अपनी सब्सिडी कम करने का प्रस्ताव दिया था।
जलवायु परिवर्तन के अस्तित्व संबंधी खतरे का सामना कर रही दुनिया में यह सब स्पष्ट रूप से आवश्यक है। दुनिया के अन्य हिस्सों की तरह, यूरोपीय संघ में कृषि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में महत्वपूर्ण योगदान देती है, जो इसके वार्षिक उत्सर्जन का दसवां हिस्सा है।
यदि अमीर किसानों के लिए राहत की यह लागत वहन करना मुश्किल है तो इससे हमारी गरीब अर्थव्यवस्था के उन किसानों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, जिनका अस्तित्व बिलकुल हाशिए पर है?
जैसा कि हम जानते हैं कि यूरोपीय कृषि प्रणाली (जो आधुनिक कृषि का प्रतीक है) भारी सब्सिडी के कारण बची हुई है। 1962 से यूरोपीय संघ की कॉमन एग्रीकल्चरल पालिसी (कैप) ने कृषि के लिए वित्तीय सहायता प्रदान की है।
काफी आलोचना के बाद सब्सिडी में कमी की तो गई, लेकिन केवल मामूली रूप से। आज यह यूरोपीय संघ के बजट का लगभग 40 प्रतिशत है और इसमें किसानों को सीधे भुगतान शामिल है। यूरोपीय आयोग के आंकड़ों के अनुसार, प्रत्येक किसान को 2021 में प्रत्यक्ष आय सहायता के रूप में 6,700 यूरो सालाना (लगभग 50,000 प्रतिमाह) प्राप्त हुआ। इसके अलावा, कृषि को सुविधाजनक बनाने के लिए और क्षेत्रों में भी निवेश किया गया है।
पिछले कुछ वर्षों में खेती की “प्रवृति” में बदलाव हुआ है, खेत बड़े और अधिक समेकित हो गए हैं। बढ़ती इनपुट लागत, उच्च मानकों और नौकरशाही के व्यवधानों के कारण छोटे कृषकों के अस्तित्व पर संकट आ गया है। लागत बढ़ने के कारण बड़े खेतों को ऋण भी अधिक लेना पड़ता है।
यूरोपीय संघ की 10 प्रतिशत भूमि पर जैविक खेती की जा रही है, लेकिन यह खेती की लागत बढ़ाने के लिए डिजाइन की गई है। इसके फलस्वरूप खेती अधिक इंटेंसिव अथवा सघन हो गई है, इसके लिए हर फसल या हर पशु की उत्पादकता बढ़ाई गई है। इसका मतलब है कि रसायनों एवं अन्य इनपुटों का अधिक उपयोग, जो पर्यावरणीय परिस्थितियों के साथ मिलकर खेती की लागत को और बढ़ा देता है। लागत के इस सर्पिल चक्र को दो वास्तविकताओं का सामना करना पड़ता है, एक, भोजन की उपभोक्ता कीमतों को नियंत्रण में रखने की आवश्यकता और दो, चरम जलवायु के कारण बढ़ती फसल क्षति।
गहन कृषि की इस प्रणाली को दुनिया में सराहा जाता है। यह कहा जाता है कि पर्यावरण मानकों को प्रणाली में डिजाइन किया जा सकता है और उसके बावजूद किसान उत्पादन बढ़ाने के साथ-साथ मुनाफा भी कमा सकते हैं। जाहिर है इस मामले में ऐसा नहीं है। पश्चिमी दुनिया के देशों में भी भोजन की कीमतें स्थिर नहीं हैं। यही नहीं, पर्यावरण भी सुरक्षित नहीं है।
भारत में, दिल्ली की सीमा पर विरोध प्रदर्शन कर रहे किसान अपनी उपज के लिए उच्च न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) चाहते हैं। भारतीय किसानों को अपने समृद्ध यूरोपीय समकक्षों के समान ही चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, लेकिन हमारे किसानों को उच्च स्तर की कृषि सब्सिडी नहीं मिलती।
ऐसे में उन्हें एक दोतरफा हमले का सामना करना पड़ता है, सरकार को वितरण के लिए भोजन खरीदना होता है और इसलिए खाद्यान्नों की कीमत को नियंत्रण में रखने की आवश्यकता होती है, उपभोक्ता (हम सभी) खाद्य मुद्रास्फीति की मार झेलना नहीं चाहते।
इसलिए, भले ही किसान मौसम और कीटों के हमलों के कारण बढ़ी लागत और जोखिम के रूप में अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं लेकिन जैसे ही खाद्यान्नों की कीमतें बढ़ती हैं और उन्हें लाभ हो सकता है, सरकार को सस्ते खाद्यान्न आयात कराने पड़ते हैं। ऐसे में किसान मिट्टी, पानी या जैव विविधता के सुधार में निवेश नहीं कर सकते। इस प्रणाली में, आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता पर्यावरण सुरक्षा उपायों की लागत में कटौती करना है।
अब किसानों से कहा जा रहा है कि मुनाफे में बने रहने के लिए उन्हें उत्पादकता बढ़ाने की जरूरत है। लेकिन विभिन्न इनपुटों की बढ़ती कीमतों के कारण खेती की लागत बढ़ती जाती है। इस खाद्य अर्थशास्त्र का कोई मतलब नहीं रह जाता है क्योंकि जिस देश के लोगों को किफायती भोजन की असल आवश्यकता है वे महंगे दाम चुका पाने में अक्षम होंगे। यह स्पष्ट है कि भारत सरकार यूरोप के पैमाने पर किसानों को सब्सिडी नहीं दे सकती है। यह भी स्पष्ट है कि गहन कृषि की इस प्रणाली में इतनी भारी वित्तीय सहायता भी पर्याप्त नहीं होगी।
इसलिए, हमें इस बात पर चर्चा करने की जरूरत है कि खेती की लागत कम रखकर भी किसानों का मुनाफा कैसे सुनिश्चित किया जाए। यहीं पर पुनर्योजी (रिजेनेरेटिव) या प्राकृतिक खेती भी अपनी भूमिका निभा सकती है, लेकिन इसके लिए बड़े पैमाने पर समर्थन और विचारशील नीति अभ्यास एवं विज्ञान की आवश्यकता होगी।
हमें स्थानीय स्तर पर काम करने के लिए खाद्य खरीद नीतियों की भी आवश्यकता है, ताकि किसानों को अपनी उपज के लिए अच्छा बाजार मिल सके। मध्याह्न भोजन के लिए ओडिशा सरकार की बाजरा खरीद ऐसी ही एक प्रथा है। सच तो यह है कि दुनिया के पास लोगों को खिलाने के लिए पर्याप्त भोजन है। समस्या यह है कि इस भोजन का अधिकांश हिस्सा पशुओं को खिलाने में जा रहा है या यूं ही बर्बाद हो रहा है। इस पर जल्द से जल्द ध्यान देने की जरूरत है।