1970 के दशक में सर्दियों की छुट्टियां अपने दादा-दादी के गांव में बिताने का अलग ही मजा था। मेरे दादा-दादी का गांव पूर्वी उत्तर प्रदेश में था। वहां बगीचे से हम आम और नीम के पेड़ों से गोंद इकट्ठा करते थे और चिपचिपे हाथ लेकर घर लौटते थे। हमारे जैसे जिज्ञासु बच्चों के लिए घर की रसोई, दवाइयों के डिब्बे और दराज घर में गोंद के इस्तेमाल का संकेत देती थीं। वहां पीतल की कुछ डिब्बियां थीं जिनमें गोंद रखा जाता था। औरतें अपने माथे पर टिकली (सोने, चांदी या मोती की बिंदी) चिपकाने के लिए आम के गोंद का इस्तेमाल करती थीं, जबकि नीम के गोंद को मधुमोम में मिलाकर फटी एड़ियों में लगाया जाता था। लोग बेल के गोंद को सूप पर लगाते थे ताकि इसे टूटने और घुन से बचाया जा सके। पलाश के पेड़ से मिलने वाले कमरकस गोंद से पिन्नी बनाई जाती थी। गांव के बाजार में कम-से-कम एक दुकान ऐसी जरूर होती थी जहां गोंद की डिबिया मिलती थी।
लेकिन गोंद का सबसे अहम इस्तेमाल खास खाना बनाने में किया जाता था। अपनी जिंदगी के लंबे अरसे तक मैं गोंद के लड्डू को पेड़ों से निकलने वाले चिपचिपे गोंद से जोड़कर नहीं देख सकी। ये लड्डू सर्दियों में नियमित रूप से खाए जाते थे और हमें कभी यह अहसास ही नहीं हुआ कि एक दिन इसे खास खाना कहा जाएगा। पूर्वी उत्तर प्रदेश में सोंठ (सूखी अदरक का पाउडर) मिलाकर एक विशेष प्रकार का लड्डू बनाया जाता है। ये हाल ही में मां बनीं महिलाओं को खिलाए जाते हैं। इससे उन्हें ताकत मिलती है। बबूल के पेड़ की विभिन्न प्रजातियों से प्राप्त बबूल गोंद (जिसे अरबी गोंद भी कहा जाता है) का इस्तेमाल करके सोठोरा तैयार किया जाता है।
बड़े-बुजुर्ग कहते हैं कि सोठोरा गर्भाशय को पहले की स्थिति में लौटने तथा मां में दूध की मात्रा बढ़ाने में मदद करता है। गांव में गोंद का हलवा भी बनाया जाता था। कहा जाता था कि यह पौरुष को बढ़ाता है। इसमें बबूल का गोंद, मसाले, मेवे और घी मिलाया जाता है। बबूल का गोंद हड्डियों, जोड़ों और संयोजी ऊतकों के लिए भी लाभकारी है और यह रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ाता है। जुलाई 2018 में इंटरनेशनल जर्नल ऑफ रुमेटोलॉजी में प्रकाशित लेख में बताया गया है कि बबूल का गोंद रुमेटॉइड आर्थराइटिस के मरीजों में सूजन पैदा करने वाले कारकों के प्रभाव को कम करती है। वर्ष 2012 में न्यूट्रिशन में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि बबूल का गोंद सशक्त प्रोबायोटिक एजेंट है और यह पाचनतंत्र को मजबूत बनाता है। यह प्लाज्मा कॉलेस्ट्रॉल को कम करता है। साथ ही इसमें एंटीऑक्सिडेंट प्रभाव होते हैं तथा यह यकृत और हृदय संबंधी विषाक्तता दूर करते हैं।
कुछ वर्ष पहले मैंने नई दिल्ली के करोल बाग इलाके की एक परचून की दुकान में एक और तरह का खाद्य गोंद देखा। जब मैं पैसे देने लगी तो दुकानदार ने मुझे टोका। उसने कहा कि मैंने जो गोंद लिया है, वह सर्दियों में इस्तेमाल होता है। उन्होंने मुझे गर्मियों के लिए दूसरी तरह के गोंद का इस्तेमाल करने का सुझाव दिया। यह गोंद कतीरा अथवा गम ट्रेगाकंथ था जिसे एस्ट्रेगेलस गमीफर की झाड़ी से निकाला जाता है। पुरानी दिल्ली के बाजार में मौजूद दुकानदार बताते हैं कि पंजाब, राजस्थान और पाकिस्तान के लोग इस गोंद से हकीमी शर्बत बनाते हैं जो शरीर को ठंडक पहुंचाता है। पानी में भिगोकर रखने से गोंद के क्रिस्टल जैली का रूप ले लेता है। इस जैली को बारीक कटे मेवे, खजूर और गुलकंद (धूप में पकाई गई गुलाब की जैली) में मिलाकर ठंडी मिठाई बनाई जाती है जो देखने में बेशक अजीब लगे लेकिन असल में यह पूरा पैसा वसूल चीज है। इसमें चीनी की भी जरूरत नहीं होती लेकिन अपने स्वाद के हिसाब से चीनी मिलाई जा सकती है।
आजकल गोंद कतीरा का इस्तेमाल खाने की चीजों को गाढ़ा करने में किया जाता है। लेकिन हममें से ज्यादातर लोग नहीं जानते होंगे कि यह शरीर की चर्बी घटाने और पाचनक्रिया को मजबूत करने के भी काम आता है। यह दस्त और कब्ज के इलाज में मदद करता है और इरिटेबल बोवेल सिंड्रोम के इलाज में भी कारगर साबित हो सकता है। यह अच्छी बात है कि हमारा परंपरागत भोजन और खान-पान की आदतें अभी तक बनी हुई हैं। ये हमारा प्राकृतिक रूप से स्वस्थ बने रहना सुनिश्चित करती हैं।
व्यंजन
गोंद कतीरा शर्बतसामग्री
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