महुआ: सर्वहारा का वृक्ष

तीज त्योहारों से लेकर साहित्य और उत्सवों तक में अपनी महत्ता साबित कर चुका महुआ स्वास्थ्य की दृष्टि से भी पोषक तत्वों से भरपूर है
महुआ पोड़ा पीठा और रासपुटका। फोटो: मीता अहलावत
महुआ पोड़ा पीठा और रासपुटका। फोटो: मीता अहलावत
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“मधुर मधुर रस टपके, महुआ चुए आधी रात
बनवा भइल मतवारा, महुवा बिनन सखी जात।”

अर्थात आधी रात को महुआ के फूल पेड़ों से टपक रहे हैं और पूरा वन महुआ के पीलेपन से जुड़कर बौरा देने वाली सुगंध से मदमस्त हो रहा है। हे सखी, अब मैं महुआ बीनने जा रही हूं।

भोजपुरी लोकगीत की ये पंक्तियां ग्रामीण परिवेश में महुआ के महत्त्व को रेखांकित करती हैं। महुआ की चर्चा हिंदी ही नहीं बल्कि भारत के अन्य प्रांतों के लोक साहित्य में भी मिलती है। महुआ आदिवासी और ग्रामीण खानपान में आज भी रचा बसा है। यह एक भारतीय उष्णकटिबंधीय वृक्ष है जो उत्तर भारत के मैदानी इलाकों और जंगलों में बड़े पैमाने पर पाया जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम है मधुका इंडिका । यह एक तेजी से बढ़ने वाला वृक्ष है जो लगभग 20 मीटर की ऊंचाई तक बढ़ सकता है।

बसंत के आगमन के साथ ही महुआ का पेड़ भी पलाश की तरह पत्रहीन हो जाता है। शाखाओं की फुनगियों पर कूंचे बनती हैं। कुछ दिन बाद उन कूंचों में फूल निकल आते हैं। मधुमक्खी के छत्ते से झांकते ये फूल खिलने के साथ आधी-रात से सुबह देर तक झरते रहते हैं। हाथ में उठाते ही ये अपनी गंध आपके भीतर तक भर देते हैं। हाथ महक उठता है और आनंद की अनुभूति चेहरे पर स्पष्ट दिखती है।

जब सारे फूल धरती पर गिर जाते हैं, तब लाल-लाल कोपलों से महुआ के पेड़ भर जाते हैं। वे कूंचियां जिनसे फूल झरे थे, महीने डेढ़ महीने बाद गुच्छों में फल बनकर निकल आते हैं। पकने पर किसान इनको तोड़-पीटकर इनके बीज को निकाल-फोड़कर, सुखाकर इसका तेल बनाते हैं। रबेदार और स्निग्ध, इस तेल को गांव डोरी के तेल के नाम से जानता है। महुआ के बीजों से निकला तेल एड़ी की विबाई, चमड़ेÞ की पनही को कोमल करने और देह में लगाने से लेकर खाने तक के काम आता है।

महुआ गर्मी के दिनों का नाश्ता तो है ही कभी कभार पूरा भोजन भी होता है। बरसात के तिथि, त्यौहारों में इसकी बनी पूड़ी एक हफ्ते तक कोमल और सुस्वादु बनी रहती है। सूखे महुए के फूल को खपड़ी (गगरी) में भूनकर, हल्का गीला होने पर बाहर निकाल लेते हैं। फिर इसमें भुने तिल मिलाकर, दोनों को कूट लेते हैं। इस मिश्रण से बने लड्डू (लाटा) को बरसात के दिनों में नाश्ते के रूप में लेने से यह दिनभर की सारी थकान दूर कर देता है। संसार के किसी भी वृक्ष के फूल के इतने व्यंजन शायद ही बन सकते हैं। व्रत-त्यौहार में हलछठ के दिन माताएं महुआ की डोभरी खाती हैं। पूजा-पद्धति में भी महुआ, आम और छिलका के पत्ते ही काम आते हैं।

स्वास्थ्यकर होने के कारण बुजुर्ग महुआ के फल को विशेष रूप से पसंद करते रहे हैं। उनका विश्वास है कि महुआ के फल और इसके बीजों से निकलने वाले तेल से गठिया, पुरानी अल्सर, बढ़े हुए टांसिल और मसूढ़ों से रक्तस्राव का इलाज किया जा सकता है। ऐसी मान्यता है कि महुआ के पेड़ की छाल मधुमेह का इलाज करने में भी सक्षम है। कहा जाता है कि इसके फूल कब्ज, बवासीर और नेत्र संक्रमण में राहत देने के साथ ही ब्रोंकाइटिस के लक्षणों में भी मददगार साबित होते हैं। इंडियन जर्नल ऑफ नेचुरल प्रोडक्ट्स एंड रिसोर्सेज में वर्ष 2010 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, महुआ के पेड़ के कुछ हिस्सों में ऐसे गुण पाए जाते हैं जो महुआ के पेड़ को एक शीतलक, एक्स्पेक्टोरेंट, वातहर और माताओं में दुग्धवर्धक के रूप में उपयोगी बनाते हैं।

कुछ वर्ष पहले तक महुआ के बीज का तेल अपने घी की तरह दिखने की वजह से उत्तर भारत के कई गांवों में खाना पकाने के लिए पसंद किया जाता था। मध्य भारत के आदिवासी अभी भी महुआ के बीज के तेल का उपयोग घी के एक विकल्प के तौर पर करते हैं। शायद यही वजह है कि इस पेड़ का उपनाम “बटर ट्री” पड़ गया। हाल ही में प्रकाशित एक शोध पत्र में कहा गया है कि महुआ के बीज के तेल में मोविन नाम का एक हल्का विषाक्त यौगिक होता है लेकिन अगर तेल ठीक से निकाला जाए तो इससे आसानी से बचा जा सकता है।

बढ़ते शहरीकरण के साथ-साथ लोगों के खानपान की आदतें भी बदल रही हैं। ऐसे में बहुत कम ही लोग हैं जिन्हें महुआ के फल और इसके तेल के स्वास्थ्यकर होने के बारे में जानकारी होगी। महुआ का फल, जो गर्मियों के दौरान बहुतायत से उत्तर और मध्य भारत में उपलब्ध होता था, अब बहुत मुश्किल से मिल पाता है। महुआ का फूल अपने पाक आकर्षण के लिए जाना जाता है और इसका उपयोग शराब बनाने में भी होता है, फिर भी गांवों के बाजारों में महुआ के फल बेचते किसी आदमी को ढूंढ पाना आजकल मुश्किल हो गया है।

हालांकि, इसे लोगों के भोजन में फिर से शामिल करने के लिए प्रयास शुरू हो गए हैं। नई दिल्ली के ग्रामीण विकास एवं प्रौद्योगिकी केंद्र में कार्यरत एस.एन. नायक ने महुआ से बिस्किट, स्वीटनर, चॉकलेट, जूस, पाचक चूर्ण आदि कई पौष्टिक खाद्य पदार्थ तैयार किए हैं। लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब महुआ फिर से लोगों को अपनी मादकता से मदमस्त करने लगेगा।

ऐतिहासिक महत्व
ब्रिटिश काल में भारत की अर्थव्यवस्था में भी महुआ के पेड़ों की अहम भूमिका थी। तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के कुल राजस्व का एक चौथाई दवाओं और नशीले पदार्थों से आता था, जिसमें महुआ के फूल भी शामिल थे। चूंकि महुआ के फूलों से बनने वाली अवैध शराब के कारण राजस्व को नुकसान होने लगा, इसलिए अंग्रेजी हुकूमत ने इसके संग्रह पर प्रतिबंध लगाने के भरपूर प्रयास किए। सरकार शराब के अवैध उत्पादन पर अंकुश लगाने के लिए तत्पर थी, इसलिए महुआ के पेड़ उखाड़ने का प्रस्ताव रखा गया। सन 1882 में बंबई विधान परिषद में म्होवरा बिल लाया गया जिसका भारतीय राष्ट्रवादियों ने पुरजोर विरोध किया, क्योंकि महुआ के फूल लोगों के लिए भोजन का एक स्रोत भी थे। हालांकि, अंततः वर्ष 1892 में बिल को पारित करा लिया गया था।

व्यंजन:

ऐसे बनाएं महुआ पोड़ा पीठा

सामग्री: 

महुआ के फूल : 250 ग्राम
गेहूं का आटा : 250 ग्राम
नमक : स्वादानुसार
खाद्य तेल : तलने के लिए
विधि: महुआ के फूलों को पानी में भिगो कर 4 घंटे के लिए रख दें। इसके बाद इसे पानी से निकालकर अलग रख लें। अब आटे में नमक और पानी मिलकर इसका गाढ़ा घोल बना लें। अब एक चपटे पैन में तेल गरम करें। तेल गरम होने पर इसमें आधा घोल डालें और उसके ऊपर महुआ के भिगोकर रखे फूल रखें। इसके बाद बचे हुए घोल से महुआ के फूलों को ढक दें। अब इसे दोनों तरफ से पका लें। ठंडा होने पर परोसें।

ऐसे बनाएं रासपुटका

सामग्री:
महुआ के फूल : 500 ग्राम
तिल : 50 ग्राम
मूंगफली : 100 ग्राम
काला चना : 50 ग्राम
नमक : स्वादानुसार
विधि: महुआ के फूलों को पानी में भिगो कर 4 घंटे के लिए रख दें। इसके बाद इसे पानी से निकालकर उबाल लें। तिल, मूंगफली और काले चने को भून लें। अब सभी सामग्री को एक साथ मिलाकर पीस लें। पिसे हुए मिश्रण को लड्डू के आकार का बना लें। लीजिए तैयार है रासपुटका।

कहां मिलेगा 

महुआ की विभिन्न प्रजातियां देश के अलग अलग हिस्सों में पाई जाती हैं। मधुका लैटिफोलिया मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, बिहार और झारखंड  में तथा मधुका लौंगिफोलिया दक्षिण भारत में पाया जाता है। मधुका बूटिरेसिया कुमाऊं और गढ़वाल, मधुका नेरिफोलिया मुंबई, कनारा, चेन्नई और मैसूर में तथा मधुका बोर्डीलोनाई मैसूर और वेस्टर्न घाट में उगाई जाती हैं।

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