आखिर क्या कारण है कि जलवायु परिवर्तन के दौर में डगमगाती फसल उत्पादकता और खाने की कमी के समाधान के रूप में देखी जाने वाली खेसारी की दाल हमारी रोजमर्रा की भोजन की थाली में जगह नहीं बना रही है? इसका सीधा-सा उत्तर है दुष्प्रचार।
खेसारी दाल (लैथाइरस सैटाइवस) आसानी से उगती है। यह सूखे, खारेपन, जल जमाव के प्रति सहनशील है। साथ ही कीटों के हमलों से भी बेअसर रहती है। यह पौष्टिक और प्रोटीन से भरपूर है। सोयाबीन के बाद इसी दाल में सबसे अधिक प्रोटीन पाया जाता है। खेसारी दाल में औषधीय गुण भी हैं। इसमें हृदय को सेहतमंद रखने वाले यौगिक होते हैं।
इतना कुछ होने के बाद भी लोग कलायखंज (लैथिरिजम) के डर से इसका सेवन नहीं करते। यह एक असाध्य बीमारी है जिसमें निचले अंग लकवाग्रस्त हो जाते हैं। पर यह भी सच है कि ये तभी संभव है जब कुपोषण की अवधि के दौरान तीन महीने से अधिक समय तक खेसारी दाल का सेवन बड़ी मात्रा में (कैलोरी सेवन का 40 प्रतिशत से अधिक) किया जाए। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में इस दाल का नाम तब बीमारी से जुड़ा था, जब 1833 में सागर क्षेत्र (मध्य प्रदेश) में इसके प्रकोप की सूचना मिली थी। इसके बाद उन वर्षों में बार-बार इसका प्रकोप हुआ, जब उत्तरी और मध्य भागों में अकाल पड़ा और लोग भोजन के लिए इस दाल पर निर्भर थे।
भारत में 1961 में ही खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम के तहत खेसारी दाल की बिक्री और भंडारण पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। मध्य प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल को छोड़कर अन्य सभी राज्यों ने प्रतिबंध पर अमल किया। 1964 में बैंगलोर स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के शोधकर्ताओं ने बीज में एक रसायन (ओडीएपी) की पहचान की जो बीमारी के लिए उत्तरदायी है। पर परंपरागत रूप से इसकी फलियों को कुछ घंटों तक पानी में भिगोने के बाद खाया जाता था जिससे इसकी विषाक्तता 80 से 90 प्रतिशत तक कम हो जाती है।
भारत में खेसारी की खपत का एक लंबा इतिहास रहा है और प्रतिबंध के बावजूद किसानों ने निजी उपयोग के लिए इसकी खेती जारी रखी। परंपरागत रूप से इसका उपयोग सत्तू के रूप में किया जाता था। बीजों को उबालकर घरेलू दाल बनाने के अलावा रोटी और पूड़ी बनाने के लिए आटे में मिलाया जाता था। सरकार खेती पर प्रतिबंध नहीं लगा सकती क्योंकि किसानों की दलील रहती है कि यह जानवरों को खिलाने के लिए उगाई जा रही है। इसकी फलियां परती चावल के खेतों में आसानी से उगती हैं और फसल चक्रण के लिए एक आसान विकल्प प्रदान करती है। और इसमें निवेश की आवश्यकता भी नहीं होती।
चूंकि यह सबसे सस्ती दालों में से एक है, इसलिए इसका सेवन गरीब लोग अधिक करते हैं। लंबे समय से मांग की जा रही थी कि दाल पर लगा प्रतिबंध हटाया जाए। कृषि पर लोकसभा की स्थायी समिति ने 1994 में इस मुद्दे पर गौर किया लेकिन सदस्यों ने सबूतों को अपर्याप्त पाया और सरकार से कम विष वाली किस्मों के विकास में तेजी लाने को कहा।
1995 में एमयूएलएलएआरपी (मूंग, उरद, मसूर, लैथिरस, राजमा और मटर) पर एक अखिल भारतीय समन्वित परियोजना शुरू की गई थी। तब से 2015 तक तीन उन्नत किस्में- रतन, महाटेओरा और प्रतीक विकसित की गईं जिनमें कम ओडीएपी है। पारंपरिक किस्मों में एक प्रतिशत से अधिक ओडीएपी होता है, जबकि नई विकसित किस्मों में लगभग 0.072-0.078 प्रतिशत ओडीएपी ही है।
अब भी आम राय नहीं
यह भी एक तथ्य है कि पिछले 30 वर्षों में लैथिरिजम का कोई भी मामला सामने नहीं आया है जिसे फलियां की खपत से जोड़ा जा सके। 2008 में प्रतिकूल प्रभाव के साक्ष्य की कमी के कारण महाराष्ट्र ने प्रतिबंध हटा दिया। यह दाल ज्यादातर इसलिए विवादों में रहती है क्योंकि वैज्ञानिक आम सहमति नहीं बना पा रहे।
जनवरी 2015 में भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर), भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर), वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर), भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) और अन्य हितधारकों की एक विशेषज्ञ समिति ने सिफारिश की कि बिक्री भंडारण पर प्रतिबंध हटा दिया जाना चाहिए।
नवंबर 2015 में एफएसएसएआई ने सिफारिश की कि कम ओडीएपी वाली किस्मों पर प्रतिबंध हटाया जा सकता है। 2016 में भारत सरकार ने घोषणा की कि वह खेसारी दाल पर पांच दशक पुराना प्रतिबंध हटा देगी। हालांकि, प्रतिबंध खत्म होने की कोई औपचारिक अधिसूचना नहीं है।
2021 में एकमात्र बदलाव यह हुआ है कि एफएसएसएआई अधिसूचना अन्य अनाजों में खेसारी दाल की आकस्मिक मौजूदगी की अनुमति देती है। इसके तहत 2 फीसदी खेसारी दाल वाला कोई भी अनाज मिलावटी नहीं माना जाएगा।
लेकिन अब निर्णय लेने का समय आ गया है। चूंकि खेसारी जलवायु के उतार-चढ़ाव से अप्रभावित है, इसलिए यह भविष्य में उपयोगी साबित हो सकती है। जनवरी 2023 में राष्ट्रीय कृषि-खाद्य जैव प्रौद्योगिकी संस्थान, मोहाली के शोधकर्ताओं ने प्रजनन कार्यक्रमों में उपयोग की जाने वाली पूसा-24 किस्म का जीनोम प्रकाशित किया। शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि इससे महत्वपूर्ण फलीदार फसल में भविष्य के आनुवांशिक और जीनोमिक अध्ययन में मदद मिलेगी।
फरवरी 2023 में यूके के शोधकर्ताओं ने सुधार के लिए लक्षणों की पहचान और चयन करने के लिए एक ड्राफ्ट जीनोम असेंबली प्रकाशित की जो उच्च प्रोटीन, कम इनपुट, सहनशील, जलवायु-स्मार्ट फसल विकसित करने में मदद करे और जो छोटे किसानों के लिए उपयुक्त हो। यह स्पष्ट नहीं है कि बाजार में बेची जा रही दाल कम ओडीएपी वाली है या नहीं क्योंकि अमूमन किसान अपनी स्थानीय किस्मों को उगाना जारी रखते हैं।
चूंकि इसका उपयोग विवादित है इसलिए, अधिकांश फूड ब्लॉगर्स ने भी इसे नजरअंदाज कर दिया है, इसलिए बहुत कम रेसिपी ऑनलाइन उपलब्ध हैं। मूलरूप से झारखंड की रहने वाली मेरी एक जानकार अगर अपने गांव से मेरे लिए यह दाल नहीं लाती तो शायद मैं भी इसे खाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती।
उनके गांव में फलियां नियमित रूप से खाई जाती हैं। उसने सुझाव दिया कि पहले इसकी पकौड़ी और फिर आलू के साथ इसकी सब्जी बनाएं। दाल को आलू के साथ मिलाने से यह भी सुनिश्चित होता है कि भोजन में दाल का स्तर संतुलित रहे। यह पारंपरिक ज्ञान का एक और उदाहरण है, जिसका नतीजा बेहद स्वादिष्ट निकला।
व्यंजन : दाल की पकौड़ी व सब्जी |
सामग्री
विधि : दाल को 4 घंटे तक भिगो दीजिए और पानी निकाल दें। इसे पीसकर पेस्ट बना लें। इसमें नमक और कटी हुई हरी मिर्च और प्याज डालें और अच्छी तरह मिलाएं। अब कढ़ाई में तेल गर्म करें और पकौड़ियां बनाएं और उन्हें कुरकुरा होने तक तलें और अलग रख दें। अब पैन में दो बड़े चम्मच तेल लें और उसमें जीरा डालें। हल्दी पाउडर, मिर्च पाउडर, धनिया पाउडर और नमक डालें और अच्छी तरह मिलाएं। आप तरी में लहसुन, प्याज और टमाटर भी डाल सकते हैं। इसके बाद कटे हुए आलू डालकर मिलाएं और दो कप पानी डालें। ढंककर आलू को पकने दें। इसमें पकौड़ी डाल दें और सब्जी को रोटी के साथ परोसें। |
पुस्तक
१०० मिलियन ईयर्स ऑफ फूड लेखक: स्टीफन ली प्रकाशक: पीकाडोर मूल्य: Rs 699 पृष्ठ: 320 यह किताब आपको मानव आहार के विकास की रोमांचक यात्रा पर ले जाती है, जिससे हम जान पाते हैं कि कैसे भोजन के माध्यम से हम अपने स्वास्थ्य को बेहतर बना सकते हैं। |