साल 2022 में आई झारखंड आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक राज्य के ग्रामीण इलाकों में 50.93 प्रतिशत लोग गरीब हैं, जबकि पूरे राज्य में 46.16 प्रतिशत लोग गरीब हैं। जाहिर है कि राज्य की लगभग आधी आबादी पूरी तरह सरकार की ओर से मिलनेवाले राशन पर ही निर्भर हैं।
पश्चिमी सिंहभूम जिले के सारंडा जंगल में रहनेवाले फ्रांसिस मुंडा ग्रीन कार्डधारी हैं. उन्हें हर महीने 5 किलो चावल मिलता है, लेकिन बीते जुलाई महीने से उन्हें यह राशन नहीं मिला है।
यही हाल लगभग पूरे झारखंड का है। बीते अगस्त महीने में पूरे राज्य में मात्र 28 प्रतिशत राशन का वितरण हो पाया, क्योंकि केंद्र की ओर से मिलनेवाले हिस्से में कटौती कर दी है।
पूरे मामले को ऐसे समझिये। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत पूरे झारखंड में 2.79 करोड़ लोगों को राशन दिया जाता है। मिशन के तहत 1,46,000 मीट्रिक टन अनाज का वितरण हर महीने किया जाता है, लेकिन केंद्र सरकार ने अगस्त और सितंबर महीने के लिए कुल 74 हजार मीट्रिक टन अनाज की कटौती की है।
केंद्र का कहना है कि कोविड के दौरान शुरु हुई प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत जितना अनाज झारखंड को दिया गया, उसमें से 74 हजार मीट्रिक टन अनाज बांटा नहीं गया। राज्य सरकार अगस्त और सितंबर के महीने में उसी अनाज को पहले एडजस्ट करे। बता दें कि दिसंबर 2022 के बाद से पीएमजीकेवाई योजना के तहत मिल रहे प्रति कार्ड होल्डर 5 किलो मुफ्त अनाज को बंद कर दिया गया है।
जबकि झारखंड सरकार का कहना है कि यह बचत 74 हजार मीट्रिक टन न होकर, 57 हजार मीट्रिक टन है। यानी कटौती केवल 57 हजार मीट्रिक टन अनाज की होनी चाहिए। वित्त मंत्री रामेश्वर उरांव पूरे मामले पर अपना पक्ष रखते हैं। वो कहते हैं कि भारत सरकार फ्री का राशन दे रही थी। हम बांट रहे थे. बांटने में कमीशन देना होता है। डीलरों के ट्रांसपोर्टेशन का खर्चा होता है। केंद्र ने इसका पैसा अभी तक नहीं दिया है।
बीते चार महीने से पूरा राशन बंटा नहीं था। 100 प्रतिशत लोगों को अनाज किसी महीने में नहीं दिया जाता। जो हर महीने बच जाता है, वो हम अगले महीने बांट देते हैं। भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) राशन की आपूर्ति करने से इंकार कर रहा है। इस परिस्थिति में अनाज की बेहद कमी वाले झारखंड में लोगों के सामने भूखमरी की स्थिति उत्पन्न हो गई है।
मनरेगा संघर्ष वाच संगठन से जुड़े जेम्स हेरेंज कहते हैं कि, एक पीडीएस डीलर को जितना राशन बांटना होता है, वह पूरा नहीं बंटता है। लेकिन महीने के आखिरी में बचा हुआ राशन वह बाजार में बेच देता है, जबकि सिस्टम में यह दिख रहा होता है कि 100 में से 90 लोगों को ही राशन मिला है।
ये जो दस लोगों का राशन बच जाता है, केंद्र सरकार का दलील है कि आपने यह राशन बांटा ही नहीं है। पहले उसको खपत कीजिए. जबकि सच्चाई ये है कि ये राशन राज्य सरकार के पास है ही नहीं. दोनों की खींचतान में भुगतना कार्डधारियों को ही है।
बीते अगस्त माह में जमशेदपुर में पीडीएस दुकानदारों ने अपने दुकान पर यह लिखकर पोस्टर टांग दिया कि अगस्त का राशन नहीं मिला है, इसलिए वह इसका वितरण नहीं कर पाएंगे। इन पीडीएस दुकानों के मालिकों के अनुसार, उन्हें गोदामों से सूचित किया गया कि अगस्त के लिए खाद्यान्न का कोटा समाप्त हो गया है, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें इस महीने का खाद्यान्न नहीं मिला है।
पूरे राज्य में लगभग 60 प्रतिशत पीडीएस दुकानदारों को राशन नहीं मिला. सबसे खराब हालात तो गोड्डा और लोहरदगा जिले में है. यहां अगस्त माह में मात्र एक प्रतिशत लोगों को राशन बांटा जा सका।
अनाज न मिलने से जिन मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है, उसको फ्रांसिस मुंडा के हालात से समझते हैं. फ्रांसिस मुंडा के मुताबिक जून के बाद से उन्हें राशन नहीं मिला है। ऐसी स्थिति में कभी डीलर के यहां से खरीद कर खा रहे हैं तो कभी ग्रीन कार्डधारी ऐसे लोग जो इस क्वालिटी के चावल नहीं खाते हैं, उन्हीं से खरीद कर खाते हैं। यह हमें 20 रुपए प्रति किलो के हिसाब से मिल जाता है।
फ्रांसिस एक और हालात की तरफ इशारा करते हैं। वो कहते हैं, सारंडा जंगल के अंदर के रांगरिंग, बोरदाबाटी सहित कई गांवों में किसी तरह लोगों ने धान लगाया था, लेकिन बीते शनिवार यानी 9 सितंबर को गांव में हाथियों का झुंड आ गया। जो भी लगा था, सबको तहस-नहस करके चला गया।
आदिम जनजाति की मुश्किलें और भी बड़ी
झारखंड भोजन का अधिकार मंच के राज्य संयोजक अशर्फी नंद प्रसाद कहते हैं, अगस्त महीने में ही पाकुड़ जिले के कई आदिम जनजाति इलाके में मैं गया था. जहां देखा कि बड़ी संख्या में आदिम जनजाति के लोग पांच दिन पहले ही पर्ची कटा चुके थे। हर दिन वह काम छोड़ राशन के लिए पैदल पहाड़ से नीचे उतर कर आ रहे थे. लेकिन उन्हें राशन नहीं मिल रहा था. बता दें कि आदिम जनजाति के लिए डाकिया योजना के तहत प्रति परिवार 35 किलो राशन उनके घरों तक पहुंचाने का प्रावधान है।
पाकुड़ के स्थानीय पत्रकार रमेश भगत डाकिया योजना की एक और समस्या की तरफ ध्यान दिला रहे हैं। वो कहते हैं, इस योजना की शुरूआत पाकुड़ जिले के सूरजबेड़ा गांव से हुई थी। नियम ये बनाया गया कि आदिम जनजातियों को राशन डीलर से नहीं जोड़ा जाएगा। उनके घरों तक राशन पहुंचाने की जिम्मेदारी सीधे आपूर्ति पदाधिकारी को दी गई, लेकिन हालात ये है कि आपूर्ति पदाधिकारी ने ये जिम्मा किसी राशन डीलर को दे दिया है।जहां आसपास के गांव के आदिम जनजातियों को एक जगह आकर राशन लेना पड़ रहा है।
अशर्फी एक बार फिर कहते हैं, ये वो महीना होता है जब पूरे राज्य से बड़ी संख्या में मजदूर पलायन कर जाते हैं। घर में वृद्ध, महिला और बच्चे ही रह जाते हैं, जो इसी राशन पर निर्भर रहते हैं। ऐसे में राशन न मिलने से ऐसे परिवारों को भारी संकट का सामना करना पड़ता है। ये भी एक वजह है कि अगस्त, सितंब, अक्टूबर वो महीना होता है जब भूख से मौत की खबरें अधिक आती हैं।